[ पंकज चतुर्वेदी ]: दीपावली के ठीक बाद में बिहार और पूर्वी राज्यों में मनाया जाने वाला छठ पर्व अब देश के एक बड़े हिस्से में फैल गया है। दरअसल जहां भी पूर्वांचल के लोग जा बसे हैं वहां वे कठिन तप के पर्व छठ को हरसंभव उपलब्ध जल-निधि के तट पर मनाना नहीं भूलते। छठ पर्व का प्रमुख सोपान है-प्रकृति ने अन्न दिया, जल दिया, दिवाकर का ताप दिया, सभी को धन्यवाद। एक तरह से ‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा’ का भाव। असल में यह दो ऋतुओं के संक्रमण-काल में शरीर को पित्त-कफ और वात की व्याधियों से निरापद रखने के लिए भी आयोजित अवसर है। कार्तिक मास के प्रवेश के साथ छठ की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। छठ के दौरान कुछ दिनों तक दिनचर्या पूरी तरह बदल जाती है। दीपावाली की सुबह से ही छठ व्रतियों के घर में खान-पान में बहुत सारी चीजें वर्जित हो जाती है। अधिकांश घरों में तो सेंधा नमक का प्रयोग होने लगता है।

सनातन धर्म में छठ एक ऐसा पर्व है जिसमें किसी प्रतिमा या मंदिर की नहीं, बल्कि प्रकृति यानी सूर्य, धरती और जल की पूजा होती है। धरती पर जीवन के लिए, पृथ्वीवासियों के स्वास्थ्य की कामना और सूर्य के प्रताप से धरतीवासियों की समृद्धि के लिए श्रदालु कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। बदलते मौसम में जल्दी सुबह उठना और सूर्य की पहली किरण को जलाशय से टकराकर अपने शरीर पर लेना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। सूर्य की किरणों से मिलने वाला विटामिन डी कैल्शियम को पचाने में मदद करता है। तप-व्रत से रक्तचाप नियंत्रित होता है और सतत ध्यान से नकारात्मक विचार मन-मस्तिष्क से दूर रहते हैं। यह बरसात के बाद नदी-तालाब और अन्य जल निधियों के तटों पर बह कर आए कूड़े को साफ करने, अपने प्रयोग में आने वाले पानी को स्वच्छ करने, दीपावली पर मनमाफिक खाने के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित करने और ऊर्जा के स्नोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का भी पर्व है।

छठ पर्व में इस्तेमाल प्रत्येक वस्तु पर्यावरण को पवित्र रखने का उपक्रम होती है। बांस का बना सूप, दौरा, टोकरी, मउनी और मिट्टी से बना दीप, पंचमुखी दीया, हाथी और कंद-मूल और फल जैसे ईंख, सेव, केला, संतरा, नींबू, नारियल, अदरक, हल्दी, सिंघाड़ा, चना, चावल इत्यादि। यह ठीक नहीं कि कहीं-कहीं इसकी जगह ले ली है आधुनिक गीतों, आतिशबाजी, घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने। अस्थाई जल-कुंड या स्वीमिंग पूल में छठ पूजा की औपचारिकता पूरा करना इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाटों और तटों की सफाई करें और फिर पूजा करें। यह अच्छी बात है कि कई जगह लोग ऐसा ही करने लगे हैैं, लेकिन इस संदेश का व्यापक प्रसार होना चाहिए कि छठ पर्व नैसर्गिक जल निधियों की चिंता करने और पर्यावरण को पोषित करने का भी अवसर है। ध्यान रहे कि कहीं-कहीं तो जिस जल में महिलाएं पूजा के लिए खड़ी रहती हैं वह इतना दूषित होता है कि संक्रमण की आशंका बनी रहती है। यह भी समझने की जरूरत है कि पॉलीथीन में खाद्य सामग्री ले जाने से पर्व की पवित्रता तो प्रभावित होती ही है, वह गंदगी का कारण भी बनती है।

इसी तरह जो काल शांत तप-आत्ममंथन और ध्यान का होता है उसमें फिल्मी पैरोडी पर भजनों के सांस्कृतिक और ध्वनि प्रदूषण से बचा जाना चाहिए। यह भी समझा जाना चाहिए कि छठ के अवसर पर पारंपरिक रूप से ढोलक या मंजीरा बजाकर अपने पारंपरिक गीतों या मौखिक ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम भी होता है। पर्व समाप्त होते ही अनेक स्थानों पर चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेशी और उसमें से अपने लिए कीमती वस्तुएं तलाशते गरीब बच्चे आस्था की औपचारिकता को ही उजागर करते हैं। यह सही समय है जब छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे के तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जल-निधियों की पवित्रता, स्वच्छता के संदेश को आस्था के साथ व्यावहारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ों की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में जीवन को बेहतर बनाने का कारगर उपाय हो सकता है।

यदि हर साल छठ पर्व पर देश भर में नए तालाब खोदने और पुराने तालाबों को संरक्षित करने का संकल्प हो, उनमें गंदगी जाने से रोकने का उपक्रम हो, नदियों के घाट पर साबुन, प्लास्टिक और अन्य गंदगी न ले जाने की शपथ हो तो छठ के असली प्रताप और प्रभाव को देखा जा सकता है। स्वच्छ भारत अभियान के दौर में यदि छठ के दिनों को जल-संरक्षण दिवस, स्वच्छता दिवस जैसे नए रंग के साथ प्रस्तुत किया जाए और आस्था के नाम पर एकत्र हुए जनसमूह को इन्हीं संदेशों से जुड़े सांस्कृतिक आयोजनों से पोषित किया जाए, छठ के संकल्प को साल में दो या तीन बार उन्हीं जल-घाटों पर आकर दोहराने का प्रकल्प किया जाए तो सूर्य का ताप, जल की पवित्रता और खेतों से आई नई फसल की पौष्टिकता समाज को निरापद कर सकेगी।

यदि परंपरा और पद्धति को बारीकी से देखें तो छठ पर्व पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने का सामुदायिक पर्व है। यह पूरी तरह से पर्यावरण हितैषी लोकपर्व है। कहीं-कहीं छठ के लिए पूजा करने वाले लोग नदियों और घाटों की विधिवत सफाई खुद करते हैं। इस तरह साल में एक बार खुद-ब-खुद नदी और तालाब की सफाई हो जाती है।

प्रकृति पूजा के इस पर्व में सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। छठ पूजा के दौरान जो भी प्रसाद होता है उससे सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर सब कुछ लेकर व्रत करने वाले वापस आ जाते हैं। अगर कोई सामान नदी-तालाब के तट पर छूटता है तो वह फूल-पत्ती होती है, जो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाती। इस तरह देखा जाए तो प्रकृति पूजा का यह महापर्व पूरी तरह से पर्यावरण के हित का आयोजन है।

छठ पूजा के अनुष्ठान के दौरान गाए जाने वाले परंपरागत गीत इस बात को दर्शाते हैं कि लोग पशु पक्षियों के संरक्षण की याचना कर उनके अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं। चूंकि छठ के साथ हमारे अन्य अनेक पर्व व्यक्ति, समाज के साथ प्रकृति के कल्याण की कामना करते हैैं इसलिए उन्हें मनाते समय उनके मूल उद्देश्य को समझने का भी उपक्रम आवश्यक है।

[ लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैैं ]