[प्रमोद भार्गव]। उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ) रंजन गोगोई को राज्यसभा में मनोनीत किए जाने पर एक बार फिर न्यायपालिका के परिप्रेक्ष्य में नैतिकता के सवाल उठ खड़े हुए हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गोगोई को मनोनीत किया है। राष्ट्रपति को राज्यसभा में 12 सदस्य मनोनीत करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। संविधान निर्माताओं ने उच्च सदन यानी राज्यसभा में मनोनयन का प्रबंध इस पवित्र उद्देश्य से किया था कि ऐसे विषयों के विशेषज्ञों को राज्यसभा में भेजा जा सकता है, जो चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से इस सदन में नहीं पहुंच पाते हैं।

इस लक्ष्यपूर्ति के लिए कला, संस्कृति, साहित्य, विज्ञान और समाजसेवा के क्षेत्रों से जुड़ी ऐसी प्रतिभाओं को राज्यसभा के मंच पर लाना था, जिनके विचार एवं ज्ञान का उपयोग देशहित में किया जा सके। इस नाते एक समय तक लब्ध-प्रतिष्ठित लेखक एवं विचारकों को सदन में भेजा भी जाता रहा है। रामधारी सिंह दिनकर ऐसे लोगों में रहे हैं। ऐसे में रंजन गोगोई के मनोनयन पर प्रश्न खड़े करना अनुचित है। हालांकि इस मनोनयन के बाद गोगोई ने कोई विशेष टिप्पणी न करते हुए इतना जरूर कहा कि ‘राज्यसभा-सदस्य की शपथ लेने के बाद इसे स्वीकार करने का कारण बताएंगे। किंतु संसद में मेरी उपस्थिति राष्ट्र निर्माण के लिए विधायिका एवं न्यायपालिका के बीच बेहतर सामंजस्य बिठाने की पहल करेगी।’

बहरहाल, वर्तमान में न्यायपालिका और विधायिका के बीच अतिरिक्त हस्तक्षेप व सक्रियता के जो मसले उछलते हैं, उनमें यदि गोगोई तालमेल की किसी प्रकार की अहम भूमिका का निर्वाह कर पाते हैं तो यह वास्तव में राष्ट्र के लिए लाभदायी होगा। यह बहस लंबे समय से चल रही है कि न्यायिक पदों से सेवानिवृत्त हुए लोगों की नियुक्ति या मनोनयन किसी महत्वपूर्ण या लाभदायी पद पर नहीं की जाए? रंजन गोगोई ने स्वयं सीजेआइ रहते हुए एक मामले में यह टिप्पणी की थी कि ‘सेवानिवृत्त होने के बाद किसी पद पर न्यायाधीशों की नियुक्ति अथवा मनोनयन नहीं होना चाहिए। इससे स्वतंत्र न्यायपालिका पर सवाल खड़े होते हैं।’ लेकिन फिलहाल कथनी और करनी में भेद की कहावत उन्हीं पर चरितार्थ हो रही है।

वैसे कांग्रेस के ये नेता अपने ही दल के इतिहास में या तो झांक नहीं रहे हैं अथवा जान-बूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं। कांग्रेस ने बहरूल इस्लाम, हिदायतुल्लाह, रंगनाथ मिश्र और केजी बालकृष्णन जैसे पूर्व न्यायाधीशों को इसी तर्ज पर राज्यसभा में या तो मनोनयन किया या फिर निर्वाचित कराकर भेजा। इसलिए कांग्रेस को अपनी अंतरात्मा में भी झांकने की जरूरत है। बहरूल इस्लाम जब सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते थे, तब उन्हें 1962 में और 1968 में कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा। दूसरा कार्यकाल पूरा करने से पहले उन्हें असम और नगालैंड उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया गया। इसे ही वर्तमान में गुवाहाटी हाईकोर्ट के नाम से जानते हैं। पदोन्नति के बाद 1983 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्ति मिलते ही कांग्रेस ने फिर राज्यसभा में भेज दिया। उन्होंने ही बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को एक मामले में बरी किया था। उनके तीसरे मनोनयन को इसी फैसले से जोड़कर देखा गया था।

सीजेआइ बालकृष्णन जब सेवानिवृत्त हुए थे, तब उन्होंने विदाई समारोह में कहा था, ‘सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायाधीशों को कोई जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए और राजनीति से दूर रहना चाहिए।’ पर जब 2009 में वह सेवानिवृत्त हुए तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बन गए। हालांकि इस नियुक्ति पर उनकी पहली

प्रतिक्रिया थी, ‘मुझसे इस मामले में संपर्क नहीं किया गया।’ यदि यह नियुक्ति उनकी मंशा के विरुद्ध थी तो उन्हें पद स्वीकार करने की जरूरत ही क्या थी? जबकि यह पद एक साल से खाली पड़ा था। हालांकि संविधान में ऐसा प्रावधान है कि भारत के पूर्व न्यायाधीश इस आयोग के अध्यक्ष बन सकते हैं।

बालकृष्णन ने 1968 में केरल में रहते हुए वकालत की और सीजेआइ जैसे पद पर पहुंचे। इस सबके बावजूद यह सत्य है कि भारतीय गणतंत्र की उम्र बढ़ने के साथ-साथ लोकतंत्र के सभी पायों में सुधार की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। स्वयं न्यायपालिका के भीतर से भी सुधार के स्वर उभरते रहते हैं। तो कई न्यायाधीश जजों की कमी दर्शा कर अदालत की कार्य-संस्कृति में मौजूद छिद्रों को ढंकने का उपक्रम करते नजर आते हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह भी पहली बार हुआ था कि सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने पत्रकार वार्ता आयोजित कर अपना असंतोष सार्वजनिक किया था।

आमतौर से ऐसा देखने में नहीं आया है कि न्यायालय के भीतर हुए किसी पक्षपातपूर्ण व्यवहार के परिप्रेक्ष्य में कुछ न्यायाधीशों को लोकतंत्र की रक्षा की गुहार लगाते हुए मीडिया को हथियार बनाने की जरूरत आन पड़ी हो? न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी लोकुर और कुरियन जोसेफ ने तत्कालीन सीजेआइ दीपक मिश्रा पर ऊंगली उठाई थी। इस मौके पर चेलमेश्वर ने कहा था, ‘हम इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो देश का लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा। जबकि स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायापालिका भारतीय संवैधानिक व्यवस्था की रीढ़ है।’ वैसे मंशाओं पर सवाल तो बार-बार उठाए जाते रहे हैं, लेकिन सुधार के लिए आजादी के बाद से अब तक कोई ठोस पहल दिखाई नहीं दी है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]