नई दिल्ली [ अश्विनी कुमार पंकज]। केन्या के लिजेंड्री लेखक व कई अंतरराष्ट्रीय पुस्कारों से सम्मानित न्गुगी वा थ्योंगो औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के चर्चित सिद्धांतकार और प्रवक्ता हैं। भारतीय साहित्य, जो पिछले कई दशकों से लगातार दलित, आदिवासी और स्त्री सवालों व सृजन से घिरा है, उसके लिए यह अच्छी खबर है कि न्गुगी वा थ्योंगो भारत यात्र पर हैं। वे शायद ‘हाशिये का साहित्य’ पर देश में चल रहे विमर्श को सही दिशा में ले जाने में मदद कर सकते हैं। ‘बहुजन साहित्य’ की नई अवधारणा पेश करने वालों को भी उनसे मदद मिल सकती है, बशर्ते वे केन्या के एक ‘आदिवासी’ लेखक को सुनने में दिलचस्पी लें।

साहित्य और समाज पर विदेशी नजरिया

न्गुगी 14 फरवरी को कोलकाता में, 16 फरवरी को बेंगलुरु में और 23 फरवरी को दिल्ली में साहित्य व समाज पर अपनी बात रखेंगे। चूंकि उनके लेखन का केंद्रीय विषय वस्तु औपनिवेशिकता के खिलाफ अफ्रीकी आदिवासी जनता का संघर्ष और सृजन रहा है, इस दृष्टि से वे भारतीय जनता के बहुत करीब हैं। भारतीय समाज और साहित्य में दलित, आदिवासी और स्त्री के सवाल वही हैं जिन्हें न्गुगी अफ्रीका के हवाले से बोलते हैं। उनके अनुसार, ‘एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के बीच हमेशा से संबंध रहा है, लेकिन हमारे समय में यह संबंध अदृश्य हो गया है। वह इसलिए कि यूरोप इन तीनों के आपसी विमर्शो के बीच अब भी मध्यस्थ बना हुआ है।’ भारतीय और अफ्रीकियों के लंबे संबंधों के बीच पले-बढ़े न्गुगी इसीलिए इंसानी समुदायों की एकजुटता और सार्वभैमिकता की पैरवी अपने लेखन में करते हैं। इस अर्थ में न्गुगी का इस समय भारत आना, जब सांप्रदायिक असहिष्णुता चरम पर है, अहम बौद्धिक परिघटना है।

''एशिया मेरी नजर में''

फ्रंटलाइन 19 मई 2012 के अंक में प्रकाशित अपने लेख ‘एशिया मेरी नजर में’ की शुरुआत ही वे इन पंक्तियों से करते हैं- मैंने हमेशा महसूस किया है कि मेरे सामाजिक और बौद्धिक रूपांतरण में यूरोप की भूमिका है। एशिया और लातिन अमेरिका के साथ जिसका कोई अर्थपूर्ण संबंध नहीं रहा है। इसका कारण है कि मैं अंग्रेजी में लिखता हूं। मेरे साहित्यिक नायक अंग्रेजी के हैं। मैं औपनिवेशिक केन्या को भी यूरोप के भूगोल, इतिहास और उसके नजरिये से जानता हूं। यहां तक कि उपनिवेशववाद के खिलाफ चल रहे संघर्ष भी यूरोप की दृष्टि से बाहर नहीं निकल पाते।’

भारतीय लोगों के संबंध में, विशेषकर औपनिवेशिक दिनों में उनके संघर्ष को, अफ्रीका के निर्माण में भारत के गिरमिटिया मजदूरों और उद्यमियों के योगदान की चर्चा उन्होंने विस्तार से की है। उन्होंने बताया है कि औपनिवेशिक दिनों में भारत से ले जाए गए मजदूरों का अफ्रीकी आदिवासी समाज और संस्कृति पर कैसा प्रभाव पड़ा है। उनके अनुसार भारतीय चपाती, पराठा और समोसा रूप बदलकर आम अफ्रीकी की जिंदगी के रोजाना के खानपान में शामिल हो गया है। वहीं, बहुत सारी चीजें भारतीय लोगों ने अफ्रीकी समाज से अपना ली है। पर इसी के साथ वे कहते हैं, ‘यह सद्भाव हमेशा नहीं रहता। भारतीय समाज हम अफ्रीकियों से दूरी बरतता है। शॉपिंग सेंटर के काउंटरों को छोड़कर शायद ही हमारे बीच कोई सामाजिक संपर्क रहा है। व्यापारिक और घरेलू काम के लिए ले जाए गए अफ्रीकियों के साथ नस्लीय उत्पीड़न की घटनाएं ‘दुकान वाला भारतीय’ लोगों के द्वारा अक्सर की जाती है, जिससे तनाव और संघर्ष होता है। ‘नकारा’, ‘कामचोर’ ‘जंगली’ जैसे नस्लीय अपमान वाले कुछ शब्द हमारी मातृभाषा गिकुयु में भी घुस आए हैं। जहां तक मुङो अपने बचपन के दिनों की याद है, ऐसा नस्लीय संघर्ष तब नहीं होता था।’

भारतीय समाज के स्वरूप पर टिप्पणी

न्गुगी अपने लेखन में उन सभी प्रभावों की चर्चा करते हैं जो समाज में सायास और अनायास ढंग से चलती है। संगठित और असंगठित दोनों रूपों में। जैसे, ईसाइयत के प्रभाव पर उनकी टिप्पणी है कि अफ्रीकी समाज (जिसमें वे खुद को भी शामिल करते हैं, हालांकि वे ईसाई नहीं हैं) चाहे या न चाहे चर्च के प्रभाव से खुद को अलग नहीं कर सकता। वह कहते हैं, जब वे लीड्स युनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, तब लिखना उनके लिए एक ‘पश्चताप’ की प्रक्रिया थी। उन दिनों उन्हें महसूस होता था कि उन पर पाप का बोझ है जिसकी सफाई के लिए पश्चताप आवश्यक है। इस तरह न्गुगी दो भिन्न समाजों के बीच होने वाले सांस्कृतिक सम्मिलन और नस्लीय संघर्ष को वे बहुत बारीकी से पकड़ते हैं। उसके बाहरी और भीतरी, सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों पहलुओं की जांच-पड़ताल आदिवासी दृष्टि से करते हैं।

न्गुगी मात्र एक लेखक नहीं हैं। उनकी लेखकीय पहचान के कई आयाम हैं। वे शिक्षाविद् हैं, बहुत अच्छे अध्यापक हैं, नाटककार हैं, राजनीतिककर्मी हैं। पर उनकी एक खासियत जो उनको समकालीन लेखकों से अलग करती है, वह है मातृभाषा के साथ उनका गहरा सरोकार। वे मानते हैं कि कोई भी समुदाय मातृभाषा के बिना जीवित नहीं रह सकता। यह लग सकता है कि इसमें नई बात क्या है। मातृभाषा की महत्ता तो असंदिग्ध है ही, लेकिन जब आप न्गुगी को पढ़ेंगे तब शायद जान सकेंगे कि मातृभाषा से उनका तात्पर्य क्या है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जब वे नैरोबी युनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए थे तब उन्होंने विभाग के दो सहयोगियों के साथ मिलकर ‘अंग्रेजी विभाग’ का नाम बदलने का अभियान चलाया था। उनका प्रस्ताव था कि अफ्रीका को अंग्रेजी विभाग की जरूरत नहीं है। इसका नाम अफ्रीकी भाषा-साहित्य विभाग होना चाहिए। उनके इस प्रस्ताव और अभियान की दुनियाभर में प्रशंसा और निंदा हुई थी, लेकिन उनका अभियान रंग लाया और साहित्य के विभाग से अंग्रेजी नाम हटा लेना पड़ा। हालांकि 1970 में इस जीत के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने विभाग से इस्तीफा दे दिया क्योंकि नाम बदलने के बावजूद विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम वही था। जबकि वे चाहते थे कि शेक्सपीयर की जगह पाठ्यक्रम में अफ्रीकी साहित्य और साहित्यकारों को पढ़ाया जाना चाहिए। मातृभाषा और देशी साहित्य के सवाल पर अपने सृजन-संघर्ष की यात्र में उन्होंने कई बार ऐसा किया है।

इस संदर्भ में भारत न्गुगी से क्या ले सकता है, इस पर भारतीय समाज और साहित्य को जरूर विचार करना चाहिए।

(लेखक संस्कृतिकर्मी हैं)