[ संतोष त्रिवेदी ]: उनका टिकट फिर कट गया। इस बार पूरी उम्मीद थी कि जनता की सेवा करने का टिकट उन्हें मिल ही जाएगा। पिछले पांच साल से वह इसी आस पर टिके हुए थे, पर देखिए उनके साथ अनहोनी हो गई। उनकी आस में दिनदहाड़े सेंध लग गई। आखिरी सूची से उनका नाम नदारद हो गया। दरअसल दल के एक बड़े पदाधिकारी के ‘छुटके’ बेटे का मन जनसेवा करने के लिए अचानक मचल उठा। आलाकमान ने भी पार्टीहित, जनहित और देशहित की त्रिवेणी के संगम में उनकी डुबकी लगवा दी। वह जरा समर्पित-किस्म के जीव थे, परंतु दल को अब उनके समर्पण की नहीं तर्पण की जरूरत लगी। पार्टी ने एक बार फिर त्याग और बलिदान का पाठ पढ़ाकर उन्हें किनारे कर दिया। उनको मुक्ति मिली और दल को नई शक्ति। इस अनचाही पुण्याई पर वह फूट-फूटकर रोने लगे। उनके आंसू जमीन पर गिरकर अकारथ हों, इससे पहले ही मीडिया के कैमरों और विरोधी दल के हाथ ने उन्हें थाम लिया। राजनीति पर उनका विश्वास टूटते-टूटते बचा।

वह इतने काम के निकले कि उनके खारे आंसू भी दूसरे दल के काम आ गए। क्षण भर की भावुकता दूर की कौड़ी साबित हुई। जब तक वह दिल से सोचते रहे, घाटे में रहे। दिमाग ने सही राह सुझाई और दर्द के आंसू सीप के मोती बन गए। विचारधारा और सिद्धांत की नश्वरता समझने में पहले ही उन्होंने काफी देर कर दी थी। एक झटके में वह सभी बंधनों से मुक्त हो गए। दुर्भाग्य पलक झपकते ही सौभाग्य बन गया। चुनावी हवा का संसर्ग पाकर वह अनुकूल दिशा में बह चले। ऐसे सुहाने मौसम में भी वह न ‘बहते’ तो आखिर कब बहते! उन्हें तुरंत लपककर नए दल ने बड़े पुण्य का काम किया है। जिनके लिए वह कल तक भ्रष्टाचार के पर्याय थे, उनके दल में प्रवेश होते ही वह कुंदन के माफिक चमकने लगे। यह उनके सार्वजनिक क्रंदन का ही प्रताप था। उन्होंने अपनी बेदाग चदरिया जस-की-तस नए तंबू में बिछा दी। इस तरह आत्मा का परकाया प्रवेश पूर्ण हुआ। उनकी अंतरात्मा को काफी दिनों के बाद जाकर सुकून मिला। वह अब जनसेवा की दहलीज पर खड़े थे। कपड़े बदलने भर से जब कोई साधु बन जाता है तो दल और दिल बदलकर जनसेवक क्यों नहीं बन सकता? इसलिए जहां टिकट मिला वह वहीं टिक गए।

टिकट कटने पर उनका रोना एक बड़ी खबर रही। जनसेवा से उन्हें वंचित करने की साजिश को उन्होंने विरोधी दल के साथ मिलकर नाकाम कर दिया। सेवा को लेकर उनकी प्रतिबद्धता इसी से जाहिर होती है। इसकी तस्दीक के लिए हम बेचैन हो उठे। वह चुनाव क्षेत्र में ही मिल गए। उनके एक हाथ में आंसू और दूसरे हाथ में टिकट था। हमें देखते ही भावुक हो उठे। कहने लगे, ‘तुम्हारी भविष्यवाणी पर हमें यकीन था। तुमने बहुत पहले ही कहा था कि हमारे हाथ की रेखाओं में सेवा का योग लिखा है और देखिए आज उसी हाथ ने हमें यह मौका दिया है। अब हम दोनों हाथों से जनता की सेवा करेंगे। जनता भी हमें पाकर धन्य होगी। हमें महसूस हो रहा है कि हमारा जन्म ही सेवा के लिए हुआ है। अभी तक तो हम दलदल में फंसे हुए थे। अब जाकर सही दल मिला है। इतना बड़ा चरागाह मानों हमारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।’

हमने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘तुम्हारा राजनीतिक उदय शुरू हो चुका है। तुम बहुत आगे तक जाओगे। तुम्हारी ‘किरपा’ आंसुओं में रुकी हुई थी। अब वह साक्षात दिख रही है। तुम्हारे आंसुओं ने टेलीविजन पर झमाझम बरस कर बरसों का ‘सूखा’ समाप्त कर दिया है। एक चुनावी टिकट ने संभावनाओं के कई द्वार खोल दिए हैं। अब तुम्हारे सामने सेवा के मौके ही मौके हैं।’

इतना सुनते ही वह भाव-विह्वल हो उठे। बोले-‘मौके का नाम सुनते ही समूचे शरीर में झुरझुरी सी उठने लगती है। दूसरों को मौका मिलते हमने दूर से ख़ूब देखा है। इतने करीब से पहली बार अपने नजदीक आए मौके को महसूस कर पा रहा हूं। राजनीति में टिकट-विहीन नेता परकटे पंछी की तरह होता है। बिना पंख के जैसे उसकी उड़ान रुक जाती है, वैसे ही नेता का विकास। हम तो विकास के जन्मजात समर्थक हैं और पूरी तरह जनता को समर्पित भी। हमारा विकास जनता का विकास है। हमारी पीड़ा भी जनता की पीड़ा है। हमारे सार्वजनिक रुदन का कारण यही है। यह हमारे आंसू नहीं जनता की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हैं। आने वाले पांच साल में उसे भी यह बात ठीक तरह से समझ में आ जाएगी। सेवा देकर एक-एक आंसू का हिसाब लूंगा।’

‘टिकट कटने के बाद से तुम्हारा आत्मविश्वास लौट आया है। पार्टी आलाकमान यदि तुम्हारा टिकट नहीं काटता, तुम अभी भी गुमनामी में जीते। नए दल से टिकट मार कर तुमने दिखा दिया है कि आंसू कमजोर ही नहीं, बल्कि मजबूत भी बनाते हैं। बस चुनाव तक अपने आंसू बचाए रखो। अब जनता की सेवा करने से तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। तुम्हारी जीत सुनिश्चित है।’ हमने उनके आत्मविश्वास को और हवा देते हुए कहा। हमारा आश्वासन पाकर वह दर्पण की तरह दमक उठे थे।

[ लेखक हास्य व्यंगकार हैं ]