नई दिल्ली [ शंकर शरण ]। इस सप्ताह लोकसभा में हंगामे के बीच इस आशय का एक विधेयक बिना किसी बहस के पास हुआ कि राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा मिलने की कोई जांच नहीं होगी। इसे 1976 से ही प्रभावी किया गया है। दरअसल सोमवार को वित्त विधेयक को जिन 21 संशोधनों के साथ पारित किया गया उनमें एक विदेशी चंदा नियमन अधिनियम से संबंधित था। यह विधेयक तब पास हुआ जब संसद में कई विरोधी दलों का बहिष्कार चल रहा था, फिर भी इस पर किसी दल ने विरोध का बयान नहीं दिया। इससे मामले का रहस्य या महत्व समझा जा सकता है। देश में एक अजीब दृश्य बना है। एक ओर मामूली क्लर्क, दुकानदार या ठेले वाले से भी अपनी आमदनी का पूरा हिसाब लेने की जिद ठानी गई है और उसके तहत पैन, आधार कार्ड आदि की जानकारी मांगी जा रही है और दूसरी ओर राजनीतिक दलों को विदेशी चंदे के मामले में पूरी छूट दी जा रही है।

राजनीतिक दलों को विदेशी धन लेने की खुली छूट

हाल में सत्ताधारियों ने उलाहना दिया था कि इस देश में इनकम-टैक्स देने वाले कितने कम हैं। वे टैक्स चुराने वालों पर व्यंग्य कर रहे थे, लेकिन क्या वे इस पर गौर करेंगे कि राजनीतिक दलों को विदेशी धन लेने की खुली छूट देने का क्या मतलब? केवल खुली छूट ही नहीं दी जा रही, यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है कि उसकी कभी कोई जांच ही न हो। लोकसभा, विधानसभा चुनावों में एक-एक सीट पर दलों, उम्मीदवारों द्वारा जिस तरह पैसा खर्च किया जाता है उससे साफ है कि बड़े-बड़े राजनीतिक दल आम चुनाव में सैकड़ों, हजारों करोड़ रुपये खर्च करते हैं। यह धन कहां से आता है? यह प्रश्न अब और गंभीर हो गया है।

राजनीतिक दल ‘सूचना के अधिकार’ क्षेत्र से बाहर हैं

राजनीतिक दल पहले से ही ‘सूचना के अधिकार’ दायरे से बाहर रखे गए थे। लगता है कि ऐसे सभी निर्णय एक ही उद्देश्य पूरा करते हैं और वह यह कि राजनीतिक दलों की वित्तीय गतिविधियों के बारे में कोई न जान पाए। यह हमारी राजनीतिक प्रक्रिया को हास्यास्पद बना देता है। लगता है कि संसद, विधानसभाओं और टीवी चैनलों पर चलने वाली अधिकांश बहसें एक नाटक भर हैैं। ऐसा नाटक जिसमें हीरो, विलेन और जोकर सब अपनी-अपनी भूमिका जानते हैं। जो वे बोलते हैं, सिर्फ बोलने के लिए। यह जानते हुए कि सच्चाई कुछ और है, लेकिन मंच पर केवल बनी-बनाई बातें कही जाती हैं। यह कोई आज नहीं हो रहा। उक्त विधेयक ने 1976 से ही दलों को विदेशी पैसे का हिसाब देने से मुक्त किया है।

1976 से पहले लिए गए विदेशी धन की जांच नहीं होगी?

क्या उससे पहले लिए गए विदेशी धन की जांच होगी? जी नहीं। संसद में 1956 में ही इसकी चर्चा हो चुकी थी कि कम्युनिस्ट पार्टी को सोवियत संघ से अवैध धन मिलता रहा है। प्रधानमंत्री नेहरू को यह मालूम था, मगर उन्होंने इस पर कुछ नहीं किया, क्योंकि सोवियत संघ से स्वयं नेहरू जी की पुरानी दोस्ती थी। बाद में अनेक बड़े कांग्रेसी खुले तौर पर सोवियत संघ के मित्र बने। सर्वोच्च नेता समेत सबके यहां रूसी सूटकेस पहुंचने की बात इंदिरा गांधी की निकटवर्ती और प्रतिष्ठित अकादमिक पत्रिका सेमिनार की संस्थापक राज थापर ने अपनी आत्मकथा ‘ऑल दीज इयर्स’ में लिखी है। थापर ने लिखा है कि तब सोशलिस्ट नेता भी ये आरोप लगाते थे, मगर सोवियत निमंत्रण पर यात्रा करने के बाद वे भी चुप हो जाते थे। नेहरू के जमाने से ही कम्युनिस्टों, कांग्रेसियों और सोशलिस्टों को भी अनुचित सोवियत सहयोग लेने से रोकने का कोई कष्ट नहीं किया गया।

1976 से पहले गैर-कम्युनिस्ट दलों को पश्चिम से सहायता मिलती थी

गैर-कम्युनिस्ट दलों को भी पश्चिम से सहायता मिलती थी, इसका आरोप स्वयं इंदिरा गांधी 1974-75 में लगा चुकी थीं। थापर के अनुसार रूसी और अमेरिकी दूतावासों के अधिकारी यहां के महत्वपूर्ण नेताओं, अफसरों, पत्रकारों से संपर्क करके उन्हें अपना बनाने की कोशिश करते थे। किसी के इन्कार करने पर यह नहीं समझा जाता था कि वह ईमानदार है, बल्कि यह माना जाता था वह दूसरे पक्ष द्वारा पहले ही खरीदा जा चुका है। इसकी पुष्टि मित्रोखिन आर्काइव्स: द केजीबी एंड द वल्र्ड (2005) के प्रकाशन के बाद पुन: हुई। यह पुस्तक भारत के मुंह पर एक तमाचा सी थी। इसमें सोवियत गुप्तचर एजेंसी केजीबी की भारतीय राजनीति और शैक्षिक, बौद्धिक तंत्र में गहरी पैठ पर दो विस्तृत अध्याय हैं। इनमें प्रमाणिक जानकारी थी कि हमारे अनेक सत्ताधारी, अफसर, बुद्धिजीवी आदि केजीबी की सेवा के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। यह देख एक केजीबी अधिकारी कालूगिन की टिप्पणी थी, ‘लगता है यह पूरा देश ही बिकने के लिए तैयार है।’

मिशनरी संगठनों की अवैध गतिविधियों को अनदेखा किया जा रहा है

हमारे कांग्रेस या कम्युनिस्ट नेताओं ने मित्रोखिन विवरणों का कभी खंडन नहीं किया। यह केवल 12 वर्ष पहले की बात है। तब सबने कहा कि ‘वह पुरानी बात है जिसे अब याद करने से क्या लाभ!’ इसके बाद 2011 में पाकिस्तानी आइएसआइ एजेंट गुलाम नबी फई की अमेरिका में गिरफ्तारी के बाद सामने आया कि भारत के अनेक बड़े बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट उसके हाथों खेलते रहे थे। इनमें सच्चर कमेटी वाले राजेंद्र सच्चर भी थे। उनकी रिपोर्ट की आड़ में मुस्लिम आरक्षण, सांप्रदायिकता-विरोधी बिल आदि लाने के जतन किए गए। विदेशी मिशनरी संगठनों और चर्च की अवैध गतिविधियों पर भी कई बार सरकारी आयोगों ने रिपोर्ट दी है कि किस तरह वे गरीब हिंदुओं और खासकर वनवासियों को धन के जाल में फांसते हैैं और उन्हें भारत विखंडन की ओर ले जाते हैं। जस्टिस नियोगी समिति की रिपोर्ट (1956) में इसके प्रमाणिक विवरण थे, फिर भी उसकी कोई अनुशंसा नहीं मानी गई। मिशनरी संगठनों ने दुष्प्रचार का जितना बड़ा जाल फैलाया है उसे देखकर भी अनदेखा किया जा रहा है।

इस्लामी देशों से आने वाले धन पर चुप्पी साध ली गई

अब समझ सकते हैं कि क्यों? अयातुल्ला खुमैनी के उदय के बाद सऊदी अरब से वहाबी इस्लाम के प्रचार के लिए दुनिया के मुसलमानों के बीच भरपूर पेट्रो-डॉलर का उपयोग हुआ। सुलतान शाहीन जैसे मुस्लिम बौद्धिकों ने इस पर ऊंगली रखी कि सऊदी धन के प्रभाव से यहां मदरसों से पारंपरिक उदारवादी फारसी पाठ हटाकर उग्रवादी वहाबी इस्लामी पाठ अपनाए गए। इसका सीधा दुष्प्रभाव विविध संगठनों के माध्यम से देश की राजनीति में दिखता रहा है, मगर चूंकि रूसी, अमेरिकी धनस्रोतों से भारतीय राजनीति को प्रभावित करने वालों के खिलाफ कभी कुछ नहीं हुआ इसलिए स्वाभाविक था कि सऊदी और दूसरे इस्लामी देशों से आने वाले धन पर भी चुप्पी साध ली गई। और अब तो कानून ही बना दिया गया कि जांच नहीं की जाएगी।

सोवियत संघ गुप्त रूप से भारतीय कम्युनिस्टों को चंदा देती थीं

मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी ने फई प्रसंग पर कहा भी था कि जब अब तक जांच नहीं हुई तो आगे भी करने की जरूरत नहीं। सोवियत संघ के विघटन के बाद 1991-92 में वहां के अभिलेखागारों से एक सूची मिली थी जिसमें दुनिया की उन सभी राजनीतिक पार्टियों के नाम थे जिन्हें गुप्त रूप से सालाना धन दिया जाता था। उसमें भारतीय कम्युनिस्टों का भी नाम था, जिन्हें सालाना पांच लाख अमेरिकी डॉलर मिलते थे। जब संसद में जांच की मांग उठी तो वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता इंद्रजीत गुप्त ने कहा कि जब सभी पार्टियों की जांच हो तो हमारी भी हो। अंतत: कोई जांच नहीं हुई। अब साफ दिख रहा है कि क्यों किसी राजनीतिक दल ने इस मुद्दे पर जांच-पड़ताल का कभी आग्रह नहीं किया, क्योंकि विदशी धन के अवैध और अदृश्य हमाम में सभी नंगे हैैं। विडंबना यह कि इसके गंभीर दुष्परिणामों पर किसी का ध्यान नहीं।

[ लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]