छत्तीसगढ़, मनोज झा। इतिहास गवाह है कि वैचारिक भटकाव, स्वार्थलिप्सा और छलावा जैसी प्रवृत्तियां किसी भी आंदोलन या क्रांति की कब्रगाह साबित होती हैं। सोवियत संघ की ऐतिहासिक बोल्शेविक क्रांति इसी कब्रगाह में दफन है। शातिर चीन ने भी अपने लोकप्रिय नेता माओ की विचारधारा को कब्र में दफनाकर पूंजीवाद को कब का गले लगा लिया है। बस बाकी इतना है कि ड्रैगन ने मुखौटा अभी भी माओ की क्रांति का पहन रखा है। इस फरेब को प्रत्येक चीनी नागरिक भलीभांति समझता तो है, लेकिन वहां की दमनकारी व्यवस्था के सामने वह लाचार है।

इस परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ के धुर दक्षिणी इलाके में अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे नक्सलवाद का परीक्षण जरूरी हो जाता है। यहां से विचारधारा या कथित क्रांति से मोहभंग की लगातार आ रही खबरें इन दिनों दंडकारण्य के जंगलों में जबरदस्त हलचल पैदा कर रही हैं। प्राय: रोजाना ही नक्सलियों के आत्मसमर्पण करने और हिंसा का रास्ता छोड़कर विकास की मुख्यधारा के सहयात्री बनने की खबरें बता रही हैं कि गलियारे का लाल रंग तेजी से फीका पड़ता जा रहा है। जिन्होंने कभी विचारधारा के नाम पर बंदूकें उठाई थीं, आज वे व्यवस्था के मददगार बन रहे हैं। सवाल है कि नक्सलवाद की जमीन कैसे हिल रही है?

अभी हाल ही में दंतेवाड़ा जिले के कुआकोंडा ब्लॉक स्थित नहाड़ी गांव से खबर आई कि ग्रामीणों ने वहां ढहाए गए एक स्कूल की इमारत दोबारा खड़ी कर दी है। तेरह साल पहले इस स्कूल को नक्सलियों ने बम से उड़ा दिया था। तब से गांव के बच्चों को घने जंगलों के बीच सात किमी का सफर तय करके एक अन्य स्कूल जाना पड़ रहा था। इधर हाल ही में जब सुरक्षाबलों ने वहां शिविर लगाया तो नहाड़ी के ग्रामीणों ने नक्सली डर और धमकियों को दरकिनार करते हुए एक बड़ी झोपड़ी तैयार की और उस पर एस्बेस्टस की छत डालकर स्कूल खड़ा कर दिया।

हाल के दिनों में दंतेवाड़ा के अलावा सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर जैसे धुर नक्सल प्रभावित जिलों से दर्जनों नक्सली बंदूक से बदलाव लाने के भ्रम से बाहर आकर हथियार डाल चुके हैं। रक्षाबंधन के मौके पर एक नक्सली अपनी बहन की पुकार पर हमेशा के लिए घर लौट आया। प्रभावित इलाके के कई अन्य गांवों ने भी नक्सलवाद को आईना दिखाना शुरू कर दिया है। अभी पिछले दिनों नक्सलियों के शहीदी सप्ताह जैसे अहम मौके पर कुछ गांवों में तो अलग ही साहसिक पहल देखने को मिली। सुरक्षाबलों के अभियान के दौरान मारे गए नक्सलियों की याद में निíमत कई पक्के स्मारकों को ग्रामीणों ने हथौड़े और फावड़े से ढहा दिया। उन्हें इस बात का डर नहीं था कि नक्सली संगठन इसे किस तरह से लेंगे। एक तरह से यह व्यवस्था के प्रति जंगल की नाराजगी या फिर विभ्रम दूर होने के संकेत हैं। क्षेत्रवासियों को शायद अब ऐसा लगने लगा है कि पुलिस और प्रशासन उनके दुश्मन नहीं, बल्कि मददगार हैं। नहाड़ी के ग्रामीणों ने जिले के कलेक्टर को पत्र लिखकर स्कूल शुरू करने का अनुरोध किया है। यह सब जंगलों में बसे आदिम समाज की नक्सलवाद के छलावे से बाहर आने की छटपटाहट है।

शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मौलिक सुविधा से दूर ये इलाके देश-दुनिया से एक तरह से कटे हुए हैं। सरकार की निरंतर कोशिशों के चलते तस्वीर बदल रही है। सड़कों के लगातार बढ़ते संजाल, जगमग बिजली और शिक्षा के प्रचार-प्रसार की जद में ये इलाके तेजी से आते जा रहे हैं। इससे वनवासियों में व्यवस्था के प्रति एक भरोसा पैदा हो रहा है। इन्हें लगने लगा है कि लाल क्रांति का सपना एक भुलावे से ज्यादा कुछ नहीं है। लंबे समय से चल रहे इस कथित क्रांति के बावजूद आदिम समाज आज भी जस का तस वहीं खड़ा है। दूसरी ओर, नक्सल नेता और कमांडर ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं। इनके पास अथाह पैसा है और इनके बच्चे जंगलों से बहुत दूर महानगरों में सुविधा संपन्न जीवन जी रहे हैं।

ये सारी बातें छन-छनकर जंगलों में भी पहुंच रही हैं और नक्सलवाद तेजी से अपनी सहानुभूति खो रहा है। माओवादियों ने 2006 के जंगल अधिकार कानून के तहत अबूझमाड़ इलाके के आदिवासियों को मिलने वाले पर्यावास के अधिकार के खिलाफ फरमान जारी कर अपने समर्थन की जड़ में मट्ठा डालने का ही काम किया है। ध्यान रहे कि माओ की विचारधारा में जमीन पर कब्जा पाना एक अहम लक्ष्य है, लेकिन अबूझमाड़ के नक्सली शायद इससे भटक गए हैं। इन दिनों बस्तर क्षेत्र को हिंसामुक्त करने के उद्देश्य से एक खास सर्वेक्षण चल रहा है। एक सामाजिक संस्था की इस सकारात्मक पहल को जिस तरह वहां हाथों हाथ समर्थन मिल रहा है, उससे तो यही लगता है कि करीब चार दशक से रक्त-पथ पर लहूलुहान दंडकारण्य बदलाव की करवट लेने जा रहा है।

[राज्य संपादक, छत्तीसगढ़]