नई दिल्ली [ सुरेंद्र किशोर ]। भाजपा नेतृत्व आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और टीडीपी के रूठे नेता चंद्रबाबू नायडू को मनाने में लगी है। माना जा रहा कि दोनों के बीच सुलह हो जाएगी। कुछ राजनीतिक सहयोगियों के मामले में यही काम 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा नहीं कर सकी थी। नतीजतन सत्ता उसके हाथ से निकल गई थी। लगता है इस बार भाजपा छाछ फूंक-फूंक कर पी रही है। 1999 और 2004 लोकसभा चुनाव के आंकड़े इसकी गवाही देते हैं कि यदि भाजपा ने तब रामविलास पासवान को मना लिया होता और द्रमुक उससे दूर नहीं गई होती तो 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता राजग के पास ही रहती। दरअसल कोई बड़ा चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ अच्छे कामों की जरूरत पड़ती है, बल्कि मजबूत सहयोगी और एक स्थाई वोट बैंक भी चाहिए होता है। अपने देश में कुछ नेता और दल वोट बैंक का इस्तेमाल अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करते हैं। कोई जातीय एवं सांप्रदायिक वोट बैंक का इस्तेमाल अपने वंशवाद, व्यापक भ्रष्टाचार, अपराध और व्यक्तिगत धन संग्रह अभियान के काम को आगे बढ़ाने के लिए करता है तो कोई व्यापक जनहित में करता है।

देश की राजनीति पर वोट बैंक हावी

यदि अच्छे काम करने वाले सत्ताधारी दल के पास एक स्थाई वोट बैंक की ताकत नहीं होगी तो उसका तंबू छोटी-मोटी विपरीत राजनीतिक-गैर राजनीतिक हवा में ही उखड़ जाएगा। जिस तरह हाल में राजस्थान के उप चुनावों में हुआ। जाने-अनजाने वोट बैंक इस देश की राजनीति पर 1952 से ही हावी है। आजादी के तत्काल बाद सरकार ने अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया। आरक्षण दस साल के लिए ही हुआ था यानी दस साल बाद आरक्षण नियम के नवीनीकरण के लिए इन जातियों को कांग्रेस पर निर्भर रहना ही था। फिर वे किसी दूसरे दल को वोट क्यों देतीं? जिस दल को आजादी दिलाने का सबसे अधिक श्रेय मिला था उसके प्रति आम लोग प्रारंभिक वर्षों में आकर्षित थे, पर वे वोट बैंक के रूप में कांग्रेस के राजनीतिक दुर्दिन में भी काम आते रहे। हर दस साल पर आरक्षण का नवीनीकरण होता रहा।

देश के बंटवारे के बाद कांग्रेस ने मुसलमानों को सुरक्षा का वादा देकर वोट बैंक बनाया

1947 में सांप्रदायिक हिंसा और तनाव के बीच देश का बंटवारा हुआ। जो मुसलमान भारत में ही रह गए उनकी सुरक्षा की समस्या थी। कांग्रेस सरकार ने उन्हें सुरक्षा का वादा किया और इस तरह वह भी एक वोट बैंक बन गया। जिस जाति का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री होता है उस जाति का बिन मांगे समर्थन उस नेता और पार्टी को मिल जाता है। 1988-89 में जब लगा कि वीपी सिंह प्रधान मंत्री बनने ही वाले हैं तो उनकी जाति के अधिकतर लोगों का बिना मांगे उन्हें समर्थन मिल गया था। यह लाभ देश के प्रथम प्रधानमंत्री को भी मिलना स्वाभाविक ही था।

इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओं के नारे से गरीबों का वोट बैंक उनके पक्ष में चला गया

इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में तो महिलाओं का भी आकर्षण कांग्रेस के प्रति बढ़ा। हालांकि उनको सबसे अधिक लाभ गरीबी हटाओं के नारे से मिला। गरीबों का एक वोट बैंक भी उनके पक्ष में तैयार हो गया था। ऐसे वोट बैंक के सहारे कांग्रेस बहुत दिनों तक राज करती रही, पर समय बीतने के साथ जैसे-जैसे मतदाताओं ने देखा कि कांग्रेस सरकारें वोट बैंक का सदुपयोग नहीं कर रही हैं तो उसे बारी-बारी से केंद्र और अधिकतर राज्यों की सत्ता से हटा दिया।

भाजपा का भी अपना वोट बैंक तैयार हो रहा है

इसके मुकाबले राजग और खासकर मोदी के नेतृत्व में भाजपा का भी अपना वोट बैंक तैयार हो रहा है, हालांकि उसकी गति धीमी है। राजग सरकार के पक्ष में ऐसे लोगों का वोट बैंक तैयार हो चुका है जो चाहता है कि राजनीतिक कार्यपालिका भ्रष्टाचार से मुक्त हो। इस मामले में मोदी सरकार सफल रही है। मोदी मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर भ्रष्टाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं लगा है। मंत्रियों ने आम तौर पर दामन बचा रखा है। एक-दो अपवादों को छोड़कर अब तक के अधिकतर केंद्रीय मंत्रिमंडलों का कोई न कोई मंत्री गंभीर आरोपों के घेरे में रहा है। राजग के पक्ष में दूसरा वोट बैंक ऐसे लोगों का है जो यह चाहते हैैं कि केंद्र सरकार देश को तोड़ने और हथियारों के बल पर सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों-अतिवादियों के प्रति नरमी न दिखाए। मोदी सरकार इस काम में सफल होती दिख रही है। भ्रष्टाचार के मामले में मोदी सरकार की सफलता अधूरी है, पर लोग उसकी मंशा पर शक नहीं कर रहे हैं। संकेत हैैं कि राजग नेतृत्व दो अन्य प्रमुख मुद्दों पर भी मंथन कर रहा है।

ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण और महिला आरक्षण बिल पास होने से वोट बैंक तैयार करना है

एक मुद्दा है पिछड़ों के लिए जारी 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटने का। दूसरा मुद्दा है महिला आरक्षण विधेयक पास कराने का। अगले लोकसभा चुनाव के लिए मजबूत वोट बैंक तैयार करने की दिशा में ये मुद्दे काफी मददगार साबित हो सकते हैं। देखना यह है कि इन मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए जैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है वह राजग नेतृत्व दिखाता है या नहीं? ओबीसी आरक्षण के वर्गीकरण को लेकर केंद्र सरकार ने जैसे कदम उठाए हैैं उसके सकारात्मक संकेत आ रहे हैं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2011 में ही मनमोहन सरकार से यह सिफारिश की थी कि 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांट दिया जाना चाहिए। उस सरकार ने इस सिफारिश को राजनीतिक रूप से नुकसानदेह माना। मोदी सरकार ने गत साल गांधी जयंती पर इस संबंध में बड़ा निर्णय किया। उसने पूर्व जस्टिस रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग बना दिया है। अब तक यह पाया जाता रहा है कि 27 प्रतिशत कोटे के बावजूद औसतन 11 प्रतिशत पिछड़ों को ही कोटे के तहत नौकरियों में जगह मिल पा रही है। यदि वर्गीकरण से कुछ लोगों को अपने हक में यह प्रतिशत बढ़ने की संभावना नजर आएगी तो उनका मजबूत समर्थन राजग को मिल सकता है। महिला आरक्षण विधेयक 2010 में राज्यसभा से पास हो गया था। इसके जरिये विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। लोकसभा में आम सहमति के अभाव में यह संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में लटक गया था। अगस्त 2014 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पास करने की जरूरत बताई थी।

मोदी सरकार महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश करके राजनीतिक लाभ ले सकती है

उम्मीद है कि अगर केंद्र सरकार महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश करती है तो कांग्रेस उसका विरोध नहीं करेगी। मोदी सरकार के लिए यह एक अनुकूल राजनीतिक अवसर है। यदि उक्त विधेयक पास हो गया तो भी उसका राजनीतिक लाभ उसे मिलेगा और यदि कांग्रेस ने उसे पास नहीं होने दिया तो कांग्रेस पर महिला विरोधी होने का आरोप लगेगा। कुल मिलाकर पहल करने का अवसर केंद्र की राजग सरकार को मिला हुआ है। ऐसा अवसर 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी मिला था। उन्होंने गरीबी हटाओ का लोक लुभावन नारा दिया और 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया एवं प्रिवी पर्स समाप्त करके ऐसा माहौल बना दिया कि वह अपने ही बल पर आसानी से लोकसभा चुनाव जीत गईं।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]