कैप्टन आर विक्रम सिंह

आम धारणा है कि 1947 में पंजाब-बंगाल के खेतों से गुजरी अंग्रेजों की रेडक्लिफ लाइन ने भारत को पहली बार बांटा। सच यह है कि 1893 में पेशावर के पार हिंदूकुश के पहाड़ों के बीच से मॉर्टीमोर डूरंड द्वारा खींच दी गई रेखा ने जिस इलाके को बांटा वह भी भारत ही था। इससे पहले सीमाएं पर्वत श्रृंखलाओं, नदियों, सांस्कृतिक क्षेत्रों से निर्धारित होती रहीं। इन सीमाओं से लेकर पंजाब, गंगा-जमुना के मैदानों तक बहुत से राज्यों का एक सिलसिला था। काबुल के अमीर अब्दुलरहमान खान और अंग्रेजी शासन के बीच 12 नवंबर, 1893 को जो समझौता हुआ उसे अफगानिस्तान आ ज भी नहीं मानता। महाभारतकालीन गांधार और बामियान बुद्ध का यह क्षेत्र कनिष्क से लेकर शाहजहां-औरंगजेब तक भारतीय साम्राज्यों का हिस्सा रहा है। गांधार या आ ज का कंधार कोई दूर का देश नहीं था। आज अफगानिस्तान के साथ हमारी सीमाएं सिर्फ 106 किमी तक सीमित हैं और बीच में पाक अधिकृत गिलगित बाल्टिस्तान का इलाका है।

अगर डूरंड रेखा न रही होती तो खान अब्दुल गफ्फार खान पख्तून भारत के नेता होते और जादी के आंदोलन से पख्तून-बलोच इलाका अछूता न रहता। हमें यह याद रहे तो बेहतर कि अंग्रेज साम्राज्य ने भारत में डूरंड और रेडक्लिफ रेखाओं के रूप में जो दो अस्थिर नकली सीमा रेखाएं दीं उनके बीच ही दुनिया का सबसे अस्थिर और आतंकवाद का पनाहगाह बना मुल्क पाकिस्तान स्थित है। हम 1893 के पहले का अफगान पख्तून क्षेत्र देखें तो पाएंगे कि आज का बलूचिस्तान भी भारत के साथ-साथ इसी अफगान पख्तून क्षेत्र का हिस्सा था। हम भारत के इस पहले विभाजन को कभी याद नहीं करते। इन नकली सीमाओं को चुनौती तब मिली जब 16 दिसंबर, 1971 को ढाका में पाकिस्तानी सेनाओं ने आत्मसमर्पण किया। पहली बार यह अहसास हुआ कि अंग्रेजों की खींची ये नकली सीमाएं हमारी भाग्य रेखाएं नहीं हैं। 1947 के इस दूसरे विभाजन ने भारत को अफगान एवं मध्य एशिया क्षेत्र से काट दिया, लेकिन किसी ने परवाह नहीं की।

हमारी कूटनीति ने कभी अफगानिस्तान से सीमा संपर्कों को कायम करना मुद्दा नहीं बनाया। सत्ता और अधिकार की जल्दी में जैसा भी अंग्रेजों ने 1947 में दिया, हमारे नेताओं ने उसे ले लिया। यह कमी 70 वर्षों बाद प्रधानमंत्री मोदी ने ईरान के चाबहार बंदरगाह के रूप में पूरी की है। डूरंड रेखा रूसी और अंग्रेज साम्राज्यवाद की रणनीतियों से उत्पन्न शक्ति संतुलन का परिणाम थी जिसने अफगानिस्तान के पख्तून समाज को भी दो हिस्सों में बांटा। अफगानिस्तान की दुर्गम घाटियों में वक्त की तब्दीलियों से बेखबर प्राचीन कबीलाई संस्कृति परवान चढ़ती रही। इस्लाम या, पर इस्लाम को भी उसी संस्कृति से समझौता करना पड़ा। ऐसा नहीं है कि उन हिंदुओं ने सानी से हार मान ली। वे पहाड़ियां जिनका नाम हिंदूकुश अर्थात हिंदुओं की हत्यारी पहाड़ियां पड़ा, दरअसल सदियों के संघर्ष की गवाह हैं। उस दौर के संघर्षों को सेक्युलर इतिहास के फुटनोट में भी जगह नहीं मिली। लुटेरे शासकों द्वारा उन रास्तों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर लूट का माल और गुलाम बनाए गए हिंदुस्तानियों को ले जाने में किया जाता रहा। खैबर आर्दे के पत्थरों को बलपूर्वक ले जाई जा रही हमारी माताएं-बहनों की चीत्कार और बच्चों की सिसकियां आज भी याद होंगी। कबीलाई संस्कृति के कारण अफगानिस्तान राष्ट्र राज्य नहीं बन सका। आज भी नहीं है। यहीं से भारत खंड का ऐतिहासिक सांस्कृतिक विस्तार प्रारंभ होता है। पख्तून, ताजिक, हजारा, उजबेक, तुर्क आदि बहुत से जातीय समूहों के चलते वहां अस्थिरता का स्थाई वास है।

1839 के बाद हुए प्रथम अफगान युद्ध में काबुल में काबिज अंग्रेज सेना औरतों-बच्चों सहित पूर्णत: नेस्तनाबूद कर दी गई थी। शायद इसे ही अफगान राष्ट्रीयता का प्रस्थान बिंदु कहा जा सकता है। डूरंड रेखा ने इस सीमाविहीन कबीलाई क्षेत्र को दो हिस्सों में बांट कर पख्तून राष्ट्रवाद को खड़े होने से पहले ही कमजोर कर दिया। चूंकि यह सीमा साम्राज्यवादी शक्ति संतुलन के कारण बनी इसलिए साम्राज्यों के विलीन होने के साथ ही अर्थहीन भी हो गई। जब 55 वर्ष बाद भारत का विभाजन हुआ तो यही डूरंड रेखा पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा बनी। पाकिस्तान के निर्माण में मूल भावना मुस्लिम असुरक्षा ही रही और उसके बल पर ही जिन्ना ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का विस्तार दिया। बीते 70 वर्षो से पाकिस्तान पहचान के संकट से ही जूझ रहा है। सिर्फ 25 वर्षो में द्विराष्ट्रवाद के जिन्ना के तर्क को ध्वस्त करते हुए बांग्लादेश अपनी सांस्कृतिक भाषाई पहचान के साथ अलग हो गया। पाकिस्तान के अस्तित्व के धारभूत मजहबी तर्क में अब कोई दम नहीं बचा है। आज भारत में मुसलमानों को असुरक्षित दिखाते रहना ही उसके वजूद का एकमात्र कमजोर सा आधार है।

भारत में सांप्रदायिक तनाव, दंगों आदि की बातें लगातार करते रहना पाकिस्तान की जरूरत और मजबूरी है। पाकिस्तान के पंजाबी, सिंधी, पख्तून जिस दिन समझ गए कि पाकिस्तान की बादी से कहीं अधिक मुसलमान भारत में ज्यादा सुरक्षित हैं उस दिन से पाकिस्तान में कई और बांग्लादेश बनने होने शुरू हो सकते हैं। इसीलिए उसको लगातार दुष्प्रचार, विषवमन, सीमाओं पर युद्ध जैसे हालात, तंक के निर्यात और हाफिज सईद जैसों की जरूरत बनी रहती है। भारतीय कूटनीति अपने लगातार हमलों से पाकिस्तान से एक-एक करके सारे हथियार छीनती जा रही है।116 दिसंबर, 1971 को बांग्लादेश का उदय नकली सीमाओं और नकली देश के विरुद्ध भारत की प्रथम विजय थी।

पाकिस्तानी सेनाओं का आत्मसमर्पण सैन्य विजय होने के साथ महान वैचारिक विजय भी थी, लेकिन इसको आगे नहीं ले जाया गया। कदाचित तत्कालीन नेतृत्व ने सैन्य विजय में ही स्वयं को संतुष्ट कर लिया। 1971 जैसी बड़ी विजय के बाद भी भारत विश्व राजनीति में घुटनों के बल चलता रहा। जनरल मानेक शॉ द्वारा राष्ट्र को भेंट की गई इस महान विजय का श्रेय लेने और आत्मश्लाघा में गौरवान्वित तत्कालीन सरकार ने उन दिशाओं को लक्षित नहीं किया जिस पर आज चला जा रहा है। शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या एवं बाद में पाकिस्तानी परमाणु बम के निर्माण ने 1971 की ऐतिहासिक विजय को श्रीहीन किया। तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व में रणनीतिक समझ के अभाव की बानगी हमें शिमला समझौते में भी मिलती है, जो आज एकतरफा एवं अर्थहीन हो चुका है। हम विजयी देश थे और फिर भी हम ही कश्मीर में यथास्थिति की मांग कर रहे थे। आखिर इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? शिमला समझौते में भुट्टो को वह सब कुछ मिला जो वह चाहते थे। फिर वह पाकिस्तान के सैन्य सशक्तीकरण में लग गए। कभी-कभी लगता है कि भारत की विजय गलत लोगों के हाथ पड़ गई। उनमें यह क्षमता ही नहीं थी कि वे वृहद ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस विजय का महत्व समझ पाते। 1971 की अभूतपूर्व विजय की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि युद्ध की उपलब्धियां वार्ताओं की मेज पर गंवा दी गईं।

[लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं]