[एमजे अकबर]: अगर अमेठी सीट राहुल गांधी के लिए सुरक्षित नहीं है तो फिर गंगोत्री से लेकर बंगाल की खाड़ी तक कांग्रेस अपने लिए किसी सीट को सुरक्षित नहीं मान सकती। कभी राहुल गांधी ने खुद ज्यूपिटर की ‘एस्केप वेलोसिटी’ जैसा हैरतअंगेज शिगूफा छेड़ा था तो लगभग उसी अंदाज में उनका यह कदम भी हैरान करने वाला है कि वह उत्तर प्रदेश में परिवार की अपनी पारंपरिक सीट से एक तरह किनारा करके सुदूर दक्षिण में केरल की पहाड़ियों के बीच बसे वायनाड में अपनी राजनीतिक किस्मत आजमाने जा रहे हैं। गंगा-यमुना के मैदान में बसी हिंदी पट्टी में कांग्रेस के पराभव और भग्नावशेष राजनीतिक खुदकशी से जुड़ा महत्वपूर्ण विमर्श है। यह अपने आप में इतना बड़ा है कि खुद एक किताब लिखे जाने की मांग करता है, मगर वह एक अलग मसला है।

राहुल गांधी का अमेठी से पलायन वर्ष 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस के खाते में दर्ज होने वाली पहली हार की तरह है। यहां यह स्मरण करना भी उल्लेखनीय होगा कि अमेठी में राहुल गांधी की जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दलों ने वह सब किया जो वे कर सकते थे। बसपा प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पहले ही एलान कर दिया था कि वे अमेठी में अपना प्रत्याशी नहीं उतारेंगे, लेकिन जब केमिस्ट्री या यूं कहें जन-जुड़ाव ही निर्णायक हो जाता है तो बड़े से बड़े गणितीय आकलन धरे के धरे रह जाते हैं। अमेठी के मतदाता एक लंबे अरसे से किए जा रहे थोथे वादों से अब उकता गए हैं और विकास के मोर्चे पर पिछड़ने को लेकर भी वे कुपित हो रहे हैं। यह मायावती और अखिलेश के उस फैसले को भी जायज ठहराता है जिसमें उन्होंने कांग्र्रेस को अपने गठबंधन से बाहर रखना ही मुनासिब समझा। कांग्रेस ने इसमें शामिल होने के लिए एड़ी-चोटी के जोर तो लगाए, लेकिन उसे कुछ हासिल नहीं हुआ।

यह एक उलझी हुई पहेली ही है कि आखिर वायनाड ही क्यों? किसी भी कद्दावर नेता के लिए यह बहुत सामान्य माना जाता है कि वह उस राज्य से चुनाव लड़े जहां उनके दल की सरकार हो। यह बहुत ही सामान्य चलन है। इसकी वजह यह है कि अपनी पार्टी की सरकार में प्रशासन कई अप्रत्यक्ष तरीकों से सहायक होता है। पंजाब में कांग्रेस की सरकार चल रही है। हाल में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे तीन राज्यों में भी कांग्रेस की सरकारें बनीं हैं। वास्तव में जब चार महीने पहले कांग्रेस ने इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी तो पार्टी समर्थकों ने राजनीतिक क्षितिज पर सूरज की एक नई किरण के रूप में इसका स्वागत करते हुए कहा था कि 2019 के चुनाव तक यह दोपहर के चढ़े सूरज की मानिंद अपनी चमक बिखेरेगा।

आखिर राहुल गांधी ने इन राज्यों से चुनाव क्यों नहीं लड़ा? क्या उन्हें अपने मुख्यमंत्रियों पर विश्वास नहीं है या फिर उन्हें यह अहसास हो गया है कि मतदाताओं का पहले से ही मोहभंग हो रहा है? कर्नाटक पर गंभीरता से विचार किया जा रहा था। बेंगलुरु में सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार में कांग्र्रेस ही वर्चस्व वाली भूमिका में है। जनता दल-सेक्युलर के पुरोधा एचडी देवगौड़ा को अपनी निजी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कांग्र्रेस के सहारे की दरकार है।

इसके ऐतिहासिक कारण भी हैं। जब 1977 के लोकसभा चुनावों में हुए मानमर्दन के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी कांग्रेस का कायाकल्प करने में जुटी थीं तो 1978 में कर्नाटक का चिकमंगलूर ही उनका राजनीतिक पड़ाव बना था। तब वह चिकमंगलूर के रास्ते ही संसद पहुंची थीं। हाल में कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष दिनेश गुंडूराव ने भी राहुल गांधी को अपने राज्य से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया था। इसके लिए बीदर सीट का नाम भी लिया जा रहा था। ऐसे आमंत्रण पहले से किसी सलाह-मशविरे के बिना नहीं भेजे जाते। आखिरकार अंत में कर्नाटक से कन्नी क्यों काट ली गई?

एक बार फिर इसका जवाब भी बहुत ही स्वाभाविक है। कांग्रेस पार्टी अब कर्नाटक को अपना बहुत मजबूत किला नहीं मानती है और यही राय उसके नेताओं की भी है। अब जब चुनाव प्रचार अभियान गति पकड़ रहा है तो हम दीवार पर लिखी इबारत को भी स्पष्ट रूप से पढ़ सकते हैं। जमीनी हकीकत तो यही बयान कर रही है कि जनसमर्थन का ज्वार प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में बढ़ रहा है।

तब फिर वायनाड ही क्यों? यह कम दिलचस्प नहीं है कि वायनाड में राहुल गांधी भाजपा के खिलाफ नहीं, बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी भाकपा उम्मीदवार के खिलाफ चुनावी रण में उतर रहे हैं। आप देख सकते हैं कि उनके इस एक कदम से वामपंथियों का दिल टूट गया है। वे लाल-पीले हो रहे हैं। एक नेता के रूप में राहुल गांधी को समर्थन देने के लिए वामपंथी दलों से जो भी बन पड़ा, उन्होंने किया। उनका इतिहास अनिश्चितता, गलतियों और गलत फैसलों भरा रहा है।

वामपंथी दलों को इसका जरा भी अंदाजा नहीं होगा कि इसका उन्हें यह सिला मिलेगा कि राहुल गांधी उनके खिलाफ ही मोर्चा खोल लेंगे। यह वही राहुल गांधी हैं जो सभी साथी राजनीतिक दलों के बीच यह कहते हुए घूम रहे थे कि भाजपा को हराने के लिए वे सभी आपसी मतभेद भुलाकर उसे सत्ता से बाहर करने में सहायक बनें। इस सबके बीच इस तथ्य पर भी गौर करना होगा कि केरल में इस समय कांग्र्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ नहीं, बल्कि माक्र्सवादी मोर्चे की सरकार है तो कांग्र्रेस को कोई प्रशासनिक लाभ भी नहीं मिलेगा।

राहुल गांधी के वायनाड से भी चुनाव लड़ने के फैसले का केवल एक ही कारण है और वह यह कि इस संसदीय क्षेत्र में करीब आधे मतदाता मुस्लिम हैं। इसमें कुछ हर्ज नहीं। भारतीय मुस्लिम देश के वोटर हैं और उन्हें अपनी पसंद तय करने का अधिकार है। इस धारणा का कोई आधार नहीं कि मुस्लिम वोटर एक जैसे हैं। वे उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक या फिर केरल में अलग-अलग तरीके से वोट करते हैं। वायनाड में मसलमानों का एक तबका भाकपा के साथ हैं। वहां भाकपा प्रत्याशी भी मुस्लिम हैं, लेकिन केरल और खासतौर पर वायनाड में अधिकांश मुसलमान मुस्लिम लीग को वोट देते हैं।

राहुल गांधी को जीत के लिए मुस्लिम लीग पर निर्भर रहना होगा। कांग्रेस चाहे तो अपने नेतृत्व वाले मोर्चे यूडीएफ की जीत के आंकड़े का स्मरण कर सकती है। दरअसल जो दल उसकी मदद कर सकता है वह मुस्लिम लीग ही है। यह इतिहास में पहली बार होगा जब कोई कांग्रेस अध्यक्ष जीत के लिए मुस्लिम लीग पर निर्भर होगा। जरा इसके संभावित असर के बारे में विचार करें।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )