[डॉ. रश्मि सिंह]। कोरोना जनित संकट के दौर में आज सबसे गरीब, किसान और मजदूर वर्ग सबसे कठिन दशा में जीवन-यापन कर रहा है। हालांकि केंद्र सरकार से लेकर तमाम राज्य सरकारें इन तक मदद पहुंचा रही हैं, फिर भी इनकी समस्याओं का मुकम्मल समाधान नहीं हो पा रहा है। ऐसे में अक्सर यह चर्चा होती है कि आखिर हमारा सामाजिक-आर्थिक ढांचा किस प्रकार का होना चाहिए ताकि संकट के समय इन लोगों को कम से कम असुविधा हो। ऐसे में ब्राजील में एक समय अपनाए गए ‘बोल्सा फैमिलिया’ कार्यक्रम को समझने एवं आत्मसात करने की आवश्यकता है। इस कार्यक्रम के तहत गरीबों और वंचितों को सरकार सीधे मदद भेजती है। इसके जरिये ब्राजील में बड़ी संख्या में लोगों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित की गई है। तमाम विश्लेषण ये बताते हैं कि इस कार्यक्रम के जरिये ब्राजील में सामाजिक सुरक्षा की तस्वीर बदल गई है।

भारत में कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए वर्तमान लॉकडाउन के कारण आबादी का एक बड़ा हिस्सा, खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूर बीते करीब दो माह से मजदूरी से वंचित हैं। ऐसे लोगों के लिए इस प्रकार की सामाजिक सुरक्षा स्कीम कारगर साबित हो सकती है। दरअसल ब्राजील का ‘बोल्सा फैमिलिया’ कार्यक्रम दुनिया के एक बड़े कंडीशनल कैश ट्रांसफर्स (सीसीटी) में शामिल है, जिसे निर्धनता और असमानता को खत्म करने की दिशा में एक नवोन्मेषी औजार के रूप में जाना जाता है।

इस स्कीम की शुरुआत वर्ष 2003 में हुई थी। उस समय ब्राजील में संचालित चार अलग-अलग संघीय कार्यक्रमों के जरिये किए जाने वाले पृथक-पृथक प्रयासों से अपेक्षित परिणाम प्राप्त होने के कारण इन सभी का विलय कर दिया गया था। उस समय डाटा सिस्टम को आपस में लिंक नहीं किया गया था जिस कारण जहां एक ओर कई परिवारों को अनेक तरीकों से लाभ मिल रहा था, वहीं कई परिवार ऐसे भी पाए गए जिन्हें किसी प्रकार की मदद नहीं मिल पाई थी। जरूरतमंद परिवारों तक समुचित मदद नहीं पहुंच पाने और कुछ लोगों तक बार-बार मदद पहुंचने जैसी विसंगति को देखते हुए ‘यूनीफाइड कैश ट्रांसफर’ प्रोग्राम की आवश्यकता महसूस की गई। सभी जरूरतमंदों तक मदद पहुंचाने के मकसद से मिनिस्ट्री फॉर सोशल डेवलपमेंट एंड कॉम्बेटिंग हंगर यानी सामाजिक विकास और भूख से मुकाबला करने वाले एक नए मंत्रालय का गठन किया गया।

सामाजिक सुरक्षा के मकसद से गठित इस ‘बोल्सा फैमिलिया’ को ब्राजील में संघीय सरकार के साथ राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों की ओर से न केवल पर्याप्त स्वीकृति मिली, बल्कि इसे सफल बनाने के लिए सभी ने रणनीतिक रूप से आपस में तालमेल भी कायम किया। परिणामस्वरूप संघ और राज्य स्तर पर बडी संख्या में सीसीटी के बीच साम्यता नजर आने लगी। वर्ष 2003 में इसकी शुरुआत 38 लाख परिवारों से की गई, जिसका दायरा वर्ष 2010 तक 1.3 करोड़ परिवारों तक पहुंच गया।

कार्यक्रम की रूपरेखा : इस कार्यक्रम के तहत निर्धन परिवारों को एक तय रकम दी गई थी। आमदनी के स्तर और बच्चों की संख्या आदि के आधार पर इन परिवारों को अलग-अलग रकम दी गई और इसके बदले परिवार की माताओं से यह कहा गया कि वे अपने बच्चों का स्कूल में नामांकन और उनकी उपस्थिति, टीकाकरण, बच्चों की सेहत की पर्याप्त निगरानी समेत गर्भावस्था पूर्व और गर्भावस्था बाद स्वास्थ्य केंद्रों में जांच को सुनिश्चित करें। अत्यंत वंचित तबके के लोगों को आजीविका मुहैया कराने के इंतजाम भी किए गए। इस कार्यक्रम के तहत गरीब परिवारों के लिए ‘केडास्ट्रो यूनिको’ नामक एक राष्ट्रव्यापी केंद्रीय डाटाबेस तैयार किया गया था। इसमें ‘बोल्सा फैमिलिया’ के सभी लाभार्थियों की पात्रता को दर्ज किया गया।

न्यूनतम मजदूरी से कुछ कम रकम कमाने वालों और इससे आधी रकम कमाने वालों की अलग-अलग पहचान की गई और गरीबी के स्तर के मुताबिक उन्हें पात्रता के अनुरूप ऐसे लोगों को अधिक रकम स्थानांतरित की गई। लाभार्थियों की सूची स्थानीय निकायों द्वारा तैयार की गई और रकम का स्थानांतरण सरकार द्वारा परिवार की महिला के खाते में किया गया। इस कार्यक्रम के परिणामस्वरूप गरीबी में तेजी से कमी आई। वर्ष 2004 से 2014 के बीच 2.86 करोड़ निवासियों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में कामयाबी मिली। यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि इस कार्यक्रम का 80 प्रतिशत से अधिक लाभ अत्यंत गरीब परिवारों को प्रदान किया गया। इससे इन परिवारों में अनाज की खपत बढ़ी और सेहत का स्तर भी दुरुस्त हुआ। स्कूलों में बच्चों का नामांकन बढ़ने के साथ उपस्थिति दर बढ़ी और बाल श्रमिकों की संख्या में गिरावट आई। भारत में मौजूदा संकट के बीच गरीब- मजदूरों को भुखमरी से बचाने के लिए यह कार्यक्रम बेहद कारगर साबित हो सकता है।

[आइएएस अधिकार]