[पीयूष द्विवेदी]। बीते कुछ वर्षों के दौरान जम्मू कश्मीर के अलावा देश के अनेक हिस्सों में हुए अनेक आतंकवादी हमलों में आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद का नाम प्रमुखता से सामने आया है। इस संगठन का नेतृत्व करने वाले मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित करने की राह में चीन ने एक बार फिर रोड़ा अटका दिया है। बीती 27 फरवरी को अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने यूएनएससी में मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने का प्रस्ताव पेश किया था, जिस पर इस समूह में एक हद तक आम सहमति नजर आ रही थी। लेकिन जैसी कि पहले से आशंका थी, यूएनएससी के स्थायी सदस्य के रूप में मिले वीटो का इस्तेमाल करते हुए चीन ने इस प्रस्ताव को पारित होने से रोक दिया।

पहले भी लगाता रहा है अड़ंगा
यह चौथी बार है जब चीन ने मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित किए जाने की राह में अड़ंगा लगाया है। इससे पहले वर्ष 2017, 2016 और 2009 में भी चीन जैश सरगना को वैश्विक आतंकी घोषित होने से बचा चुका है। वर्ष 2017 में चीन ने मसूद के बचाव में तर्क दिया था कि वह बहुत बीमार है और अब सक्रिय नहीं है और न ही जैश का सरगना है। सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में शामिल चीन अब तक यह कहता आया है कि मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं।

वहीं पुलवामा हमले के बाद वैश्विक आक्रोश के मद्देनजर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस को उम्मीद थी कि इस बार चीन समझदारी से काम लेगा और उनके कदम को बाधित नहीं करेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अमेरिका की तरफ से तो इस बार कड़ी चेतावनी भी दी गई थी कि चीन यदि अपने रुख में परिवर्तन नहीं करता है तो क्षेत्रीय स्थिरता और शांति के लिए संकट पैदा हो सकता है। परंतु इस चेतावनी का भी चीन पर कोई असर नहीं हुआ और एक बार फिर उसने अपने पुराने रुख को कायम रखा।

क्यों जरूरी है चीन की मंजूरी
अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के इस समय ये कुल पांच स्थायी सदस्य हैं। नियमों के मुताबिक परिषद में कोई भी प्रस्ताव इन पांचों सदस्यों की सहमति के बिना पारित नहीं हो सकता। इन सभी सदस्यों को वीटो की तकनीकी शक्ति मिली हुई है, जिसके जरिये वे किसी भी प्रस्ताव को असहमत होने की स्थिति में रोक सकते हैं। चीन अपने इसी अधिकार का दुरुपयोग करते हुए न केवल मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित होने से रोकता है, बल्कि इस परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की राह में भी अड़ंगा लगाता रहा है। शेष चारों सदस्य सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता पर सहमत हैं, परंतु चीन की चालबाजी के कारण भारत को अब तक इस सदस्यता से वंचित रहना पड़ा है। इसे दुर्योग ही कहेंगे कि आज जिस यूएनएससी की स्थायी सदस्यता के बलबूते चीन भारत के लिए कई मोर्चों पर परेशानी बना हुआ है, आजादी के बाद वह सदस्यता भारत को मिल रही थी, लेकिन देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के कारण वह चीन के पास चली गई। गौरतलब है कि वर्ष 1953 में सोवियत संघ द्वारा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का प्रस्ताव भारत के समक्ष रखा गया था, नेहरू ने उस सदस्यता को लेने से इन्कार कर दिया।

इस बारे में कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने अपनी किताब ‘नेहरू : द इनवेंशन ऑफ इंडिया’ में लिखा है, ‘जिन भारतीय राजनयिकों ने उस दौर की विदेश मंत्रालय की फाइलों को देखा है, वे इस बात को मानेंगे कि नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य बनने की पेशकश को ठुकरा दिया था।’ यहां तक कि रूस ने भारत के लिए छठी सीट बनाने तक की बात की थी, लेकिन नेहरू पहले चीन का मामला हल करने के लिए प्रयासरत रहे। नेहरू की परवर्ती कांग्रेसी सरकारों का रुख भी इस मामले में ढीला-ढाला ही रहा और अंतत: 1971 में चीन को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दे दी गई। जाहिर है इस मामले में नेहरू के दूरदर्शी नहीं होने के कारण भारत संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य बनने से वंचित रह गया और इस कारण आज दशकों बाद तक यह परिघटना देश के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है। सैकड़ों निर्दोषों की जान बचाने के लिए मसूद अजहर को रिहा करने के कारण आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर सवाल उठाने वाली कांग्रेस को नेहरू की इस कूटनीतिक विफलता पर भी एक नजर जरूर डालनी चाहिए।

चीन को घेरने का सही अवसर
अब सवाल यह उठता है कि चीन की मनमानियों पर भारत की क्या प्रतिक्रिया हो? देखा जाए तो चीन हमेशा से भारत के प्रति आक्रामक रवैया रखता आया है, जबकि आजादी के बाद से ही भारत ने उसके प्रति रक्षात्मक नीति ही अपनाई है। हालांकि वर्ष 2017 में घटित डोकलाम प्रकरण के बाद भारत की इस रक्षात्मक नीति में परिवर्तन का संकेत जरूर मिला, लेकिन उस घटना के बाद भी जिस तरह से चीन के भारत विरोधी और पाक-परस्त रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है, उससे लगता है कि अभी हमें उसके प्रति और गंभीरतापूर्वक आक्रामक रणनीति अपनाने की जरूरत है।

बनानी होगी कूटनीतिक बढ़त
बहरहाल अगर भारत चाहे तो कूटनीतिक रूप से चीन को घेरने का यह बहुत ही सही अवसर है। सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित किए जाने के प्रस्ताव का विरोध करने के कारण इस बार चीन उसके शेष सदस्य देशों को नाराज कर बैठा है। भारत को इस अवसर का लाभ लेते हुए उसे वैश्विक मंचों पर घेरने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए। चीन की इस हरकत को आतंकवाद को प्रश्रय देने के रूप में विश्व पटल पर प्रचारित और स्थापित करना भारतीय कूटनीति का वर्तमान में बड़ा लक्ष्य होना चाहिए।

उचित होगा कि भारतीय जांच एजेंसियां और ख़ुफिया ब्यूरो आदि मिलकर इस विषय में चीनी भूमिका की गुप्त जांच करें और उसकी संलिप्तता पाए जाने पर, उसे साक्ष्य समेत विश्व समुदाय के सामने लाकर, चीन के ढोंगी चरित्र का पर्दाफाश करें। अगर भारत दुनिया को यह संदेश देने में कामयाब रहता है कि पाकिस्तान में पनपे आतंकवाद को संरक्षण चीन से मिल रहा है तो यह चीन पर एक बड़ी कूटनीतिक बढ़त होगी। इस प्रकार चीन को विश्व बिरादरी में सामाजिक स्तर पर प्रतिष्ठाशून्य और कमजोर किया जा सकता है।

आत्मनिर्भर बने स्वदेशी बाजार
वह समय गया जब तलवारों और बंदूकों के दम पर साम्राज्य स्थापित होते थे। सैन्य कार्रवाई से भी ज्यादा कारगर हथियार अब आर्थिक कार्रवाई बनता जा रहा है। इससे देश की अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर पड़ता है। वर्तमान दौर आर्थिक साम्राज्यवाद का है और चीन यह बात बहुत अच्छे से जानता है। इसीलिए वह अपनी कम टिकाऊ, किंतु सस्ती वस्तुओं के द्वारा भारतीय बाजारों को लुभाने का प्रयास कर रहा है और बड़े पैमाने पर इसमें सफल भी रहा है। अक्सर कहा जाता है कि भारत को चीनी उत्पादों का बहिष्कार करना चाहिए या फिर उसके उत्पादों के आयात को हतोत्साहित करना चाहिए। इससे चीन को कमजोर किया जा सकता है। ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने चीनी वस्तुओं पर 300 फीसद टैरिफ लगाने का सुझाव दिया है, ताकि उनके सामान की खपत को हतोत्साहित किया जा सके। लेकिन कड़वा सच यह है कि इस विषय में लाख चाहने पर भी भारत चीन को रोकने की स्थिति में नहीं है। दरअसल डब्लूटीओ यानी विश्व व्यापार संधि के कारण भारत के हाथ बंधे हुए हैं।

डब्लूटीओ किसी भी देश को आयात पर भारी-भरकम प्रतिबंध लगाने से रोकता है। वर्ष 2016 में राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में तत्कालीन वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने खुद कहा था कि भारत विश्व व्यापार संगठन के नियमों की वजह से चीनी वस्तुओं पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगा सकता है। वैसे भी इस वैश्वीकरण के दौर में एकदूसरे के उत्पादों का बहिष्कार न तो आर्थिक दृष्टि से सही है और न ही व्यावहारिक रूप से ही इसका कोई लाभ है। लेकिन भारत को इतना तो अवश्य करना चाहिए कि वह स्वनिर्माण के क्षेत्र में अधिकाधिक निवेश के द्वारा चीनी बाजारों पर से अपनी निर्भरता को कम करते हुए, आत्मनिर्भर होने के लिए यथासंभव प्रयास करे। भारत का स्वदेशी बाजार यदि मजबूत होगा तो बिना किसी प्रतिबंध के चीनी उत्पादों का बाजार देश में सिमटता जाएगा।

ठोस रणनीति से बन सकती है बात
चीन के एक प्राचीन विद्वान सुनुत्से ने अपनी एक किताब में लिखा है कि दुश्मन को हराने का सबसे अचूक हथियार है कि उसे, उसके दुश्मनों से भिड़ा दो। चीन के पाकिस्तान प्रेम का यह एक प्रमुख कारण इसे भी कहा जा सकता है। इसके अलावा सीपीईसी के रूप में उसने पाकिस्तान में जो भारी-भरकम निवेश किया है, इस कारण भी पाकिस्तान के साथ खड़ा होना उसके लिए जरूरी है।

भारत के लिहाज से इस मोर्चे पर जापान एक कारगर साथी हो सकता है। गौरतलब है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ के बाद जापान, चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है, वहीं चीन जापान का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है। दोनों देशों के बीच लगभग साढ़े तीन सौ अरब डॉलर का व्यापार है। भारत इस व्यापार को तो बहुत प्रभावित नहीं कर सकता, लेकिन जापान के सहयोग से क्षेत्रीय स्तर पर चीन को जवाब देने का काम कर सकता है।

मोदी सरकार के आने के बाद इस दिशा में देश की सक्रियता दिख भी रही है, जिसका प्रमाण चीन की ‘वन बेल्ट वन रोड’ परियोजना के जवाब में भारत और जापान द्वारा मिलकर शुरू की गई एएजीसी यानी एशिया अफ्रीका ग्रोथ कोरिडोर परियोजना है। इस परियोजना के तहत अफ्रीका के साथ दक्षिण, पूर्व और पूर्वी एशिया की अर्थव्यवस्था को बेहतर ढंग से एकीकृत करने की साझेदार पहल हुई है। इसके तहत भारत, अफ्रीका और अन्य सहयोगी देशों के बंदरगाहों को एक नए रूट से जोड़ा जाएगा।

इसके अलावा बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार और भूटान के साथ मिलकर भारत सासेक यानी साउथ एशियन सब रीजनल इकोनोमिक कोऑपरेशन कॉरिडोर परियोजना पर भी काम कर रहा है। जाहिर है कि भारत क्षेत्रीय स्तर पर चीन को हावी न होने देने की दिशा में उपलब्ध विकल्पों के अनुसार काम कर रहा है जिसके नतीजे भविष्य में दिख सकते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान मोदी सरकार के कार्यकाल में चीन के प्रति देश के रक्षात्मक रुख में कुछ परिवर्तन अवश्य आया है, परंतु अभी आवश्यकता है कि इसे और अधिक सुस्पष्ट और सुनियोजित ढंग से आक्रामक रूप दिया जाए। स्पष्ट दृष्टि और ठोस रणनीति के बिना चीन का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
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