[ आशुतोष झा ]: बीते कुछ महीनों में राजनीति बहुत तेजी से बदलती दिख रही है। बड़ी संख्या में विपक्षी दल और नेता अपने सिद्धांत और छवि के विपरीत भी चलने की तैयारी का संकल्प जता रहे हैं। बयानों में तो एक कदम और आगे बढ़कर इतना बड़ा दिल दिखाया जा रहा है जैसे उन्हें व्यक्तिगत से ज्यादा इसकी चिंता है कि वह केंद्र की राजग सरकार के खिलाफ सामूहिक अभियान में शामिल दिखें। यह बड़ी घटना है जिसके कारण इसकी संभावना भी बढ़ गई है कि इस बार शायद विपक्षी एकजुटता दिखे जो जाहिर तौर पर राजग के लिए बड़ी चुनौती होगी। खासतौर पर तब जबकि उसके अपने कुनबे में ही बिखराव की आग सुलग रही हो।

खैर, बड़ा सवाल यह है कि क्या इस एकजुटता का उद्देश्य भी एक है? क्या ऐसे सभी दलों और नेताओं का दिल सचमुच बड़ा हो गया है? या इस कोशिश में जुटा हर दल एक दूसरे का कंधा ढूंढ रहा है, निजी लाभ की गुंजाइश तलाश रहा है? ऊपर से शांत और भीतर से उफान लिए यह संघर्ष दोनों गठबंधनों के वर्तमान व भावी दलों के बीच भी दिख रहा है और दलों के नेताओं के बीच भी। लड़ाई का मैदान भले ही राष्ट्रीय है, लेकिन इसमें कई ऐसे योद्धा भी हैं जो क्षेत्रीय और व्यक्तिगत सोच से ऊपर उठ पाने में असमर्थ हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में विपक्षी महागठबंधन को लेकर कुछ तंज कसे। जाहिर तौर पर कुछ चीजें बहुत साफ-साफ दिख रही हैं। मसलन विपक्ष में इसकी होड़ है कि सबसे ज्यादा एंटी मोदी कौन दिखता है? दरअसल यह सीधे तौर पर उक्त नेता को मोदी के सामने तो खड़ा करता ही है, जनता के उस वर्ग में भी लोकप्रिय बनाता है जो भाजपा या राजग के खिलाफ है।

राहुल गांधी पिछले कुछ महीनों में जिस तरह हमलावर दिख रहे हैं, उसके पीछे शायद यही आकलन हो। ध्यान रहे कि महागठबंधन के नेतृत्व को लेकर बार-बार सवाल पूछे जाते हैं जिसका अब तक कोई उत्तर नहीं दिया जा रहा है। यह सार्वजनिक है कि महागठबंधन में जिन दलों को गिना जा रहा है उसमें कांग्रेस तो सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन अनुभव और उम्र के लिहाज से राहुल सबसे युवा हैं। इसका अहसास भी संभावित दोस्तों की ओर से कराया जा रहा है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव इस दौड़ में ही नहीं है, लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती की चुप्पी का क्या...।

उन्होंने तो उस बयान के बाद भी कोई टिप्पणी नहीं की जिसमें अखिलेश ने मायावती को नेता मानने और ज्यादा सीटें देने तक का खुला संदेश दे दिया था। देखा तो यह भी जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के कार्यक्रमों में भी मायावती का जिक्र बड़े अदब के साथ किया जाता है, लेकिन बसपा की ओर से कोई खुला रिस्पांस नहीं दिख रहा है। क्यों? ममता बनर्जी महागठबंधन की हिमायती हैं, लेकिन गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों का खेमा बनाकर और परोक्ष रूप से उसका नेतृत्व लेकर यह जताने में कोई गुरेज नहीं करती हैं कि उनकी स्वीकार्यता बड़ी है। दिल्ली आने पर भी उनकी कोशिश यह होती है कि कांग्रेस समेत दूसरे दलों के नेता उनके पास आएं। हालांकि उन्हें जानने वाले मानते हैं कि उनकी दिलचस्पी फिलहाल पश्चिम बंगाल में ज्यादा है, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि वह महागठबंधन की शर्त खुद तय करना चाहती हैं।

चंद्रबाबू नायडू की महत्वाकांक्षा कुछ भी हो सकती है, लेकिन वह जानते हैं कि उनकी हद आंध्र प्रदेश है। तब क्या यह नहीं मानना चाहिए कि क्षत्रपों की दिल्ली में हो रही गतिविधि दरअसल राज्यों में खुद को ताकतवर दिखाने के लिए हो रही है। एक तरीके से उप-राष्ट्रवाद को उभारा जा रहा है। खुद को संबंधित राज्यों में सबसे बड़ा और प्रभावी नेता स्थापित करने की कोशिश हो रही है। यह किसी से नहीं छिपा है कि चंद्रबाबू को अपने विरोधी दल वाइएसआर कांग्र्रेस के दबाव में राजग से बाहर जाना पड़ा था। राज्य में उन्हें हर कदम पर जवाब देना पड़ रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में पहचान कम से कम नेतृत्व और चेहरे के आधार पर तो उन्हें वाइएसआर कांग्र्रेस के जगन मोहन रेड्डी से थोड़ा आगे खड़ा कर ही सकती है।

मजे की बात यह है कि अपना कद बढ़ाने की कवायद न सिर्फ गठबंधन के अंदर, बल्कि दलों के अंदर भी चल रही है। वामदल महागठबंधन में बहुत अहमियत नहीं रखते हैं, क्योंकि पश्चिम बंगाल में उनकी ताकत नहीं बची और केरल में वह कांग्र्रेस का साथ नहीं दे सकता।

दिल्ली में माकपा महासचिव सीताराम येचुरी राहुल गांधी की इफ्तार पार्टी में शामिल हुए तो उनके विरोधी धड़े के बड़े नेता व केरल के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ममता और अन्य दो गैर कांग्र्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ खेमा बनाते दिखे। वह तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर भी गए। हाल में जब देश के कई मुख्यमंत्री योग दिवस का बहिष्कार कर रहे थे तो पिनरई योग की प्रशंसा में खुल कर बोले।

कड़वी सच्चाई यह है कि कर्नाटक के दक्षिण में न तो कांग्र्रेस के पास ताकत है और न ही भाजपा के पास। यहां क्षेत्रीय दलों में जिस तरह की खींचतान है उसमें गठबंधन तो संभव है, लेकिन महागठबंधन नहीं। जिस तरह आपसी खींचतान चल रही है उसमें असरदार बनने के लिए कई गुत्थियां सुलझाई जानी बाकी हैं, लेकिन यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि जितना शोर हो रहा है उसका सत्तर फीसद भी जमीन पर उतरा तो भाजपा और राजग की राह बहुत कठिन होगी।

लेकिन प्रधानमंत्री के बयान का दूसरा अकथित पहलू यह भी है कि भाजपा के लिए यह लड़ाई उतनी आसान नहीं जितनी दो साल पहले दिख रही थी। इसमें शक नहीं कि नरेंद्र मोदी ने प्रशासन में कुशलता दिखाई और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने संगठन को आसमान पर पहुंचाने की सोच और दक्षता को साबित किया। पर यह वक्त है गठबंधन बनाने, संवारने और संभालने का। पूर्वोत्तर में जरूर कुछ दल राजग का हिस्सा बने हैं, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना समेत दूसरे छोटे दल नाराज हुए हैं।

उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सरकार में रहते हुए भी आए दिन बगावती सुर में बोलती है। बिहार में जदयू के छोटे नेताओं के बयान विपक्षी दलों को खुश होने का मौका देते हैं और बड़े नेता चुप रहकर इसे तूल। पिछली लोक सभा में सौ फीसद सीट भाजपा को देने वाले राजस्थान में अंदरूनी घमासान है। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वहां प्रदेश अध्यक्ष को चुनने में चार-पांच महीने लग गए।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ लाख कोशिशों के बावजूद पंद्रह साल की सत्ता विरोधी लहर से नहीं बच सकते हैं। जब विपक्षी खेमा उत्साह से लबरेज हो तो इसे सामान्य मानना महंगा पड़ सकता है। अमित शाह को दिखाना होगा कि वह कुशल संगठनकर्ता ही नहीं गठबंधन के माहिर शिल्पकार भी हैं।

[ लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैं ]