अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी के गठन और दिल्ली में उसके अप्रत्याशित उभार ने देश में एक नई उम्मीद जगाई थी। दिल्ली के साथ-साथ शेष देश के लोगों को ऐसा लगा था कि आखिरकार एक ऐसे दल का उदय हो गया है जिसके तौर-तरीके सर्वथा भिन्न हैं। जो सचमुच आम आदमी के हितों की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है और जो भ्रष्टाचार से लड़ने के मामले में गंभीर ही नहीं, बल्कि ईमानदार है। यही कारण रहा कि देश भर में आम आदमी पार्टी से जुड़ने की होड़ लग गई और कई लोगों ने अपनी नौकरी और व्यवसाय तजकर केजरीवाल का साथ देना तय किया। आम आदमी पार्टी ने राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर जैसी हलचल पैदा की उससे यह भी लगा कि भारत का भाग्योदय होने वाला है और केजरीवाल एवं उनके सहयोगी बुनियादी बदलाव के सच्चे वाहक बनेंगे। अच्छी बात यह भी हुई कि मीडिया ने इस दल को हाथों-हाथ लेना शुरू कर दिया। इस माहौल के चलते भाजपा-कांग्रेस समेत अन्य दलों में चिंता की लहर दौड़ गई। अब वे शायद ही पहले जितने चिंतित हों, क्योंकि केजरीवाल ने 49 दिनों तक जिस तरह दिल्ली की सरकार चलाई उससे तमाम लोगों का उनसे मोहभंग हुआ। नई तरह की राजनीति करने के वायदे के साथ सत्ता में आई केजरी सरकार धीरे-धीरे उन्हीं तौर-तरीकों को अपनाने में जुट गई जिनसे आजिज आकर लोगों ने अन्य दलों से मुंह फेरना शुरू कर दिया था।

केजरीवाल और उनके साथी भ्रष्टाचार से ईमानदारी के साथ लड़ने के इरादे से सत्ता में आए थे, लेकिन उन्होंने झूठ, फरेब और पाखंड का सहारा लेना शुरू कर दिया। जिन केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के वक्त अपने एक प्रत्याशी को सिर्फ इसलिए हटा लिया था कि उसने अपनी बहू की ओर से खुद के खिलाफ दर्ज कराई गई एफआइआर की जानकारी नहीं दी थी उन्होंने ही सत्ता मिलने के बाद अफ्रीकी महिलाओं से अभद्रता के आरोपी अपने मंत्री सोमनाथ भारती के बचाव में झूठ पर झूठ बोले। दिल्ली पुलिस के खिलाफ धरने पर बैठने और इस दौरान गणतंत्र दिवस समारोह में भी खलल डालने की सगर्व धमकी देने के साथ ही उन्होंने युगांडा दूतावास की करीब छह माह पुरानी चिट्ठी को चंद दिन पहले मिली चिट्ठी के तौर पर पेश किया। सच्चाई की बातें करने वाले शख्स से ऐसी अपेक्षा कदापि नहीं थी। केजरीवाल और उनकी टोली ने जन लोकपाल विधेयक पर भी झूठ पर झूठ बोलने के साथ लोगों को गुमराह करने का काम किया। सबसे पहले ऐसे किसी नियम के अस्तित्व में होने से ही इन्कार किया गया जो दिल्ली विधानसभा में कोई विधेयक पेश करने के पहले केंद्र सरकार से अनुमति लेने की बात कहता है। जल्द ही उसे असंवैधानिक बताया जाने लगा और उसकी अनदेखी करके जन लोकपाल विधेयक विधानसभा में पेश करने की जिद पकड़ ली गई। संविधान विशेषज्ञ यह कहते रहे कि इस नियम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाए तो वह आसानी से खारिज हो सकता है, लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी। विशेषज्ञ इस पर भी जोर देते रहे कि जब तक उक्त नियम अस्तित्व में है तब तक उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन शायद केजरीवाल देश पर शासन करने के लालच में दिल्ली की सत्ता से बाहर निकलने की पतली गली देख चुके थे। उन्होंने उस याचिका के निस्तारण का भी इंतजार नहीं किया जो उक्त नियम को खारिज करने के लिए दायर की गई थी और जिसकी सुनवाई करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय राजी भी हो गया था।

चूंकि विधानसभा सत्र बुलाने से पहले केजरीवाल गैस के दामों को लेकर मुकेश अंबानी, वीरप्पा मोइली समेत चार लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा चुके थे इसलिए वह भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा के रूप में नए सिरे से चर्चा में आ गए थे। गैस के दामों की वृद्धि की पहेली कई अन्य लोगों को भी समझ में नहीं आ रही। इनमें भाकपा सांसद गुरुदास दासगुप्त भी हैं। वह अर्से से अंबानी और केंद्र सरकार के पीछे पड़े हैं। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की जा चुकी है। हालांकि कुछ जानकारों ने कहा कि गैस के दामों को लेकर एफआइआर दर्ज कराने का कोई तुक नहीं और केजरीवाल ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया, लेकिन बावजूद इसके यह श्रेय उनके खाते में गया कि उन्होंने अंबानी के साथ-साथ केंद्र सरकार को चुनौती देने की हिम्मत दिखाई। केजरीवाल के इस आरोप में तत्व नजर आया कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, किसी में अंबानी के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं। इस आम धारणा को भी गलत नहीं कहा जा सकता कि भाजपा-कांग्रेस अंबानी और ऐसे ही अन्य बड़े उद्यमियों के प्रति नरम हैं, लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों की ओर से यह प्रचारित करना तो निरा झूठ है कि भाजपा और कांग्रेस इसलिए जन लोकपाल के विरोध में आ खड़ी हुईं, क्योंकि उन्होंने अंबानी के खिलाफ एफआइआर दर्ज कराई। जन लोकपाल विधेयक पारित न हो पाने के लिए अंबानी को जिम्मेदार ठहराना एक किस्म का फरेब भी है और पाखंड भी।

इस दुष्प्रचार का उद्देश्य जनता को गुमराह करना है-ठीक वैसे ही जैसे अन्य दल करते हैं। 49 दिन की अपनी सरकार के दौरान किए गए आधे-अधूरे कामों को बड़ी कामयाबी के तौर पर प्रचारित करना और इन कामों को कांग्रेस के 15 सालों के कार्यकाल से ज्यादा बताना उतना ही हास्यास्पद है जितना चंद्रशेखर सरकार का चार महीने बनाम 40 साल वाला नारा था। केजरीवाल एक ऐसे नायक के रूप में उभरे थे जिसे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं और जो किसी भी हालत में सच का साथ न छोड़ने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि अब वह प्रधानमंत्री बनने के लिए झूठ, फरेब और पाखंड का सहारा ले रहे हैं। हो सकता है कि उनकी लोकप्रियता पर कोई असर न पड़े, लेकिन उन्होंने बहुतों को निराश और दुखी किया है। यह भी साफ है कि उन्होंने ईमानदारी के अपने ढोल में खुद ही कई छेद कर लिए हैं।

[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]