[निर्मल गुप्त]: इन दिनों फीफा विश्व कप की धूम मची हुई है। हालांकि विश्व कप भले ही यहां से हजारों किलोमीटर दूर रूस में हो रहा हो, लेकिन हमारे यहां राजनीतिक गलियारों में भी काफी फूं-फां यानी गहमागहमी जारी है। अगले साल होने वाले चुनाव से पहले हमारे सियासतदां भी चुनावी मुद्दों की फुटबॉल को ज्यादा से ज्यादा अपने कब्जे में रखकर विपक्षी खेमे के गोलपोस्ट में दागने की हसरत से खूब खिलंदड़ी में लगे हुए हैं। इसके लिए मंझे हुए खिलाड़ियों को अपने पाले में खींचने की भी भरसक कोशिश हो रही है जो चुनावी मुद्दों की बेहतरीन ढंग से ड्रिबलिंग करते हुए विपक्षी खेमे में खलबली मचाकर गोल दागकर अपनी टीम के सिर पर जीत का सेहरा बंधवा सकें। वहीं अपने बयानों से सेल्फ-गोल कराने वालों की पहचान कर उन्हें बेंच पर बिठाने की तैयारी पर भी पूरा ध्यान है कि वे बस बाहर से ही ताली पीटते रहें।

जोशोखरोश वाले फीफा के इस माहौल में भी चुनावी आहट पाकर जगह-जगह रूठे हुए राजनीतिक ‘फूफा’ मुंह फुलाए घूम रहे हैं। वे अपने सियासी भाव बढ़ाने की जुगत में लगे हैं, लेकिन क्या पता कि उनका दांव उल्टा पड़ जाए और ‘रेफरी’ उन्हें यलो या रेड कार्ड दिखाकर चलता कर दें। राजनीतिक निष्ठाओं की अदला-बदली की गजब फीफागिरी चल रही है। अतिरिक्त समय में किए गए गोल के माफिक हर कोई अपनी संभावनाएं अधिक से अधिक भुनाने की फिराक में है। कुल मिलाकर सिद्धांतों की छान फटक के लिए यह उपयुक्त समय है। तमाम दलों के गोलची अवसर को लपकने के लिए अपनी-अपनी स्किल को साधने लगे हैं। ऐसे मौकों पर नैतिकता को ताक पर टिकाकर इलेक्शन में जीतने लायक हरफनमौला प्यादे तलाशे जाते हैं। हर ओर शर्तिया जीत के समीकरणों की खोजबीन चल रही है।

बाजार भी फीफा की चमक से सराबोर है। कीमती परिधानों से सजे शोकेसों में रक्ताभ धब्बों वाली फुटबॉल गर्वीले अंदाज में धरी हैं। कतिपय रेस्तरांओं के रिसेप्शन पर फुटबॉल को ऐसे रख दिया गया है कि यह खेल का उपकरण कम बर्थडे केक या जंबो सैंडविच अधिक लगता है। कुछ जगहों पर तो फुटबॉल ऐसे रखी है जैसे वह बॉल नहीं अफवाह हो। आओ-आओ इसे उड़ाओ। फुटबॉल के साथ सारा ब्रांडेड बाजार भी अपने-अपने तरीके से झूम और फुदक रहा है।

इस बार भाग्य बांचने वाला कोई ऑक्टोपस नहीं है, इसलिए सबकी निगाह मशीन लर्निंग और कृत्रिम बुद्धिमता से निकले भाग्य के डिजिटल आंकड़ों पर टिकी। आखिरकार आंकड़े हार गए और खेलने वाले जीत कर आगे बढ़ गए। इस सबके बीच आम आदमी को यह समझ नहीं आ रहा कि यह कैसा खेल है कि पूरा मैच निबट जाता है पर यह समझ नहीं आता कि दरअसल हुआ क्या? हरे भरे मैदान में रंगबिरंगे परिधान में सजे इतने खिलाड़ी निरंतर दौड़ लगाते हैं कि लगता है टीवी या मोबाइल की स्क्रीन में रंगों की लकीरें छुपम-छुपाई खेल रही हैं। कोई खिलाड़ी कहीं ठहरता ही नहीं, अबाबीलों की तरह लगातार उड़ता ही जाता है।

क्रिकेट की तरह न कोई गुलाटी मारकर कैच पकड़ता है। न कैच लपकने के बाद गब्बर की तरह मूंछों पर ताव देता है। इतनी भाग-दौड़ के बावजूद एकाध गोल हुआ तो हो गया। यह भी कोई खेल है जिसमें तमाम धरपकड़ के बावजूद नतीजा सिंगल डिजिट में निकले। न कोई कॉमर्शियल ब्रेक और न कोई स्ट्रेटेजिक टाइम आउट। फीफा चूंकि विश्व स्तर का टूर्नामेंट है इसलिए अनचाहे ही सही, वैश्विक सोच की खातिर इसे सरेआम देखना तो बनता है। इसी वजह से इस फीफा को रात-रात भर जागकर देखना पड़ता है। खुद को फुटबॉल देखने वाले एलीट क्लब का मेंबर साबित करने के लिए रियल टाइम सोशल मीडिया पोस्ट डालने का उपक्रम भी करना पड़ता है।

आइपीएल ने हमें देश की भौगौलिक सीमाओं से परे खेल भावना के तल पर ताली पीटना सिखा दिया है। हम अब जान चुके हैं कि बेगानों के खेल कौशल का भी लुत्फ उठाया जा सकता है, भले खिलाड़ी के नाम को सही से लिख-बोल भी न पाएं। फटाफट क्रिकेट की तरह बतौर दर्शक इस खेल में भी मैच के अंतिम क्षण तक कोई भी अपनी निष्ठा बदल सकता हैं। राजनीति में तो ऐसे विकल्प सदा खुले ही रहते हैं। फुटबॉल में तो यह काम बेहद आसान है। इंद्रधनुष के रंगों में से मनचाहा रंग चुनें और जो जीतता हुआ मिले उसके जश्न में खुद को शामिल मान लें। देखते रहिए, एक दिन देखते-देखते फीफा की फीफागिरी और राजनीतिक ‘फूं-फा’ के निहितार्थ सामने आ ही जाएंगे।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]