[ सुरेंद्र किशोर ]: भीड़ की हिंसा के मामले जातीय और सांप्रदायिक उन्माद के कारण भी सामने आ रहे हैैं, लेकिन यह कहना कतई सही नहीं कि सिर्फ अल्पसंख्यक ऐसी हिंसा के निशाने पर हैैं। इसका कोई तथ्यात्मक आधार भी नहीं है। देश भर से आ रही खबरों से यह साफ है कि लगभग हर समुदाय और वर्ग के लोग भीड़ की हिंसा के शिकार हो रहे हैं। इसका प्रमाण हाल की उन घटनाओं से मिलता है जो बीते दिनों में बिहार और झारखंड में घटीं। बिहार में तीन मवेशी चोर भीड़ के हाथों मारे गए और झारखंड में डायन होने के शक में चार लोग। राजनीतिक और अन्य कारणों से शोर एकतरफा जरूर हो रहा है।

भीड़ की हिंसा पर कड़े कानून बनाने की तैयारी

भीड़ की हिंसा पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार कड़े कानून बनाने की तैयारी में है। यह जरूरी भी है, लेकिन आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार के बिना किसी कानून की सफलता सीमित ही रहेगी। जिस देश में औसतन सिर्फ 45 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा मिल पाती हो वहां अपराधियों का मनोबल बढ़ना ही है। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को सुधारने के लिए सर्वाधिक जरूरत इस बात की है कि सजाओं का प्रतिशत बढ़ाने के कारगर उपाय तत्काल किए जाएं। अमेरिका की 93 प्रतिशत और जापान की 98 प्रतिशत सजा दर को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें तो अपने ही देश के विभिन्न राज्यों में सजा दर में भारी अंतर क्यों है? क्यों केरल में सजा दर 77 है तो बिहार और बंगाल में क्रमश: 10 और 11? क्या इन आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करके हमारे शासकों ने कोई सबक सीखने की कभी कोशिश की है? इसी देश की विभिन्न जांच एजेंसियों के मामलों में भी सजा दर में भारी अंतर है?

भीड़ की हिंसा के नाम पर देश को बदनाम करने की कोशिश

राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए जिन मामलों में आरोप पत्र दाखिल करती है उनमें से 92 प्रतिशत मामलों में सजा दिलवा देती है। सीबीआइ के मामलों में सजा दर 65 है, लेकिन राज्य पुलिस का औसतन 45 ही है। स्वाभाविक है कि मानव संसाधन और अन्य मामलों में इन एजेंसियों को मिल रही सरकारी सुविधाओं में अंतर है, लेकिन क्या इतना अधिक अंतर है कि एक एजेंसी 92 प्रतिशत सजा दिलवाए और दूसरी एजेंसी सिर्फ 10 प्रतिशत? क्या इन एजेंसियों ने इस मुद्दे पर कभी विचारों का आदान-प्रदान किया है? क्या 10 प्रतिशत सजा दर वाले राज्य के सरकारी प्रतिनिधियों ने 77 प्रतिशत वाले राज्यों में जाकर उनके अनुभवों को जानने की कोशिश की है? लगता तो नहीं है, अन्यथा कुछ सुधार अवश्य हुआ होता। अब तो यह काम और भी जरूरी हो चुका है, क्योंकि भीड़ की हिंसा के नाम पर देश को बदनाम करने वाली शक्तियां सक्रिय हो चुकी हैैं। ये शक्तियां इससे अनजान नहीं हो सकतीं कि भीड़ की हिंसा का कारण सिर्फ सांप्रदायिक या जातीय ही नहीं है।

कानूनी प्रक्रिया के जरिये सजा मिलना मुश्किल

देश के कई इलाकों में कई बार चोरी, प्रेम प्रसंग और गलत ड्राइविंग के आरोप में पकड़े गए लोगों की हत्या इसलिए भी कर दी जाती है कि हत्यारों को लगता है कि यदि गिरफ्त में आए लोगों को छोड़ देंगे तो कानूनी प्रक्रिया के जरिये उन्हें सजा मिलना बहुत मुश्किल है। जिस देश में 55 प्रतिशत आरोपित अदालतों से छूट जाते हैं उनमें से वे भी हो सकते हैैं जो भीड़ की हिंसा का शिकार बनते हैैं।

अपराधों पर काबू पाने का नुस्खा

अपराध की समुचित जांच और अभियोजन के बेहतर तरीके से किस तरह अपराधों पर काबू पाया जा सकता है, इसका सफल प्रयोग बिहार में कभी किया गया था। 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में राजग की सरकार बनी थी। उससे पहले के शासन को पटना हाईकोर्ट ने ‘जंगल राज’ की संज्ञा दे रखी थी। नीतीश सरकार ने तय किया कि आर्म्स एक्ट के मुकदमों को अन्य दफाओं से अलग करके अभियोजन चलाया जाए यानी जिस आरोपी पर हत्या और आर्म्स एक्ट के तहत मुकदमा चल रहा हो तो पहले आर्म्स एक्ट पर सुनवाई हो। हत्या के मामलों का गवाह तो कोई भी हो सकता है, पर आर्म्स एक्ट के मामलो में तो गवाह पुलिस ही होती है।

सुशासन कायम नहीं रह सका

पुलिस को धमका कर गवाही देने से रोक देना बहुत मुश्किल काम है। पुलिस खुद गवाही से पलट नहीं सकती।आर्म्स एक्ट की अलग से सुनवाई का चमत्कारिक एवं सकारात्मक असर बिहार की कानून व्यवस्था पर तब पड़ा और नीतीश कुमार की छवि ‘सुशासन बाबू’ की बनी। बाद के वर्षों में वैसा सुशासन कायम नहीं रह सका।

विभिन्न राज्यों और जांच एजेंसियों के बीच विचार-विमर्श से आम्र्स एक्ट जैसे नए विचार सामने आ सकते हैं। इससे पूरे देश को कानून-व्यवस्था की दृष्टि से लाभ हो सकता है।

आपराधिक न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाना

आपराधिक न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए समय-समय पर सुझाव आते भी रहते हैं। अभियोजन और कानून-व्यवस्था के कामों का बंटवारा पुलिस थाना स्तर पर होने से काफी फर्क पड़ेगा, लेकिन इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की ओर दिए गए दिशा-निर्देशों पर अमल नहीं हो रहा है। अदालतों की संख्या बढ़ाने में जो भी खर्च आएगा वह सार्थक ही होगा। जिस देश में 55 प्रतिशत आरोपित ही सजा से बच जाते हों वहां कानून एवं व्यवस्था का क्या हाल होगा, इसकी कल्पना शासकों को होनी चाहिए। गंभीर आपराधिक मामलों में पुलिस पर नेताओं और अफसरों की ओर से नाजायज दबाव को लेकर भी सजा का प्रावधान होना चाहिए। आम लोग यह देख कर बहुत खुश होते हैं कि हमारी सरकार भ्रष्टाचार और अपराध के प्रति शून्य सहनशीलता का रुख-रवैया अपनाती है।

भीड़ की हिंसा में शामिल लोगों में भय पैदा करना

अगर भीड़ की हिंसा में शामिल लोगों में यह भय व्याप्त हो जाए कि इस अपराध के कारण वे सजा से बच नहीं सकते तो वैसा कळ्कृत्य करने से पहले सौ बार सोचेंगे, लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि बड़ी शक्तियां उन्हें सजा से बचाने की कोशिश न करें। यदि भीड़ द्वारा किसी की हत्या के पीछे कोई सांप्रदायिक या जातीय भावना नहीं है तो फिर ऐसे मामलों में वैसी भावना प्रतिरोपित करके राजनीतिक लाभ उठाने से बचा जाना चाहिए, नहीं तो सांप्रदायिक एवं जातीय आधार पर अपराधियों को बचाने वाले भी पैदा हो जाएंगे। अपने देश में अक्सर भीड़ द्वारा पकड़े जाने पर चोरों को मार दिया जाता है।

भीड़ की हिंसा रोकने में पुलिस निष्क्रिय

चोरी की घटना और उसकी हत्या के बीच कोई उससे उसकी जाति या मजहब नहीं पूछता। उस समय भीड़ के दिमाग में पुलिस की निष्क्रियता और चोरी की घटना को लेकर आक्रोश हावी होता है। यह आक्रोश इसलिए हावी होता है, क्योंकि आम तौर पर पुलिस चोरी की घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेती। देश के विभिन्न हिस्सों में मवेशियों की चोरी की घटनाएं आम हैैं, लेकिन पुलिस मुश्किल से ही ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार तत्वों को पकड़ती है।

जाति-मजहब के आधार पर शोर मचाना

दिक्कत यह है कि कुछ लोग भीड़ की हिंसा के शिकार शख्स के जाति-मजहब के आधार पर शोर मचाने लगते हैैं और उसके आपराधिक इतिहास की अनदेखी कर देते हैैं। देश के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जो नेता, बुद्धिजीवी या अन्य लोग भीड़ की हिंसा के खिलाफ अभियान में आगे रहते हैं, कमोबेश वही वैसे दल या नेता को पसंद करते हैं जिनके शासनकाल में क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का बुरा हाल होता है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं )