नई दिल्ली [भरत झुनझुनवाला]। सरकार ने सुखद घोषणा की है कि वह अगले पांच वर्षों में किसानों की आय दोगुना करने को प्रतिबद्ध है और इसके तहत मुख्य फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागत से डेढ़ गुना किया जाएगा। मुख्य फसलों जैसे धान, गेहूं इत्यादि के लिए सरकार पहले लागत की गणना करती है ओर फिर उसमें मुनाफे का अंश जोड़ कर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है। इस मूल्य पर फूड कॉरपोरेशन द्वारा किसानों से फसल की खरीद की जाती है। समर्थन मूल्य को डेढ़ गुना करने से किसानों की आय निश्चित रूप से बढ़ेगी, लेकिन एक दूसरी समस्या भी उत्पन्न होगी। किसानों द्वारा इन फसलों का अधिकाधिक उत्पादन किया जाएगा।

इससे अन्न उत्पादन बढ़ेगा और फूड कॉरपोरेशन के पास अनाज का जरूरत से अधिक भंडार एकत्रित हो जाएगा। कुछ वर्ष पूर्व इसी प्रकार की स्थिति उत्पन्न हुई थी और फूड कॉरपोरेशन के गोदामों में गेहूं सड़ने लगा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि क्यों न इस गेहूं को सड़ने देने के बजाय गरीबों को वितरित कर दिया जाए? जाहिर है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को डेढ़ गुना करना तो ठीक है, लेकिन इससे अधिक अन्न उत्पादन की समस्या उत्पन्न हो जाएगी। मनरेगा एक ऐसा कार्यक्रम है जिसका ग्रामीण क्षेत्र में आम आदमी पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा है। श्रमिकों को सौ दिन तक का रोजगार उपलब्ध हुआ है। इससे पलायन कम हुआ है।

इस कार्यक्रम के तहत पूर्व निर्धारित काम कराए जाते हैं जैसे चेकडैम बनाना, तालाबों को गहरा करना, कच्ची सड़कों की मरम्मत करना इत्यादि, लेकिन मनरेगा के अंतर्गत किए गए ऐसे काम मुख्यत: व्यर्थ जाते हैं। बतौर उदाहरण उत्तराखड के गांवों में चेकडैम बनाए गए जो एक बरसात के अंदर ही मिट्टी से भर गए और आज वे दिखते भी नहीं हैं। मनरेगा के तहत इस प्रकार के कार्य करने से दोहरा नुकसान होता है। जो श्रमिक खेती में लगे थे और अनाज का उत्पादन कर रहे थे वे अब व्यर्थ के कामों में लग गए। बिहार और उत्तर प्रदेश के श्रमिक अपने गांवों में ही रहना पसंद कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें कुछ दिन का रोजगार मनरेगा के अंतर्गत मिल जाता है। पंजाब और हरियाणा में खेती के उत्पादक कार्य करने के स्थान पर वे अपने गांव में अनुत्पादक कार्य कर रहे हैं।

मनरेगा के तहत किए गए कार्यों के अनुत्पादक होने का एक और प्रमाण अमेरिका की जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी द्वारा किया गया एक अध्ययन भी है। इसमें आकलन किया गया है कि बिहार में मनरेगा के कारण गरीबी में कितनी कमी आई? पाया गया कि मनरेगा से गरीबी में मात्र एक प्रतिशत की कमी आई है, जबकि

अपेक्षा 12 प्रतिशत कमी की थी। कारण है कि श्रमिक अनुत्पादक कार्य कर रहे हैं। उन्हें मनरेगा से वेतन मिलता है, लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लाभ कम ही मिल रहा है। मनरेगा में एक और समस्या प्रशासनिक जटिलता की है।

इस समय ग्रामीण विकास मंत्रालय मनरेगा के 1039 सर्कुलर एकत्रित करने में लगा हुआ है। पिछले दस सालों में लगभग 100 सर्कुलर प्रति वर्ष जारी किए गए हैं। लोगों की क्षमता सर्कुलरों के अनुपालन में लग जाती है और कार्य करने से ध्यान हट जाता है। इसके अलावा मनरेगा में अधिकारियों द्वारा घूसखोरी के तमाम मामले सामने आते रहे हैं। कुछ मामलों में सीबीआइ जांच भी की गई है। इस तरह समय सरकार के सामने दो समस्याएं खड़ी हैं। एक तरफ किसानों की आय को डेढ़ गुना करने का संकल्प है और दूसरी तरफ मनरेगा की जटिलता एवं मनरेगा के तहत व्यर्थ के कार्यों से निजात पाने की चुनौती है। इस समस्या के हल के लिए मोदी सरकार ने बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है। अब तक मनरेगा में केवल सार्वजनिक कार्यों को करने की अनुमति थी जैसे सामूहिक उपयोग वाले तालाब को गहरा करना।

अब मोदी सरकार ने व्यवस्था बनाई है कि मछली के तालाबों को गहरा करने, पशुओं के रहने के स्थान के ऊपर टिन शेड लगाने, कुओं को गहरा करने, शौचालय बनाने इत्यादि व्यक्तिगत कार्यों के लिए भी मनरेगा के तहत काम किया जा सकेगा। इसका मतलब है कि अपने खेत में मछली के तालाब को स्वयं गहरा करने के लिए वेतन मनरेगा द्वारा मिलेगा। इस बदलाव के पीछे मूल सोच यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोगी सार्वजनिक कार्य करने की एक सीमा है। चेक डैम बनाने जैसे व्यर्थ के सार्वजनिक कार्य करने के स्थान पर किसानों को अपने खेत पर स्थाई कार्य जैसे मछली के तालाब को गहरा करने, शौचालय बनाने आदि की अनुमति दे दी जाए ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार भी हो।

नि:संदेह व्यक्तिगत भूमि पर पर स्थाई कार्य करने की भी सीमा है। एक किसान द्वारा अपने खेत में मछली का तालाब अथवा कुआं एक बार ही गहरा किया जाएगा। शौचालय भी एक बार ही बनाया जाएगा। इस प्रकार के कार्यों को हर साल नहीं किया जा सकता। इसलिए मूल चिंतन सही दिशा में होते हुए भी इसे और आगे ले जाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में सुझाव है कि मनरेगा के तहत खेती के सामान्य कार्यों को करने की भी छूट दे दी जाए।

यदि किसान को अपने गेहूं के खेत की निराई करनी हो तो उसके लिए उसका और साथ ही खेत मजदूर का वेतन मनरेगा द्वारा दिया जाए। ऐसा करने के दो प्रभाव होंगे। पहला प्रभाव तो यह होगा कि किसान की आय बढ़ेगी, क्योंकि उसे गेहूं के खेत की निराई तो करनी ही थी। वह खेत मजदूर की दिहाड़ी का भुगतान पहले अपने धन से कर रहा था। नई व्यवस्था में भुगतान मनरेगा द्वारा किया जाएगा। इससे किसान को खेत मजदूर की दिहाड़ी नहीं देनी होगी। इससे भी किसान की आय बढ़ेगी। दूसरी तरफ मनरेगा के तहत किए जाने वाले व्यर्थ के कार्यों से सरकार और समाज को छुट्टी मिल जाएगी।

किसान और खेत मजदूर व्यर्थ का काम करके अपने समय को बर्बाद नहीं करेंगे। इस प्रकार हम एक तीर से दो शिकार कर लेंगे। एक ही सुधार से किसानों की आय भी बढ़ेगी और मनरेगा के अंतर्गत व्यर्थ के काम करने से छुटकारा मिल जाएगा। इससे मनरेगा कार्यक्रम कहीं अधिक प्रभावी भी बनेगा। तमाम खेत मजदूर ऐसे हैं जिनके पास अपनी जमीन नहीं है। ऐसे खेत मजदूरों के लिए मनरेगा में छूट होनी चाहिए कि वे दूसरे किसान के खेत में भी मजदूरी का कार्य करें तो उनकी दिहाड़ी का भुगतान मनरेगा द्वारा किया जाए। ऐसा करने से खेत मजदूरों को भी मनरेगा का लाभ मिलेगा।

इस सुधार के कई लाभकारी प्रभाव होंगे। पहला यह कि किसान की आय निश्चित रूप से बढ़ेगी। दूसरा यह कि देश की ऊर्जा व्यर्थ के कार्यों को करने के स्थान पर खेती के कार्य में लगेगी। अंतत: खेती लाभप्रद हो जाएगी और पलायन कम होगा। तीसरा यह कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने से अन्न के अधिक भंडारण की समस्या से हम छुटकारा पा लेंगे। सरकार को चाहिए कि मनरेगा के तहत खेती के सामान्य कार्यों को करने की व्यवस्था करे।

(लेखक आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)