[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: देश भर में किसान इस समय परेशान हैं। दूध एवं दूध आधारित उत्पादों के उत्पादन में वृद्धि हुई है जबकि खपत स्थिर बनी हुई है। इससे बाजार में दूध के दाम गिर रहे हैं और किसान त्राहिमाम कर रहे हैं। इस समस्या का पहला उपाय है कि हम निर्यात बढ़ाएं। सरकार ने इस दिशा में कुछ सार्थक कदम भी उठाए हैं और दुग्ध उत्पादों पर निर्यात सब्सिडी में वृद्धि की है, लेकिन विशेषज्ञ बताते हैं कि इस सब्सिडी के बावजूद न्यूजीलैंड में उत्पादित दूध के पाउडर की तुलना में हमारा दूध पाउडर करीब 20 प्रतिशत ज्यादा महंगा पड़ता है। ऐसे में सब्सिडी में भारी वृद्धि किए बिना यह रास्ता कारगर नहीं होगा।

दूसरा संभावित उपाय है कि हम दूध के पाउडर के स्थान पर चीज और मक्खन बनाकर उनका निर्यात करें। इसमें भी समस्या यही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीज और मक्खन के दाम भी दूध के दाम के अनुरूप ही गिर रहे हैं। इस तरह चीज और मक्खन निर्यात करने में हमको उतनी ही समस्या आएगी जितनी हम दूध के पाउडर के निर्यात करने में सामना कर रहे हैं।

तीसरा उपाय है कि मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाओं के अंतर्गत दूध उपलब्ध कराया जाए। कर्नाटक ने ऐसी योजना बनाई है जिसमें बच्चों को मध्यान्ह भोजन के साथ दूध भी दिया जा रहा है। यह एक सार्थक कदम है। इस प्रकार के प्रयोग तमाम अन्य देशों में भी हुए हैं, लेकिन हमारा दूध का उत्पादन तो बढ़ता ही जाएगा। जैसे-जैसे सरकार द्वारा सब्सिडी दी जाएगी वैसे-वैसे किसान के लिए दूध का उत्पादन लाभप्रद हो जाएगा और वह दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित होगा।

हम मध्यान्ह भोजन के रास्ते बढ़े हुए उत्पादन का निरंतर निस्तारण नहीं कर पाएंगे। दूसरी बात यह भी है जब मध्यान्ह भोजन जैसी योजनाओं के माध्यम से हम दूध की खपत बढ़ाते हैं तो परिवार द्वारा दूध की खरीद भी कम होगी, क्योंकि परिवार को मालूम है कि बच्चे को विद्यालय में दूध उपलब्ध हो रहा है। यदि हम मध्यान्ह भोजन के माध्यम से 100 किलो दूध की खपत करते हैं तो परिवार द्वारा 50 किलो दूध की खपत कम हो सकती है। इस प्रकार ऐसी योजनाओं का प्रभाव कम हो जाता है। चौथा उपाय है कि भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआइ से कहा जाए कि दूध के पाउडर, चीज और मक्खन का बफर स्टॉक अधिक रखे। यहां भी एक मुश्किल यही है कि मक्खन का भंडारण जहां तीन महीने तक और दूध के पाउडर का भंडारण लगभग एक साल तक ही संभव होता है।

हमें दूसरे उपाय पर विचार करना चाहिए। एक उदाहरण से मैं अपनी बात कहने का प्रयास करूंगा। जंगल का उपयोेग हम दो प्रकार से कर सकते हैं। एक यह कि जंगल को काटकर उसकी लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग करें। दूसरा उपयोग है कि हम वहां पर्यटन को बढ़ावा दें। आज दक्षिण अमेरिका के भारी वर्षा के बीच उत्पन्न होने वाले वर्षा वनों को उन्होंने पर्यटन के लिये विकसित किया है। वैसे ही हमारे यहां चेरापूंजी में अधिक वर्षा को देखने के लिए पर्यटक जाते हैं। ईंधन की खपत सीमित होती है। यह आय के साथ बढ़ती नहीं है, लेकिन वर्षा वनों में पर्यटन की खपत बढ़ती ही जाती है।

दूसरा उदाहरण नदियों का है। हम नदी का उपयोग जलविद्युत बनाने के लिए कर सकते हैं अथवा हम उसमें राफ्टिंग और बोटिंग कर सकते हैं। बिजली की खपत सीमित होती है और यह आय के साथ ज्यादा बढ़ती नहीं है, लेकिन नदी में राफ्टिंग की खपत बढ़ती ही जाती है। जैसे-जैसे देश के लोगों की आय बढ़ती है वे इस प्रकार की सेवाओं का उत्तरोत्तर अधिक उपयोग करते हैं।

यही कारण है कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में आज देश की आय में कृषि का योगदान एक प्रतिशत से भी कम हो गया है जबकि सेवा क्षेत्र का योगदान लगभग 90 प्रतिशत तक पहुंच गया है। सेवाओं जैसे पर्यटन, सिनेमा, कंप्यूटर गेम्स इत्यादि की खपत आय के साथ बढ़ती जाती है जबकि कृषि उत्पादों की खपत बढ़ती नहीं है। जो व्यक्ति पूर्व में दो रोटी खाता था वह आय बढ़ने के बाद भी दो रोटी ही खाएगा। इसी प्रकार हमें गांव और कृषि का भी अवलोकन करना होगा। गांव को हम फिलहाल लकड़ी और बिजली की तरह केवल खाद्यान्न के भौतिक उत्पादन के रूप में देखते हैं। हम समझते हैं कि गांव का उद्देश्य है कि गेहूं और दूध का उत्पादन करे, लेकिन गांव के दूसरे भी उपयोग हैं। जैसे आज पर्यटन के लिये ‘होम स्टे’ का प्रचलन जोर पकड़ रहा है। विदेशी पर्यटक किसी घर में जाकर रहते हैं और घर के लोग उनके खानपान की व्यवस्था करते हैं और उन्हें आसपास के इलाकों में भ्रमण कराते हैं।

दूध की वर्तमान समस्या को एक और ढंग से देखना चाहिए। हमारा इतिहास बताता है कि अभी तक सरकार की रणनीति है कि कृषि उत्पादन बढ़ाकर किसानों का हित किया जाए। पिछले 50 वर्षों में हमारे गांवों में सिंचाई की व्यवस्था में मौलिक सुधार हुआ है। रासायनिक उर्वरक और बिजली उपलब्ध हुई है। उत्पादन बढ़ा है, लेकिन किसानों का अपेक्षित कल्याण नहीं हुआ। कारण यह है कि उत्पादन बढ़ने से किसान का लाभ बढ़ने के स्थान पर उसका नुकसान होता है।

उत्पादन बढ़ने से उपज के दाम गिरते हैं। दाम गिरने का लाभ शहरी उपभोक्ताओं को होता है। ऐसे में किसान के हित को साधने के लिए उत्पादन बढ़ाने की रणनीति बिल्कुल निर्मूल है। हमें इस दिशा में नहीं बढ़ना चाहिए। दूसरी बात है कि जैसा ऊपर बताया गया है कि अमेरिका जैसे देशों की आय में सेवा क्षेत्र का हिस्सा लगभग 90 प्रतिशत हो गया है जबकि कृषि का मात्र एक प्रतिशत है। इसकी तुलना में अपने देश में सेवा क्षेत्र का हिस्सा लगभग 60 प्रतिशत है और कृषि का हिस्सा अभी भी 18 प्रतिशत है। आने वाले समय में हमारा यह 18 प्रतिशत हिस्सा भी घटता ही जाएगा जैसा कि दुनिया के दूसरे देशों में हो रहा है।

इसलिए कृषि के आधार पर हम अपनी जनता को ऊंची आमदनी उपलब्ध नहीं करा पाएंगे। इसके स्थान पर हमें प्रयास करना होगा कि हम अपने लोगों को सेवा क्षेत्र से अधिक जोड़ें। आज ऐसे तमाम कार्य हैं जो कि इंटरनेट के माध्यम से गांवों में हो सकते हैं जैसे विदेशी छात्रों को ट्यूशन देना, कंप्यूटर एप बनाना, वेबसाइट की डिजाइनिंग करना इत्यादि। इस प्रकार के कार्यों में अपने ग्रामीण युवाओं को लगाकर उनका दीर्घकालीन हित किया जा सकता है।

गांव में रहने का खर्च कम आता है। साथ ही साथ ‘होम स्टे’ जैसे कार्य करें तो गांव के प्राकृतिक सौंदर्य और सामाजिक समरसता के माहौल का भी हम उपयोग कर सकेंगे। इसके लिए हमें अपनी रणनीति कृषि उत्पादन से हटाकर सेवाओं के उत्पादन पर केंद्रित करनी पड़ेगी। तभी हमारे गांवों का विकास हो सकेगा। दूध की समस्या केवल दूध के उत्पादन की समस्या नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के बदलते रूप को न समझने की समस्या है। इसलिए इसे व्यापक रूप में समझने की आवश्यकता है।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]