[ रमेश दुबे ]: मनमोहन सरकार द्वारा वर्ष 2008-09 में घोषित 70 हजार करोड़ रुपये से अधिक की कर्ज माफी ने भले ही संप्रग को दोबारा सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई हो, लेकिन इसने जिस नई परंपरा का बीज बोया उसकी फसल अब चारों ओर लहलहा रही है। एक कर्ज माफी अगली कर्ज माफी की नींव तैयार कर रही है। यही कारण है कि बैंकों में फंसे कर्जों यानी एनपीए का स्तर लगातार बढ़ रहा है। यह स्तर 2012 में 24,800 करोड़ रुपये था जो 2017 में बढ़कर 60,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कर्ज माफी के तथाकथित हिट फार्मूले से उत्साहित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब कर्ज माफी के मुद्दे पर ही आम चुनाव लड़ने का एलान कर रहे हैैं और साथ ही मोदी सरकार पर कर्ज माफी की घोषणा का दबाव भी बना रहे हैैं। उनके मुताबिक यदि मोदी सरकार किसानों का कर्ज माफ नहीं करती तो 2019 में सत्ता में आने पर कांग्रेस सरकार सौ फीसद गारंटी के साथ पूरे देश के किसानों का कर्ज माफ करेगी।

हर चुनाव के पहले कर्ज माफी के लिए आंदोलन चलाने वाले किसानों के मौसमी रहनुमाओं के पास इस सवाल का जवाब नहीं कि यदि कर्ज माफी से किसानों की समस्याओं का समाधान होता तो इसकी बार-बार जरूरत क्यों पड़ रही है? यहां कर्नाटक का उदाहरण प्रासंगिक है जहां सिद्दरमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस की पिछली सरकार राहुल गांधी के कहने पर कर्ज माफी की योजना लाई थी और इस बार कांग्रेस के समर्थन वाली कुमारस्वामी सरकार भी कर्ज माफी की योजना लाई। इसके बावजूद कर्नाटक के किसानों का असंतोष कम होने का नाम नहीं ले रहा है। कमोबेश यही स्थिति पंजाब, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की है।

साफ है कि कर्जमाफी से किसानों को तात्कालिक राहत भले ही मिलती हो, लेकिन दीर्घकालिक रूप में खेती-किसानी को नुकसान ही उठाना पड़ता है। सरकारों का ध्यान सिंचाई सुविधाओं, बीज, उर्वरक, ग्रामीण सड़कों, बिजली आपूर्ति आदि की ओर उतना नहीं जाता, क्योंकि वे कर्ज माफी की संभावित मांग के प्रति आशंकित रहती हैं।

वहीं एक तथ्य यह भी है कि कर्ज माफी से किसानों के एक छोटे से वर्ग को ही फायदा पहुंचता है, क्योंकि बैंकों से कर्ज लेने वाले किसानों का अनुपात महज 46.2 फीसद ही है। शेष किसान अन्य स्रोतों से कर्ज लेते हैं। अक्सर ये स्रोत कर्ज माफी के दायरे में नहीं आते। यह भी एक हकीकत है कि बैंकों से कर्ज लेने वाले सभी किसानों का कर्ज माफ नहीं होता।

नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक गरीब राज्यों में कर्ज माफी से मात्र 10 से 15 फीसदी किसानों को फायदा पहुंचता है। खेतिहर मजदूरों को भी कर्ज माफी से कोई लाभ नहीं होता। स्पष्ट है कर्ज माफी किसानों की भलाई का नहीं, बल्कि देश के 26.3 करोड़ किसानों और उन पर आश्रित करोड़ों लोगों के वोट हासिल करने का कारगर हथियार बन चुकी है। अब तो कर्ज माफी मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देने लगी है। गांवों में एक ऐसा वर्ग पैदा हो चुका है जो कर्ज माफी की संभावित घोषणाओं को ध्यान में रखकर कर्ज लेता है।

किसानों की कर्ज माफी को देखते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में गैर कृषि ऋणों को जानबूझकर न चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। बैंकों को अब यह डर भी सताने लगा है कि कहीं नेता ऑटो लोन और होम लोन माफ करने का वादा न करने लगें।

बार-बार कर्ज माफी के बावजूद किसान ऋणग्रस्त हो रहे हैं तो इसकी असली वजह यह है कि आज खेती घाटे के सौदे में तब्दील हो चुकी है। बढ़ती लागत, कुदरती आपदाओं में इजाफा, खुले बाजार के चलते आयातित उत्पादों से कड़ी प्रतिस्पर्धा जैसे कारणों से किसानों को लागत निकालना कठिन हो गया है। दूसरे भारतीय खेती अब अनाज उत्पादन से आगे बढ़ चुकी है। ज्यादा मुनाफे के लिए किसान बागवानी फसलों को प्राथमिकता दे रहे हैं। फिलहाल कुल उत्पादन में खाद्यान्न का हिस्सा आधे से भी कम रह गया है, लेकिन हमारी कृषि नीतियां और भंडारण, अन्न विपणन सुविधाएं अभी भी खाद्यान्न केंद्रित बनी हुई हैं। यही कारण है कि बागवानी फसलों की कीमतों में तेजी से उतार-चढ़ाव आता है। इसी का नतीजा है कि कभी आलू-प्याज सड़कों पर फेंकना पड़ता है तो कभी उनकी महंगाई सरकारों के लिए मुसीबत बन जाती है।

सरकार जिन फसलों का समर्थन मूल्य घोषित करती है उन सभी की सरकारी खरीद नहीं हो पाती। जैसे तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में लाल मिर्च का एमएसपी 12000 रुपये क्विंटल निर्धारित है जबकि थोक बाजार में यह चार से छह हजार रुपये क्विंटल बिक रही है। इसी तरह उत्तर प्रदेश और बिहार में मूंग दाल समर्थन मूल्य से नीचे बिक रही है। जिन फसलों की सरकारी खरीद होती है वहां भी किसानों को कई दिनों तक धक्केखाने पड़ते हैैं। कई बार इससे बचने के लिए किसान अपनी उपज स्थानीय साहूकारों को सस्ते में बेचना ठीक समझते हैैं। दरअसल यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य हर हाल में मिले।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन यानी एनएसएसओ की 70वीं कृषि गणना के मुताबिक 9.02 करोड़ ग्रामीण परिवारों में आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ तले दबे थे। यदि इस ऋण का औसत निकालें तो यह 42000 रुपये प्रति परिवार बैठेगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रति किसान परिवार की मासिक आमदनी 6426 रुपये है। इनमें से 52 फीसदी आमदनी गैर कृषि कार्यों से होती है जैसे पशुपालन, मजदूरी और अन्य दूसरे काम। कुछ समय पहले तक खेती से इतर जिन गतिविधियों से किसानों को नकद आमदनी होती थी वे मुक्त व्यापार नीतियों की भेंट चढ़ती जा रही हैं। यहां किसानों को नकद आमदनी दिलाने वाले डेयरी क्षेत्र का उदाहरण प्रासंगिक है।

2008-09 और 2017-18 के बीच देश में दूध उत्पादन में 57 फीसद की भारी भरकम वृद्धि हुई, लेकिन उत्पादन में बढ़ोतरी के साथ खपत का बाजार नहीं बढ़ा। इसका नतीजा यह हुआ कि दूध की थोक कीमतों में गिरावट आ गई। पहले अतिरिक्त दूध को निर्यात बाजार में खपा दिया जाता था, लेकिन वैश्विक जिंस बाजारों में गिरावट से स्किम्ड मिल्क पाउडर के निर्यात पर भी असर पड़ा। उदाहरण के लिए दिसंबर 2013 में स्किम्ड मिल्क पाउडर की कीमत 4868 डॉलर प्रति टन थी जो नवंबर 2018 में 1965 डॉलर ही रह गई। कमोबेश यही हालत चीनी, काली मिर्च, नारियल जैसी नकदी फसलों की है। इन स्थितियों को देखते हुए पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दलों को कर्ज माफी जैसे लोकलुभावन फैसलों के बजाय खेती-किसानी को मुनाफे का सौदा बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

कम से कम अब तो उन्हें समझ जाना चाहिए कि कर्ज माफी नीति एक तरह की आत्मघाती नीति है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर बीज, खाद, उर्वरक, सिंचाई, अन्न भंडारण और विपणन में सुधार करें। फसल बीमा को व्यापक बनाकर उसमें किसान परिवार की बीमारी, शिक्षा आदि को भी शामिल किया जाए ताकि किसान आकस्मिक झटकों से बच सके। सबसे बढ़कर खेती-किसानी को उद्योग का दर्जा दिया जाए ताकि निजी क्षेत्र निवेश करने को आगे आए।

[ लेखक केंद्रीय सचिवालय सेवा के अधिकारी एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैैं ]