[ केसी त्यागी ]: देश के कोने-कोने से दिल्ली आए 200 से अधिक किसान संगठनों के प्रदर्शन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह किसानों द्वारा पहला आंदोलन नहीं है। पिछले दो वर्षों के दौरान राजधानी में चार बड़े आंदोलनों के जरिये किसान अपनी मांगों के लिए संघर्ष करते दिखे हैं। वहीं सरकार भी पूरे प्रयास कर रही है, लेकिन किसानों की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है। इस बार किसानों ने फसलों के लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने तथा कर्ज माफी को लेकर संसद का विशेष सत्र बुलाने और समस्याओं के स्थाई समाधान निकालने लिए आवाज बुलंद की। स्पष्ट है कि किसान गंभीर संकट में हैं। फसलों का लागत मूल्य तक नहीं मिल पाना, कर्ज का बोझ और इन सबके बीच बढ़ती महंगाई की समस्या कृषक वर्ग को निरंतर बदहाल कर रही है।

हालांकि लगभग सभी विपक्षी दलों ने इस आंदोलन के मंच से अपनी राजनीति चमकाने का भी प्रयास किया, लेकिन सरकार किसान आंदोलन को विपक्ष प्रेरित या प्रायोजित की संज्ञा देकर उसकी अनदेखी नहीं कर सकती।

पिछले बजट में केंद्र सरकार ने खरीफ फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाकर उत्पादन लागत का डेढ़ गुना करने की पहल की है, लेकिन इस बढ़ोतरी प्रक्रिया में लागत मूल्य निर्धारण वास्तविकता से काफी कम है। उसमें ए-2 एफ-एल के अनुसार एमएसपी बढ़ाने की प्रक्रिया अपनाई गई है जबकि किसान संगठनों द्वारा शुरू से ही सी-2 प्रणाली को आधार मानकर लागत के अतिरिक्त 50 फीसद का एमएसपी घोषित करने की मांग रही है। ए-2 एफ-एल के तहत किसानों द्वारा खेती में उपयुक्त सभी सामग्री जैसे-बीज, उर्वरक, कीटनाशक, मजदूरी, मशीनों का किराया तथा पारिवारिक श्रम का मूल्य शामिल होता है, जबकि किसान ‘कांप्रिहेंसिव कॉस्ट’ यानी सी-2 व्यवस्था के तहत अन्य लागतों के साथ अपनी भूमि के किराये और पूंजी लागत की भी मांग करते रहे हैं।

महत्वपूर्ण है कि सी-2 और ए-2 एफ-एल निर्धारण प्रक्रिया में बड़ा अंतर है। समझने के लिए इसी वर्ष धान का लागत मूल्य 1166 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से तय किया गया है, जबकि सी-2 के अनुसार यह लागत 1560 रुपये के करीब आती है। इस लागत पर सी-2 के तहत धान का एमएसपी 2340 रुपये होता, जो कि आज 1750 रुपये प्रति क्विंटल है। डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने भी एमएसपी निर्धारण की इसी प्रक्रिया की सिफारिश की है।

एमएसपी के साथ एक बड़ी समस्या यह भी है कि किसानों को निर्धारित समर्थन मूल्य भी नसीब नहीं हो पाता। कई अवसरों पर फसलों में नमी बताकर किसानों को एमएसपी से नीचे की कीमत मिलने की घटनाएं सामने आई हैं। नीति आयोग समेत कृषि मंत्री भी यह मान चुके हैं कि किसानों को एमएसपी से वंचित रहना पड़ रहा है। एक ओर जहां खेती में उपयोग होने वाली वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई, इसका निरंतर प्रतिकूल असर किसानों को कर्ज लेने पर मजबूर करता गया। कर्ज का बढ़ता बोझ किसान आत्महत्या का बड़ा कारण बना है।

भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए शर्मनाक है कि गत 25 वर्षों के दौरान तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या को मजबूर हुए हैं। समय-समय पर सरकारों द्वारा कर्ज माफी जरूर की गई, लेकिन यह स्थाई समाधान से कहीं ज्यादा चुनावी प्रचार की पहल बनकर रह गई है। कई अवसरों पर डॉ. स्वामीनाथन ने कर्ज माफी के बजाय सी-2 व्यवस्था से एमएसपी देने की पहल को अधिक कल्याणकारी बताया है। सच भी है कि मौजूदा कर्ज माफ भी कर दिया जाए तो यह अगले वर्ष फिर से पहाड़ का रूप ले लेगा। इस स्थिति में ऐसे समाधान पर ध्यान देना चाहिए कि किसानों को कर्ज की जरूरत ही न पड़े। सरकार को इस सवाल पर अमल करना चाहिए कि कैसे खेती को लाभकारी व्यवसाय में बदलकर इस क्षेत्र को मजबूत न सही, आत्मनिर्भर बना दिया जाए?

हालांकि राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की भागीदारी महज 15 फीसद की ही है, लेकिन इस पर लगभग 60 प्रतिशत आबादी आश्रित है। नाबार्ड के सर्वे के मुताबिक लगभग एक तिहाई किसानों के पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है। मात्र 13 फीसद कृषि आधारित परिवारों के पास दो हेक्टेयर से अधिक का भूभाग है। पांच फीसद से कम किसान परिवारों के पास अपना ट्रैक्टर है। 50 फीसद से अधिक कृषि भूमि को सिंचाई सुविधा प्राप्त नहीं है। इस प्रतिकूल परिस्थिति में भी देश के किसानों ने बंपर पैदावार कर न केवल हमारी जरूरतें पूरी कीं, बल्कि भारत को कई अनाजों का बड़ा निर्यातक भी बनाया। बंपर पैदावार भी किसानों के लिए काल बनती रही है। हाल ही में कई राज्यों में टमाटर, प्याज और हरी सब्जियों के बंपर उत्पादन के बाद उन्हें सड़कों पर फेंकना पड़ा। यहां समझना होगा कि बीज, खाद, सिंचाई, मजदूरी और फिर मंडी तक के परिवहन खर्च के बावजूद किसानों को लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता। कई फसलों के बंपर उत्पादन के अनुमान मात्र से ही इनकी कीमतों में गिरावट किसानों के लिए मुसीबत बन जाती है। प्रत्येक वर्ष चीनी मिल मालिकों द्वारा गन्ना पेराई और भुगतान देरी पर चर्चा होती है, लेकिन मिलों की लॉबी अंतत: भारी साबित होती रही है।

बेशक सरकार द्वारा कृषि संबंधित समस्याओं के समाधान में कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन इनके परिणाम किसानों से अछूते रहे हैं। फसल बीमा योजना से किसानों को कम और बीमा कंपनियों को अधिक लाभ हुआ है। एमएसपी न मिल पाने की स्थिति में मध्य प्रदेश सरकार की भावांतर भुगतान योजना सकारात्मक पहल जरूर रही, लेकिन इससे एमएसपी प्रणाली की विफलता भी सामने आई है। वर्ष 2007 में राष्ट्रीय किसान नीति की रिपोर्ट में कृषि को आर्थिक रूप से मजबूत करने पर बल दिया गया था, लेकिन उस वक्त भी दूरगामी भलाई को नजरअंदाज कर चुनावी फायदे के मद्देनजर तात्कालिक कर्ज माफी का सहारा लिया गया, परंतु अब वक्त आ गया है कि कृषि दुर्दशा पर व्यापक बहस के बाद समस्याओं का जड़ से निपटारा किया जाए।

छोटी जोत होने के कारण कृषि में लगे परिवार बेरोजगारी से ग्रस्त हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान गांव से लगभग 15 फीसद ग्रामीणों का शहर की ओर पलायन हो चुका है और महानगरों में भी रोजगार के अवसर सीमित हुए हैं। सरकार और किसान, दोनों को इन्हें कृषि से हटाकर अन्य पेशों की तरफ परिवर्तित करने जैसी पहल करनी होगी, लेकिन समस्या है कि क्या इनमें पूंजी निवेश संभव हो सकेगा? और इनमें लगे लोग कृषि उद्योग की तरह सरकारी योजनाओं की बदइंतजामी का शिकार नहीं बनेंगे? ये प्रश्न अभी भी अनुत्तरित हैं जिनका हल सभी संगठनों और सरकार को मिलकर तलाशना है।

[ लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ]