[ संजय गुप्त ]: कर्नाटक में जद-एस और कांग्रेस की साझा सरकार ने अपने पहले बजट में किसानों की कर्ज माफी का ऐलान करके नए सिरे से यह रेखांकित किया कि अपने देश में वोट बैंक के लालच में ऐसे लोकलुभावन कदमों का सिलसिला थमने वाला नहीं है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने 34 हजार करोड़ रुपये के कर्ज माफ करने के फैसले को इस आधार पर सही बताया कि उनके दल के साथ-साथ कांग्रेस के भी घोषणा पत्र में किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया गया था।

यह एक विडंबना है कि आज करीब-करीब हर राजनीतिक दल किसान कर्ज माफी की बात कर रहा है। ऐसी बातें उन राज्यों में भी की जा रही हैं जहां पहले किसानों के कर्ज माफ किए जा चुके हैैं। कर्नाटक में कुमारस्वामी के पहले सिद्दरमैया ने भी किसानों के कर्ज माफ किए थे। वैसे किसान कर्ज माफी का सिलसिला संप्रग-एक सरकार के अंतिम साल में तब शुरू हुआ था जब मनमोहन सरकार ने किसानों के 72000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए थे। उस समय विपक्ष में रही भाजपा ने इस फैसले का यह कहते हुए विरोध किया था कि यह सही नीति नहीं है और इससे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा।

चूंकि कांग्रेस को इस फैसले का राजनीतिक लाभ मिला और उसके नेतृत्व में फिर से संप्रग सरकार बनी इसलिए राजनीतिक दलों में किसान कर्ज माफी की घोषणा करने में होड़ सी लग गई। बीते एक-डेढ़ साल में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब समेत करीब एक दर्जन राज्य सरकारों ने किसानों के कर्ज माफ किए हैैं।

कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के दौरान जद-एस और कांग्रेस ने एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा। दोनों में से कोई भी सरकार बनाने लायक सीटें नहीं जीत पाया, लेकिन भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए वे एक साथ आ गए। एक तरह से जनादेश जद-एस या फिर कांग्रेस के घोषणा पत्र के पक्ष में नहीं था, लेकिन साझा सरकार बनने के बाद कांग्रेस इसके लिए लगातार दबाव बना रही थी कि कर्ज माफी का फैसला लेने में देरी न हो। खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी यह सुनिश्चित करने में लगे हुए थे कि बजट में कर्ज माफी की घोषणा हो जाए।

पता नहीं हमारे नेता यह क्यों नहीं देख पा रहे कि कर्ज माफी जैसे उपायों से किसानों का कोई भला नहीं हो रहा है? कर्ज माफी के सिलसिले को देखते हुए ही वित्तमंत्री अरुण जेटली ने राज्यों को आगाह करते हुए कहा था कि अगर कर्ज माफी का सिलसिला कायम रहा तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाएगा।

यह किसी से छिपा नहीं कि एक बड़ी संख्या में ऐसे किसान भी हैं जो कृषि के लिए नहीं, बल्कि अपने निजी कार्यों के लिए कर्ज लेते हैं। जब उनका कर्ज माफ कर दिया जाता है तो वे किसान हतोत्साहित होते हैं जो ईमानदारी से अपना कर्ज लौटाते हैं। यह ठीक है किसानों की हालत ठीक नहीं है और उसे सुधारने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि रह-रह कर उनके कर्ज यह जानते हुए भी माफ किए जाएं कि इससे किसी का भला नहीं हो रहा है, उलटे बैैंकों की हालत खस्ता होती जा रही है।

आज अगर खेती घाटे का सौदा बन गई है और एक बड़ी संख्या में किसान मजबूरी में कृषि कार्य कर रहे हैैं तो इसके लिए खराब सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैैं। हमारे नीति-नियंताओं ने समय रहते न तो कृषि के आधुनिकीकरण की चिंता की और न ही ऐसे कोई प्रयास किए जिससे जरूरत से ज्यादा आबादी की खेती पर निर्भरता घटती। अगर देश की आधी से अधिक आबादी कम उत्पादकता वाली कृषि पर निर्भर होगी तो फिर ग्रामीण जीवन खुशहाल कैसे हो सकता है?

यह सही है कि मोदी ने सत्ता में आते ही खेती और किसानों की दशा सुधारने पर ध्यान देना शुरू किया और उसकी ओर से एक के बाद एक कई कदम उठाए गए, लेकिन स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव होता नहीं दिखा। इसी कारण पिछले वर्ष प्रधानमंत्री ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का संकल्प लिया। इस संकल्प के अनुरूप बजट में यह उल्लेख किया गया कि नए वित्तीय वर्ष से फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागत से डेढ़ गुना कर दिया जाएगा। पिछले दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने खरीफ की 14 फसलों के बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित भी कर दिए। इसी के साथ मोदी सरकार ने एक तरह से किसानों से किया गया अपना वायदा पूरा कर दिया।

इस पर आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार के खरीफ फसलों के बढ़े एमएसपी घोषित करने के पीछे उसका राजनीतिक स्वार्थ देखा जा रहा है। आम तौर पर सरकारों के हर फैसले राजनीतिक मकसद से ही होते हैैं। यदि खरीफ की 14 फसलों की खरीद घोषित एमएसपी पर होती है तो भाजपा को इसका लाभ मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के आगामी विधानसभा चुनावों के साथ-साथ लोकसभा चुनाव में भी मिल सकता है। जो भी हो, वक्त की मांग यह है कि कृषि आत्मनिर्भरता की ओर बढ़े। निजी क्षेत्र को कृषि जगत में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। बेहतर हो कि इसके लिए पर्याप्त नियम-कानून बनाए जाएं ताकि कृषि क्षेत्र में निवेश करने वालों की पूंजी सुरक्षित रहे।

आज हमारे ज्यादातर किसान अपनी अच्छी उपज का भी लाभ हासिल करने में समर्थ नहीं। आम तौर पर वे अपनी उपज आढ़तियों अथवा बिचौलियों को बेच देते हैैं। बाद में यही उपज आम लोगों तक पहुंचते-पहुंचते महंगी हो जाती है। इस स्थिति का निराकरण इस तरह करना होगा कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले। बेहतर हो कि कृषि उपज की खरीद-बिक्री और वितरण का तकनीक आधारित वैसे ही कोई तंत्र बने जैसे जीएसटी के तहत बनाया गया है। ऐसे किसी तंत्र के अभाव के कारण ही खेत से निकली उपज जब तक आम उपभोक्ता तक पहुंचती है तब तक उसके दाम दोगुने-तिगुने तक हो जाते हैं।

सरकार के लिए यह भी आवश्यक है कि खाद्य संस्करण उद्योग को कोल्ड चेन बनाने के लिए प्रोत्साहित करे ताकि अन्न के साथ फल और सब्जियों की बर्बादी को रोका जा सके। अपने देश में सुरक्षित भंडारण एवं ढुलाई की उचित व्यवस्था के अभाव में 20-25 प्रतिशत खाद्यान्न की बर्बादी हो जाती है। यही बर्बादी कई बार उनके मूल्यों में अनपेक्षित उतार-चढ़ाव का कारण बनती है।

अगर हमारे राजनीतिक दल सचमुच किसान हितैषी हैैं तो उन्हें बार-बार उनके कर्ज माफ करने के बजाय ऐसे काम करने चाहिए जिससे वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें। बार-बार किसानों के कर्ज माफ करना एक तरह से उन्हें जानबूझकर संकट की हालत में बनाए रखने वाला काम है। राजनीतिक दल किसान कर्ज माफी के जरिये वोट हासिल कर सकते हैैं, लेकिन वे खेती-किसानी का भला नहीं कर सकते। इस क्रम में यह भी ध्यान रहे कि फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने भर से किसानों की सभी समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]