नई दिल्ली [ डॉ. राजाराम त्रिपाठी ]। दलहन किसान अरहर और चने की अपनी अगली फसल बेचने की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन विडंबना यही है कि उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी तक नहीं मिल पा रहा है। दूसरी ओर उपभोक्ताओं को वाजिब दाम पर दाल नसीब नहीं हो रही है। आखिर इन दोनों पक्षों के हाल कैसे सुधरें? दो साल पहले दाल के दाम 200 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गए थे तब दाल की मांग को पूरा करने के लिए कई देशों से दाल आयात की गई और वादे किए गए कि आगे ऐसी स्थिति नहीं पैदा होगी, लेकिन लगता है कि वक्त का पहिया घूमकर फिर वहीं आ गया है। महाराष्ट्र में अरहर दाल किसानों की दिक्कत है कि उन्हें दाल का भाव 40 रुपये प्रति किलोग्राम भी नहीं मिल रहा है जबकि एमएसपी 54 रुपये प्रति किलो तय है। चना दाल किसानों के भी यही हाल हैं। वहीं ग्राहक बाजार से ऊंची कीमतों पर दाल ख्ररीदने के लिए मजबूर हैं। देश में जब दाल का अच्छा उत्पादन होता है तो उसके भाव गिर जाते हैं और किसानों को नुकसान होता है। वहीं सरकार आपूर्ति तंग होने की आशंका में निर्यात पर रोक लगा देती है और आयात को अनुमति दे देती है।

मुनाफे की फसल जमाखोर ही काटते हैं किसान नहीं

मतलब अगर किसान विदेशी बाजार में थोड़े बेहतर दाम पर दाल बेचकर कुछ कमाई करना चाहें तो वह भी नहीं कर सकते। दाल की उपज कम हो जाए तो जाहिर है मांग के मुकाबले पूर्ति न होने से दाम बढ़ेंगे। ऐसे में पहले तो बड़े व्यापारी इसका फायदा उठाते हैं। महंगाई बढ़ती है तो सरकार दूसरे देशों से दाल खरीद लेती है। हम कनाडा, म्यांमार, तंजानिया, मलावी, केन्या और सूडान जैसे देशों से दाल खरीदते हैं। जब दाल की कीमतों ने दोहरा शतक लगा दिया तो लोगों ने सोचा होगा कि किसानों को खूब फायदा हुआ होगा, लेकिन वहां भी मुनाफे की फसल जमाखोर ही काटकर चले गए।

कम बारिश होने से दलहन उत्पादन में कमी आऐगी

वर्ष 2013-14 में देश में एक करोड़ 97 लाख 80 हजार टन दलहन उत्पादन हुआ था जो 2014-15 में घटकर एक करोड़ 84 लाख 30 हजार टन रह गया। 2015-16 में इसमें फिर बढ़ोतरी हुई जो चालू वर्ष में भी जारी रही। हालांकि सरकारी नीति और मौसम की मार के चलते अगले साल इसके एक करोड़ 72 लाख टन से भी कम रह जाने की आशंका है। इसमें भी सबसे लोकप्रिय अरहर दाल का उत्पादन 31 लाख 70 हजार टन से घटकर 27 लाख 80 हजार टन हो गया। दालों की मांग पूरी करने के लिए वर्ष 2014-15 में अब तक कुल 85 लाख 84 हजार 84 टन दालों का आयात किया जा चुका है जो लगातार जारी है। महाराष्ट्र जिसकी खरीफ दलहन पैदावार में लगभग एक चौथाई हिस्सेदारी है वह कई वर्षों से सूखे की मार झेल रहा है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसान मिलकर महाराष्ट्र के मुकाबले तकरीबन दोगुनी दाल उपजाते हैं। देश में 87 प्रतिशत दलहन किसान वर्षा पर निर्भर हैं जो इस साल कम ही हुई है। यानी दलहन उत्पादन में कमी आना तय है।

सरकार की उदासीनता, अक्षमता की वजह से दाल की उपज घट रही है

देश में सरकारी, गैर सरकारी खरीद से किसान को एक किलो दाल के दाम औसतन 44 से 64 रुपये मिलते हैं जबकि लागत 40 से 54 रुपये के बीच आती है फिर इसमें बिक्री स्थल तक उसे ले जाने की मेहनत और खर्च अलग से है। वहीं यही दाल बाजार में 110 से 220 रुपये किलो तक बिक जाती है। दाल के दामों में तेजी का असर दाल की खेती पर दिख रहा है। पिछले साल के मुकाबले रबी दाल की बुआई दोगुनी हुई है। फिर भी राहत की कोई उम्मीद नहीं दिखती। फिर ऐसा क्या हो कि देश में दाल उपजाने वाले और उसे खाने वाले दोनों राहत महसूस करें। इसके लिए सरकार और संबंधित विभागों को सचेत रहना होगा। यह जो भी हो रहा है उसका सीधा दोष सरकार का ही है। उसकी उदासीनता, अक्षमता और अकर्मण्यता की वजह से ही दाल की उपज घट रही है। उसका भंडारण, विपणन उचित तरीके से नहीं हो पा रहा है।

खपत की तुलना में कम उत्पादन चिंताजनक है

देश में दाल की खपत सालाना 2.7 करोड़ टन है। वर्ष 2013 में दो करोड़ टन दाल की पैदावार हुई। 2014 में यह उपज 1.7 करोड़ टन रह गई थी। एक तो खपत की तुलना में कम उत्पादन फिर उसका लगातार घटना चिंताजनक है। वहीं सरकार को बेखबर देख मुनाफाखोरों को दाल की जमाखोरी से मुनाफा कमाने का अवसर मिल गया। सट्टेबाजी अब फ्यूचर ट्रेडिंग यानी कानूनी तौर पर वायदा कारोबार कहलाती है।

दाल की उपज बढ़ाने के लिए सरकार को कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए

किसानों को लाभ कैसे मिले, सरकार ने इस पर तो नहीं, बल्कि महंगाई रोकने पर समिति गठित कर दी जिसने कहा कि किसान को सस्ता कर्ज मिले, कोल्ड स्टोरेज बनें, जगह-जगह मंडियां हों। यह सब ठीक है, पर न तो दाल का उत्पादन बढ़ेगा और न ही इससे किसान को कोई खास राहत मिलेगी। समाधान है तो सीधा सा यह कि किसानों को उपज बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से सरकार को एक प्रभावशाली कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए। इसके तहत बीज एवं तकनीकी सहयोग उपलब्ध कराया जाए, किसानों को दालों की अधिक पैदावार के लिए प्रोत्साहन मिले, तकनीकी सहायता के साथ-साथ गन्ना, गेहूं और धान की तर्ज पर दलहनी फसलों पर समर्थन मूल्य हर राज्य में ठीक से और बढ़ाकर लागू किए जाएं।

एमएसपी पर किसानों से उत्पाद को खरीदना अनिवार्य किया जाए जिससे जमाखोरी रुके

एमएसपी पर किसानों से उत्पाद को खरीदना अनिवार्य किया जाए जिससे जमाखोरी रुके। दलहन शोध संस्थान, कानपुर के मुताबिक इस क्षेत्र में पर्याप्त शोध करकेजल्दी पकने वाले बीज विकसित करने की जरूरत है। साथ ही रोगमुक्त प्रजाति भी खोजी जानी चाहिए। दालों का संयोजन भी संतुलित हो। 30 से 70 लाख टन उत्पादन के साथ चना दाल का योगदान कुल दाल उत्पादन में 41 फीसदी और 27 लाख टन उत्पादन के साथ अरहर दाल का योगदान महज 16 फीसदी है। अन्य दालों में मूंग और उड़द प्रमुख है। बाकी लोबिया, काबुली चना और सोयाबीन की बारी इनके बाद आती है।

मौसम की मार और सरकार की गलत नीतियों से किसान दलहन उपजाने से कतराने लगे हैं

इस मामले में सरकार से ज्यादा हमारे वैज्ञानिक सचेत हैं और उन्होंने बारानी तथा सिंचित क्षेत्रों हेतु ज्यादा लाभ देने वाली दलहन के साथ मिला कर बोने वाली कई किस्में विकसित की हैं। बहरहाल ये उपलब्धियां तब तक कागजी हैं जब तक आम किसान के खेतों तक नहीं आतीं। महाराष्ट्र के किसान दलहनी फसलों से इतना ठगा महसूस कर रहे हैं कि बहुत से किसानों का इससे मोहभंग हो रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश के किसान अरहर की फसल में नमी और फफूंद के प्रकोप से कई बार अपने हाथ जला चुके हैं। थक हारकर वे दाल उपजाने से कतराने लगे हैं। वैज्ञानिकों की खोज, शोध विकास का जमीनी इस्तेमाल तभी संभव है जब ये सभी बातें व्यावहारिक तौर पर किसानों तक पहुंचें और इसके लिए सरकारी सदिच्छा की आवश्यकता है जो दुर्भाग्यवश कहीं नहीं दिखती।

[ लेखक अखिल भारतीय किसान महासंघ के राष्ट्रीय समन्वयक हैं ]