[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: आज से एक वर्ष पहले अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 64 के स्तर पर था। यानी एक डॉलर के बदले हमें 64 रुपये चुकाने पड़ रहे थे। आज उसी एक डॉलर को हासिल करने के लिए हमें 72 रुपये देने पड़ रहे हैं। जब रुपया गिर रहा है तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य बढ़ना कहीं बड़ी समस्या है। रुपये की हैसियत एक वर्ष में 10 प्रतिशत से अधिक गिर गई है। इसका मूल कारण यह है कि हमारे माल की उत्पादन लागत ज्यादा है। मान लीजिए कि एक खिलौना अमेरिका में एक डॉलर में उत्पादित होता है। यदि इसी खिलौने को भारत में 50 रुपये में उत्पादित कर लिया जाए तो एक डॉलर के बदले में हमें 50 रुपये ही देने पड़ेंगे। इससे रुपये का मूल्य बढ़ जाएगा। इसकी तुलना में यदि उसी खिलौने का उत्पादन करने में भारत में लागत 80 रुपये आती है तो रुपये का दाम गिर जाएगा, क्योंकि खिलौने का आपस में लेनदेन हो सकता है। मूल चिंता का विषय यह है कि हमारी प्रतिस्पर्धा क्षमता क्यों घट रही है?

विश्व आर्थिक मंच यानी डब्लूईएफ द्वारा प्रत्येक वर्ष दुनिया के प्रमुख देशों की प्रतिस्पर्धा क्षमता के आधार पर रैंकिंग बनाई जाती है। इस रैंकिंग में 2015 में हमारी रैंक 71 थी जो 2017 में सुधरकर 39 हो गई, लेकिन इस वर्ष इसमें फिसलन आ गई और हम 40वें स्थान पर आ टिके हैं। पूर्व में जो सुधार हो रहा था वह अब स्थिर हो गया है। डब्लूईएफ ने इसका पहला कारण भारतीय व्यापार की तकनीकी तैयारी बताया है। आज के युग में इंटरनेट आदि के माध्यम से व्यापार करना बढ़ रहा है।

डब्लूईएफ ने पाया कि नई तकनीक हासिल करने में भारत के व्यापारी और उद्यमी कुछ सुस्त हैं। यह इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि सॉफ्टवेयर बनाने में भारत विश्व में अग्रणी है। हमारी तकनीकी क्षमता सॉफ्टवेयर बनाने के प्रमुख केंद्रों जैसे बेंगलुरु या पुणे तक ही सीमित रह गई है। यह पूरे देश में नहीं फैल पा रही है। हमारे उद्यमी मूल रूप से पुरानी तकनीक के ही आधार पर व्यापार कर रहे हैं। इसलिए भी भारत की प्रतिस्पर्धा क्षमता कम है। डब्लूईएफ ने इसीलिए तकनीकी तैयारी में भारत को 137 देशों की सूची में 107 वें स्थान पर रखा है।

डब्लूईएफ ने इसका दूसरा कारण शिक्षा का बताया है। प्राथमिक शिक्षा में भारत की रैंक 137 देशों में 91 और उच्च शिक्षा में भारत की रैंक 75 बताई है। कारण यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति अभी भी पुरानी परिपाटी पर ही चल रही है। उसमें नए विषय एवं इंटरनेट जैसी तकनीकों का पर्याप्त समावेश नहीं है। सरकार को शिक्षा में आमूलचूल सुधार पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

भारत की नीची रैंक का तीसरा कारण डब्लूईएफ ने श्रम बाजार की जटिलता बताया है। श्रम कानूनों के तहत कर्मचारियों को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध है। काम न करने पर भी उद्यमी के लिए उन्हें दंडित करना कठिन होता है। जानकार बताते हैं कि भारत के कर्मियों की तुलना में चीन के कर्मी लगभग दोगुने माल का उत्पादन करते हैं। इससे चीन का माल सस्ता और भारत का महंगा हो जाता है। हमें श्रम कानूनों में जल्द सुधार करना पड़ेगा।

यदि हमें अपने रुपये की साख को बचाना है तो हमें माल सस्ता बनाना पड़ेगा। इस संदर्भ में हम अन्य कारणों का विवेचन कर सकते हैं। पहला कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम चढ़ रहा है। कच्चा तेल खरीदने के लिए अब हमें अधिक डॉलर की जरूरत पड़ रही है। इससे डॉलर की मांग बढ़ रही है। परिणामस्वरूप रुपया भी गिर रहा है। हम इस दलदल में इसलिए फंसे हैं, क्योंकि हमने ऊर्जा की खपत को अनायास ही बढ़ाया है। प्रत्येक देश को अपने प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूल आर्थिक विकास की रणनीति बनानी होती है। चूंकि रूस में तेल उपलब्ध है इसलिए वहां इस्पात और एल्युमीनियम का उत्पादन सस्ता पड़ रहा है। इसी प्रकार भारत में ऊर्जा की कमी है इसलिए हमें ऐसे उद्यमों पर ध्यान देना होगा जहां ऊर्जा की जरूरत कम हो।

सेवा क्षेत्र में होटल, पर्यटन, सॉफ्टवेयर, सिनेमा, अनुवाद और शोध इत्यादि क्षेत्र आते हैं। इन क्षेत्रों में विनिर्माण उद्योगों की तुलना में ऊर्जा की खपत खासी कम होती है। सेवा क्षेत्र में यदि सौ रुपये का माल बनाने में दो रुपये की ऊर्जा खर्च होती है तो विनिर्माण में 20 रुपये। हमने विनिर्माण को प्रोत्साहन देकर ऊर्जा की खपत को बढ़ाया है। इसी कारण हमें तेल ज्यादा आयात करना पड़ रहा है।

रुपये के गिरने का दूसरा कारण भारत का बढ़ता व्यापार घाटा भी है। हमारे निर्यात दबाव में हैं जबकि आयात बढ़ रहे हैं। ऐसे विषम हालात पैदा करने में हमारी आर्थिक नीतियों का योगदान है। आज अमेरिका ने भारत और चीन के इस्पात पर आयात कर बढ़ा दिए। हम अभी भी मुक्त व्यापार का झंडा फहरा रहे हैं। जब दूसरे देशों की सरहदें हमारे निर्यात के लिये बंद होती जा रही हैं तब हम हमने अपनी सरहदों को आयात के लिए खोल रखा है। यही कारण है कि भारत का व्यापार घाटा और बढ़ता जा रहा है।

रुपये के गिरने का तीसरा कारण रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप का अभाव बताया जा रहा है। जब हमारी मुद्रा में यकायक तेजी या गिरावट आती है तब रिजर्व बैंक हस्तक्षेप करता है। जब रुपया एकाएक बढ़ता है तो रिजर्व बैंक डॉलर की खरीद करता है जिससे डॉलर की मांग बढ़ जाती है और रुपये का दाम फिर घटने लगता है। इसके विपरीत जब रुपये के मूल्य में गिरावट आती है तो रिजर्व बैंक डॉलर बेचकर डॉलर की उपलब्धता को बढ़ाता है जिससे रुपये का दाम फिर स्थिर हो जाता है, लेकिन रिजर्व बैंक के पास डॉलर का एक सीमित भंडार है जिसे बेचने की एक सीमा है। ऐसे में रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप से रुपये के मूल्य में तात्कालिक गिरावट को रोका जा सकता है, लेकिन यह दीर्घकालीन हल नहीं है।

रुपये के गिरने का मूल कारण हमारी प्रतिस्पर्धा शक्ति का हृास है। हमने नई तकनीकों का समावेश एवं शिक्षा में तकनीकी विषयों को जोड़ने का पर्याप्त कार्य नहीं किया है। हमने विनिर्माण को बढ़ावा देकर तेल की खपत को बढ़ाया है और मुक्त व्यापार के मंत्र को अपनाकर अपना व्यापार घाटा बढ़ाया है। ऐसे में रुपये के मूल्य को गिरने से रोकने के लिये सरकार को अपनी इन नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए, अन्यथा रुपये में गिरावट का यह सिलसिला और लंबा खिंच सकता है।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं ]