राजीव सचान

बीते दिनों विश्व में कुपोषण की स्थिति दर्शाने वाले ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रपट आते ही विरोधी दलों के अनेक नेताओं के साथ मीडिया और अन्य क्षेत्रों के कई लोगों ने मोदी सरकार पर हमला बोल दिया। उनके हमले इसलिए तीखे थे, क्योंकि यह रपट कुल 119 देशों में भारत को 100वें स्थान पर दिखा रही थी। चूंकि 2014 में इस हंगर इंडेक्स में भारत 55वें स्थान पर था इसलिए कई लोगों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि कुपोषण दूर करने के मामले में भारत आगे बढ़ने के बजाय महज तीन साल में 45 स्थान नीचे खिसक गया है। ऐसा निष्कर्ष इसलिए निकाला गया, क्योंकि अनेक समाचार माध्यमों ने इस तथ्य को सामने रखा ही नहीं कि 2014 के हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान 55वें स्थान पर इसलिए था, क्योंकि उसमें कुपोषण की समस्या से मुक्त 44 देशों को शामिल नहीं किया गया था।

यदि 2014 में ये 44 देश भी इस सूची में शामिल होते तो तब भारत 99वें स्थान पर होता, न कि 55वें। 2014 के बाद इस सूची में कुल देशों की संख्या बढ़ती गई और इस वर्ष 119 देशों की सूची में भारत 100वें स्थान पर दिखने लगा। नि:संदेह यह कोई अच्छी स्थिति नहीं और हमारे नीति-नियंताओं को इससे चिंतित होना चाहिए कि तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं के बाद भी कुपोषण की समस्या गंभीर क्यों बनी हुई है? इस पर इसके बावजूद चिंतित होना चाहिए कि बीते कुछ वर्षो में कुपोषण की समस्या से निपटने में कुछ कामयाबी मिली है। भारत ने चार में से तीन मानकों में तनिक बेहतर किया है, लेकिन पांच वर्ष की आयु तक के बच्चों के शारीरिक विकास के मामले में अपेक्षित लक्ष्य हासिल न कर पाने के कारण उसका कुल प्रदर्शन खराब दिख रहा है।

कुपोषण से निपटने में थोड़ी कामयाबी मिलने के बावजूद यह संतोष की बात नहीं हो सकती कि भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 100वें स्थान पर दिखे, क्योंकि कई गरीब पड़ोसी देश हंगर इंडेक्स में हमसे आगे हैं। यह तय है कि सरकार को कुपोषण को दूर करने के लिए और अधिक ठोस कदम उठाने होंगे, लेकिन यह प्रचारित करने का कोई मतलब नहीं कि 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से हालात और बदतर हो गए। ऐसे कटाक्ष मोदी सरकार के विरोधियों को आनंदित तो कर सकते हैं कि मई 2014 में कथित विकास का कालखंड शुरू होते ही कुपोषण की समस्या और विकट हो गई, लेकिन यह साफ है कि आनंदित हो रहे लोग अंध विरोध के चलते तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना पसंद कर रहे हैं।

चूंकि हंगर इंडेक्स को सही ढंग से समझने और समझाने की जहमत नहीं उठाई गई इसलिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर जदयू नेता पवन वर्मा तक ने मोदी सरकार पर तंज कसे। नेताओं को इसके लिए दोष नहीं दिया जा सकता कि उन्होंने ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ताजा रपट को सही तरह समझने की कोशिश नहीं की, लेकिन यही बात मीडिया के लोगों के बारे में नहीं कही जा सकती। उनका तो यह दायित्व बनता है कि वे तथ्यों को सही ढंग से समङों भी और जनता को समझाएं भी। इस मामले में ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ और यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि ऐसा जानबूझकर नहीं किया गया ताकि मिथ्या प्रचार करने में आसानी हो सके। मीडिया के एक हिस्से ने हंगर इंडेक्स के मामले में मिथ्या प्रचार शायद इसलिए किया, क्योंकि उसका मकसद ही यही था, अन्यथा किसी को भी इस कथित तथ्य पर चौंकना चाहिए था कि 2014 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 55वें स्थान पर नजर आने वाला देश 2017 में यकायक 100 वें स्थान पर क्यों दिखने लगा?

आखिर ऐसा भी नहीं है कि बीते तीन वर्ष देश अकाल से ग्रस्त रहा हो अथवा सरकार ने समस्त जनकल्याणकारी योजनाएं रोक दी हों। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत के तीन साल में 45 स्थान नीचे खिसकने का प्रचार एक तरह से सच्चाई को जानबूझकर छिपाने वाला काम था। दुर्भाग्य से अब यह काम अक्सर होता है और कई बार तो यह सब पता भी चलता है कि तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने अथवा उनकेएक हिस्से को छिपाने और दूसरे को दिखाने का काम सुनियोजित तरीके से हो रहा है। यह और कुछ नहीं एक तरह की खबरतराशी है। बहुत दिन नहीं हुए जब उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से किसानों को कर्जमाफी के प्रमाण पत्र वितरित किए जाने के बाद आम जनता ऐसी खबरों से दो-चार थी कि योगी सरकार ने कर्ज माफ करने के नाम पर किसानों से छल किया।

कई समाचार पत्रों और टीवी चैनलों ने यह बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने किस तरह दो-चार या दस-बीस या फिर सौ-दो सौ रुपये कर्ज माफ कर किसानों के साथ मजाक किया है। जो यह सब बता रहे थे वे इस तथ्य पर कुंडली मारे बैठे थे कि एक रुपये से लेकर दस हजार रुपये तक की कर्जमाफी पाने वाले किसानों की संख्या 60 हजार से भी कम है और दस हजार से एक लाख रुपये तक की कर्जमाफी से लाभान्वित किसानों की संख्या 11 लाख 27 हजार है। बेशक राज्य सरकार को दस-बीस अथवा हजार-दो हजार रुपये की कर्जमाफी के प्रमाण पत्र बांटने की नुमाइश नहीं करनी चाहिए थी, लेकिन इस नुमाइश की खबर लेने के नाम पर इस तथ्य को ओझल करना एक शरारत ही थी कि दस हजार रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक की कर्जमाफी से लाभान्वित होने वाले किसानों की संख्या करीब साढ़े ग्यारह लाख है।

यह तो उम्मीद की जाती है कि योगी सरकार ने दस-बीस रुपये की कर्जमाफी के प्रमाण पत्र बांटने से हुई जगहंसाई से सबक लिया होगा, लेकिन इसमें संदेह है कि मीडिया के उन लोगों ने कोई सबक सीखा होगा जिन्होंने बड़ी चतुराई से यह तथ्य छिपाया कि तमाम ऐसे भी किसान हैं जिनका 50-60 हजार या 80-90 हजार रुपये तक का भी कर्ज माफ हुआ है।1यह सही है कि तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने अथवा उन्हें अपनी सुविधा से छिपाने या दिखाने का काम पहले भी होता था, लेकिन अब यह बड़े पैमाने पर होने लगा है। जैसे तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है वैसे ही किसी अॅाडियो-वीडियो को संदर्भ से काट कर या फिर अपने हिसाब से प्रस्तुत करने का काम भी अब जोरों से होने लगा है। इस जोर पर कोई रोक नहीं, क्योंकि खुद मीडिया के एक हिस्से के लोग यह काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह ध्यान रहे तो बेहतर कि यह उस लकड़हारे जैसा काम है जो उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह बैठा था। [लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]