[ हृदयनारायण दीक्षित ]: राष्ट्र प्रत्यक्ष जीवमान सत्ता है। स्वराष्ट्र की भावानुभूति राष्ट्रीयता है। राष्ट्र के प्रति एकात्म अनुभूति राष्ट्र भक्ति है और इसी की वैचारिक अभिव्यक्ति राष्ट्रवाद है। पिछले दो-तीन दशक से भारतीय जनगणमन में राष्ट्रवाद का विचार लगातार गहराया है। सो राष्ट्र की अवधारणा, राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति को लेकर बहस चल रही हैं। राष्ट्र को आक्रामक और विभाजक कहा जा रहा है। राष्ट्रवाद को राष्ट्रभक्ति का विरोधी बताया जा रहा है। ऐसे विवेचकों के अनुसार देशभक्ति उचित है, लेकिन राष्ट्रवाद निंदनीय है। ऐसे कुतर्क प्रायोजित जान पड़ते हैं। बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के एक अध्ययन के अनुसार भारत में झूठी खबरों के पीछे राष्ट्रवाद की शक्तियां हैं।

संदिग्ध शोध के अनुसार राष्ट्रीय अस्मिता को बढ़ावा देने के लिए तथ्यों के बजाय भावना का उपयोग किया जा रहा है। शोध के अनुसार ऐसे प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यों को भी जोड़ा जा रहा है। इसका दोषी राष्ट्रवाद का विचार बताया गया है। वहीं पिछले सप्ताह प्रथम विश्व युद्ध समाप्ति की सौवीं बरसी पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैंक्रों ने राष्ट्रवाद को घातक बताया और कहा कि ‘राष्ट्रवाद के कारण हम अपने हितों की तुलना में दूसरे के हित नहीं देखते। राष्ट्र को महान बनाने वाली भावना खत्म कर रहे हैं।’ बहस बढ़ गई है।

मैक्रों के बयान में ही अंतर्विरोध हैं। राष्ट्रवाद देशभक्ति की ही वैचारिक अभिव्यक्ति है। राष्ट्र पहले से अस्तित्व में है, देशभक्त इसी में जन्म लेता है और इसी वस्तुगत सत्ता के प्रति भक्ति रखता है। राष्ट्रवाद के अभाव में भक्ति अभिव्यक्ति का कोई केंद्र नहीं होता। विचारक रिचर्ड वीवर ने ‘आइडियाज हैव कांसीक्वेंसेज’ लिखा था। विचार परिणाम भी होते हैं। भाव विचार के ऊपर होते हैं, लेकिन विचार न हों तो भाव का अभाव होगा। भारतीय संदर्भ में राष्ट्रवाद और देशभक्ति एक साथ है, परस्पर अनुषंगी हैं।

यूरोप में राष्ट्र के लिए ‘नेशन’ शब्द है। राष्ट्र और नेशन एक नहीं हैं। यूरोप में ‘नेशन’ जैसी संस्था का विकास नौवीं-दसवीं शताब्दी में प्रारंभ हुआ। किंग एगबर्ट (802-39) ने इंग्लैंड के एकीकरण का काम शुरू किया। यह काम किंग अल्फ्रेड (871-916) तक जारी था। फ्रांस और जर्मनी में भी यही धारा चली। सत्ताधीशों ने यूरोपीय नेशन की अवधारणा का विकास किया। यूरोपीय इतिहास के मध्यकाल और इसके पहले नेशन या नेशलिज्म जैसे विचार नहीं थे। पिछड़े यूरोप की सभ्यता का प्रेरणा स्नोत इटली का पुनर्जागरण काल है। 16वीं सदी में इटली ने इस काल को पुनर्जन्म कहा और 18वीं सदी में फ्रांस ने रेनेसां। इटली, फ्रांस, इंग्लैंड में यह नेशन निर्माण का प्रमुख समय है, लेकिन एडरसन राष्ट्र को कल्पित समुदाय मानते थे।

यूरोपीय तर्ज के नेशन में सत्ता मुख्य घटक है। एक राजव्यवस्था, राजव्यवस्था के अधीन आने वाली भूमि और शासित लोग मिलाकर नेशन कहलाए। ईएच कार के अनुसार ‘सही अर्थो में नेशंस यानी राष्ट्रों का उदय मध्यकाल की समाप्ति पर हुआ।’ कार ने सही अर्थ का अर्थ बताया ‘अतीत और वर्तमान की निरंतरता, एक सर्वनिष्ठ सरकार की धारणा और परस्पर जनसंपर्क, सुनिश्चित भूभाग और अन्य देशों से भिन्न चरित्रगत विशेषता।’ इसी आधार पर कई विवेचकों ने भारत में राष्ट्रवाद के जन्म और विकास का श्रेय अंग्रेजीराज को दिया है।

गांधी जी ने ’हिंद स्वराज’ में इसका तीव्र प्रतिरोध किया था कि ‘भारत अंग्रेजों के आगमन के पहले भी एक राष्ट्र था।’ भारतीय राष्ट्र का मूल घटक संस्कृति है। डीडी कोशंबी प्रतिबद्ध मार्क्सवादी थे। उन्होंने ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता’ में लिखा ‘मिस्न की महान अफ्रीकी संस्कृति में वैसी निरंतरता नहीं मिलती जैसी भारत में पिछले तीन हजार या इससे भी ज्यादा वर्षों से है। बिना बल प्रयोग ही भारतीय दर्शन संस्कृति का चीन और जापान में स्वागत हुआ। इंडोनेशिया, वियतनाम, बर्मा और श्रीलंका के सांस्कृतिक इतिहास पर भारत का प्रभाव पड़ा।’ हजारों वर्ष की सांस्कृतिक निरंतरता की वैचारिक अभिव्यक्ति ही राष्ट्रवाद है।

यूरोपीय राष्ट्र और भारतीय राष्ट्र धारणा में आधारभूत अंतर है। माक्र्सवादी विद्वान डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘भारतीय नवजागरण और यूरोप’ में लिखा, ‘जिस देश में ऋग्वेद के कवि रहते हैं, उस पर दृष्टिपात करें। जहां ऋग्वेद की सात नदियां बहती हैं, यह लगभग वही देश है, जिसमें जल प्रलय के बाद भरतजनों के विस्थापन के बाद हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ। ऋग्वेद के कवियों के लिए राष्ट्र केवल भूमि नहीं है, उस पर बसने वाल जन राष्ट्र हैं।’

मैक्डनल और कीथ ने लिखा है कि ‘यहां एक सुनिश्चित देश का उल्लेख है।’ पुसाल्कर ने इस प्राचीन राष्ट्र की रूपरेखा में अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध, राजस्थान, पश्चिमोत्तर सीमांत, कश्मीर और सरयू तक पूर्वी भारत सम्मिलित किया है। भारतीय राष्ट्र गठन का मुख्य प्राण संस्कृति है, सांस्कृतिक निरंतरता है। इस संस्कृति का आनंद लेने वाले अनेक जनसमूह हैं। वे तार्किक हैं। वे सभा समितियों में विमर्श करते हैं। भूमि उनके लिए माता है। वे ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले से ही राष्ट्ररूप गठित हैं।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है। जनतंत्र में निर्वाचित सरकार की आलोचना होती है। होनी भी चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी की भी आलोचना होती है। वह राष्ट्रवादी हैं। उनके नेतृत्व में राष्ट्रवादी विचार का विस्तार हुआ है, लेकिन उन्हें या उनकी सरकार को घेरने के लिए राष्ट्रवाद को ही अलगाववादी बताना उचित नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद भू-सांस्कृतिक आस्तिकता है। इस संस्कृति में सारी दुनिया के लोकमंगल की शपथ है। यूरोपीय नेशनलिज्म की तरह यहां स्वदेश को ही श्रेष्ठ और शेष देशों को असभ्य मानने का अहंकार नहीं है। यूरोपीय राष्ट्रवाद साम्राज्यवादी था। इसलिए वहां लगातार युद्ध हुए। वे पुनर्जागरण काल की प्रशंसा करते हैं, लेकिन इसी दौरान यूरोपीय देश परस्पर युद्धरत भी थे। 1618 से 1648 तक मध्य यूरोप में लगातार युद्ध जारी थे।

अनेक इतिहास विवेचक 1648 से ही नेशन स्टेट की सही शुरुआत मानते हैं। भारत में इसी समय भक्ति वेदांत की धूम थी। प्राचीन संपन्नता के तथ्य वेदों में हैं, रामायण और महाभारत में हैं। एक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था कौटिल्य के अर्थशास्त्र में हैं। सांस्कृतिक राष्ट्र की धारणा भी वैदिक काल से बंकिम चंद्र के वंदे मातरम् तक उपस्थित है।

भारतीय राष्ट्र की धारणा का जन्म इतिहास जानना कठिन है। अथर्ववेद में सामाजिक विकास की रूपरेखा है ‘पहले लोक चेतना यायावर थी। फिर गृहस्थ बनी। फिर आह्वानीय हुई। फिर सभा बनी। जो सभा में थे, वे सभ्य कहे गए। फिर समिति बनी, समिति के सदस्य सम्मान योग्य हुए। विकास की इस कार्रवाई में राजा या राज्य व्यवस्था की कोई भूमिका नहीं है। यहां राष्ट्र के जन्म की कथा भी है।’ ऋषियों ने लोककल्याण की कामना से परिश्रम किया। नियम अनुशासन का पालन किया। उनके शोध, ज्ञान, तप और लोकमत निर्माण से राष्ट्र और राष्ट्रशक्ति का उदय हुआ-ततो राष्ट्रं बलं अजायत।’

भारतीय राष्ट्र का जन्म किसी राजा, राजव्यवस्था से नहीं हुआ। भारत में राष्ट्रवाद के विचार का मूल केंद्र भारत के लोग और उनकी प्राचीन संस्कृति है। भारतीय राष्ट्रवाद में पूरा विश्व एक परिवार है। विश्व परिवार की समग्र उन्नति भारतीय राष्ट्रवाद का प्राचीन एजेंडा है। सरकार से असहमति की बात अलग है। राष्ट्रवाद को ही अपशब्द कहना स्वयं को ही गाली देना क्यों नहीं है?

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]