अभिजीत। अफगानिस्तान और तालिबान के बीच शांति वार्ता एक बार फिर से शुरू हो चुकी है। हालांकि कई समस्याओं से घिरी इन वार्ताओं का परिणाम क्या होगा, यह कहना अभी मुश्किल है। जहां एक ओर इस शुक्रवार तक अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या को घटा कर 2,500 किया जाना है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका में हो रहे सत्ता परिवर्तन पर भी दोनों पक्षों की नजरें टिकी हुई हैं।

दरअसल अफगानिस्तान में फिर से बढ़ रही हिंसा की घटनाओं का भी इन वार्ताओं पर व्यापक असर पड़ रहा है। एक बात और स्पष्ट है कि इस समझौते का प्रभाव न सिर्फ तालिबान, अफगानिस्तान और अमेरिका पर पड़ेगा, बल्कि दक्षिण एशिया से लेकर समूचे मध्य एशिया पर पड़ेगा। भारत पर इसके प्रभाव को समझने के लिए हमें दो विषयों को देखना होगा। इस समझौते में क्या है व अमेरिका के अफगानिस्तान से बाहर जाने पर क्या हो सकता है और दूसरा पाकिस्तान के साथ तालिबान के गठजोड़ की भूमिका क्या है।

गौरतलब है कि अमेरिका में वर्ष 2001 में वल्र्ड ट्रेड सेंटर समेत अन्य कई जगहों पर हुए आतंकवादी हमले के बाद तालिबान के खात्मे के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में दो कदम उठाए। इस घटना के एक महीने बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए हवाई हमले शुरू किए। बाद में अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिम के और भी देश इसमें जुड़ गए तथा उनकी संयुक्त सेना अफगानिस्तान पहुंच गई। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की संज्ञा दी और बाद के राष्ट्रपति भी इस अभियान में सक्रियता से शामिल रहे। इसी कड़ी में वर्ष 2017 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पांच हजार अतिरिक्त सैनिकों को अफगानिस्तान भेजा। साथ ही, उन्होंने तालिबान के खात्मे के लिए अमेरिकी फौज को ज्यादा छूट भी दी।

काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशन के अनुसार करीब 19 साल से चल रहे इस युद्ध में डेढ़ लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और अमेरिका ने करीब दो खरब डॉलर खर्च किए हैं। दूसरी ओर अमेरिका ने लोकतांत्रिक अफगान सरकार को मजबूत करने की भी कोशिश की, लेकिन इन सबके बावजूद अफगानिस्तान में स्थिति सामान्य नहीं हो पाई है। इस समयावधि में एक बात सामने आई कि अफगानिस्तान समस्या का हल बिना पाकिस्तान पर नकेल कसे नहीं किया जा सकता। देखा गया है कि पाकिस्तान के तालिबान से अच्छे संबंध है। तालिबान के गठन में भी पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ पर तालिबान को मदद करने के आरोप भी लगे हैं।

तालिबान के नेताओं के सुरक्षित ठिकानों में अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तान के इलाके शामिल हैं। ऐतिहासिक तौर पर भी देखें तो 1996 से पहले जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर पूरी तरह कब्जा नहीं किया था, तब भी उसके नेताओं और लड़ाकों के लिए पाकिस्तान एक सुरक्षित ठिकाना था। वर्ष 2001 में अफगानिस्तान में बैठे आतंकियों ने अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हमले की योजना बनाई और उसे अंजाम दिया। अमेरिका की कार्रवाई के बाद तालिबान के लड़ाकों और शीर्ष नेतृत्व ने पाकिस्तान में शरण ले ली और आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते रहे।

तालिबान की मजबूती दर्शाता समझौता : यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश दो दशकों तक लगातार युद्ध करके और खरबों डॉलर खर्च करने के बाद भी तालिबान को खत्म करने में नाकाम रहा और अंत में उसे तालिबान से समझौता करना पड़ा। इसमें भी उसे पाकिस्तान का सहयोग लेना पड़ा रहा है। पिछले साल 29 फरवरी को अमेरिका और तालिबान के बीच कतर की राजधानी दोहा में अफगानिस्तान में चल रहे युद्ध को खत्म करने को लेकर एक समझौता हुआ। इस समझौते के लिए पहल सितंबर 2018 में की गई थी और नौ दौर की वार्ता के बाद अमेरिका व तालिबान के बीच समझौते तक बात पहुंची। इसमें दोनों पक्षों के बीच कई विषयों पर सहमति बनी। यह तय हुआ कि 135 दिनों में अमेरिका अपने सैनिकों की संख्या घटा कर 8,600 तक सीमित कर देगा और इसी अनुपात में उसके अन्य सहयोगी भी अपने सैनिकों की संख्या में कमी करेंगे।

वहीं दूसरी तरफ तालिबान को यह आश्वस्त करना होगा कि वह अफगानिस्तान में ऐसी किसी भी गतिविधि को अंजाम नहीं देगा, जिससे अमेरिका और उसके सहयोगियों की सुरक्षा को नुकसान हो। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका द्वारा तालिबान नेताओं पर लगे प्रतिबंधों को हटाया जाएगा। पांच हजार तालिबान और दूसरे पक्ष के एक हजार बंदियों को भी छोड़ने की बात समझौते में की गई है। इस समझौते में तालिबान ने अफगानिस्तान से बात करने के लिए भी स्वीकार किया गया था। इस समझौते को अफगानिस्तान में पिछले करीब दो दशकों से चल रहे युद्ध को खत्म करने के दिशा में एक महत्वपूर्ण कोशिश के तौर पर देखा गया है।

समझौते की राह में मुश्किलें : लेकिन क्या अमेरिका और तालिबान के बीच जो तय हुआ, वह सब संभव है, क्योंकि अफगानिस्तान में शांति आए और इस समझौते का एक अच्छा भविष्य हो इसमें कई मुश्किलें हैं। एक सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते में अफगानिस्तान सरकार को शामिल नहीं किया गया, जिस कारण इस समझौते के कुछ विषयों पर स्पष्टता नहीं है। जैसे बंदियों को छोड़ने के संदर्भ में अफगानिस्तान सरकार का यह कहना है कि यह अमेरिका के अधिकार में नहीं आता। वहीं दूसरी ओर अमेरिका ने तालिबान से समझौता करके तालिबान को ज्यादा अहमियत दे दी है, जो कि अफगान सरकार की मुश्किलों को बढ़ाएगा। साथ ही, लोगों में यह संदेश भी जाएगा कि अमेरिकी फौज के चले जाने के बाद तालिबान ज्यादा मजबूत हो जाएगा और आगे चल कर फिर से अफगानिस्तान पर अपना कब्जा भी जमा सकता है।

जानकारों का मानना है कि वर्तमान में तालिबान 19 वर्षो में सबसे अधिक मजबूत स्थिति में है, उसके पास करीब 60 हजार लड़ाके हैं और अफगानिस्तान के कई जिलों में आज उसका वर्चस्व व्यापक रूप से कायम है। पिछले कुछ महीनों में भी कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनको लेकर तालिबान अमेरिका पर और अफगानिस्तान तालिबान पर आरोप लगा रहा है। एक और बात जो ध्यान देने योग्य है कि तालिबान कोई राज्य या उसके द्वारा स्थापित स्थायी व्यवस्था नहीं है। ऐसे में इस बात पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह शांति समझौते को पूर्ण रूप से मानेगा और अगर वह ऐसा नहीं करता है तो फिर अफगानिस्तान को अपने पुराने हालात में पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

भारत पर व्यापक असर की आशंका : अफगानिस्तान में चल रही बदलाव की प्रक्रिया का प्रभाव भारत पर भी पड़ेगा। भारत, अफगानिस्तान सरकार और लोकतंत्र का समर्थक रहा है तथा वहां स्थिति अच्छी हो, इसके लिए विकास के कई कार्य भी किए हैं। बीते करीब ढाई दशकों के दौरान वहां के आधारभूत संरचना को ठीक करने में भारत ने अरबों रुपये खर्च किए हैं। इस कारण भारत और अफगानिस्तान के संबंधों में भी काफी सुधार हुआ है। इन सभी कार्यो के ठीक से होने में अमेरिका की सैन्य उपस्थिति का बड़ा योदगान रहा है। ऐसे में किसी निर्णायक स्थिति में पहुंचाए बिना अमेरिकी सैनिकों की यहां से वापसी अफगानिस्तान के लिए अहितकर साबित होगा। इससे तालिबान का हौसला और मजबूत होगा। साथ ही वहां लोकतंत्र और विकास के कार्यो में भी दिक्कतें आएंगी जो अफगानिस्तान के सुरक्षित भविष्य को खतरे में डाल सकता है।

इस पूरे मामले में एक चिंताजनक बात यह भी है कि इस समझौते में तालिबान को एक राजनीतिक पक्ष माना जा रहा है और उसे सरकार तक में जगह दी जाए, इसकी चर्चा लगातार की जा रही है। तालिबान के अन्य भारत विरोधी आतंकी संगठनों, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा से अच्छे संबंध हैं। तालिबान के मजबूत होते ही ये भी मजबूत होंगे। अफगानिस्तान में तालिबान नशीले पदार्थो का उत्पादन करता है और इसे विश्व के अन्य हिस्सों में बेचता है। यह उसकी कमाई का बड़ा जरिया है। यह पैसा वह आतंकी गतिविधियों के संचालन के लिए इस्तेमाल करता है। भारत ने कुछ महीने पहले ही कहा था कि अफगानिस्तान की धरती का उपयोग किसी भी भारत विरोधी गतिविधि के लिए न हो, इसे सुनिश्चित किया जाना चाहिए, लेकिन आशंका यह है कि तालिबान के रहते हुए ऐसा संभव नहीं हो पाएगा।

दूसरी ओर पाकिस्तान तालिबान के द्वारा अफगानिस्तान में अपनी पैठ बनाने की कोशिश में है और इससे भारत को नुकसान पहुंचा सकता है। तालिबान के एक वार्ताकार ने हाल में कहा भी है कि तालिबान का शीर्ष नेतृत्व पाकिस्तान में है। अफगान सरकार ने भी अपने एक व्यक्तव्य में कहा है कि पाकिस्तान में चल रहे ट्रेनिंग सेंटरों का बंद होना अफगानिस्तान में शांति के लिए जरूरी है। इससे यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान अभी भी तालिबान पर प्रभाव रखता है और भारत के पाकिस्तान के साथ संबंध को देखते हुए यह कहना मुश्किल नहीं है कि वह तालिबान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ करेगा।

पाकिस्तान अफगानिस्तान में तालिबान के सहयोग वाली ऐसी सरकार चाहता है जो भारत के बजाय उससे ज्यादा नजदीक रहे। तालिबान अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार को नहीं मानता है और वह नए सिरे से सरकार बनाने और उसमें भागीदारी की बात कर रहा है। हालांकि यह अफगानिस्तान का आंतरिक मामला है तो भारत इसमें ज्यादा हस्तक्षेप नहीं कर सकता, लेकिन आने वाली चुनौतियों को देखते हुए कुछ तैयारी अवश्य कर सकता है। भारत को अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों में खुद को और मजबूती से स्थापित करना होगा, ताकि तालिबान पर नजर रखी जा सके। भारत को अपने खुफिया तंत्र को और मजबूत करना चाहिए। साथ ही, पाकिस्तान पर दबाव बनाए रखना होगा और अफगानिस्तान में लोकतंत्र को स्थापित करने लिए अपनी ओर से हर प्रयास जारी रखना होगा।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]