[ कुमार विनोद ]: त्योहारों के मौसम की शुरुआत से ठीक पहले जारी किए गए सरकारी फरमान के मुताबिक हर ट्रे पर उसमें सजी मिठाई की एक्सपायरी डेट चस्पा किया जाना जरूरी कर दिया गया है। इसके मद्देनजर देश भर के छोटे-बड़े हलवाइयों की पेशानी पर भले ही चिंता की लकीरें जलेबी या फिर इमरती की मुद्रा में गड्डमगड हो गई हों, लेकिन हमारे शहर के मशहूर-ओ-मारूफ किशन हलवाई एकदम बेफिक्र होकर कड़ाही में खोंमचा चलाए जा रहे हैं, क्योंकि इससे पहले कि उनकी बनाई मिठाई ट्रे में अच्छी तरह से ‘सैटल’ हो, उसकी विदाई की घड़ी आ जाती है, लेकिन हर हलवाई ‘किशन हलवाई’ तो होने से रहा। खुदा का शुक्र है कि कम से कम कुछ हलवाइयों को तो अपनी इस जिम्मेदारी का एहसास है कि अगर असली खोये में नकली खोया न मिलाया तो कहीं मिलावटी चीजें खाने के आदी हो चुके ग्राहकों का हाजमा ही न बिगड़ जाए। रही बात ट्रे पर सजाकर रखी जाने वाली मिठाई की एक्स्पायरी डेट लिखने की तो जनाब ये कौन सी बड़ी बात है। जब तक मिठाई बिक न जाए ‘तारीख पे तारीख’ डालते जाओ। हां, अगर सरकारी फरमान में ‘मिठाई के ऊपर’ एक्स्पायरी डेट लिखने को कहा जाता तो तनिर्क ंचता हो भी सकती थी। हालांकि लगता यही है कि ऐसा होने पर भी हलवाई भाई कोई न कोई माकूल जुगाड़ निकाल ही लेंगे। आखिर हम जुगाड़ वाले देश जो हैं।

सिर्फ खाने-पीने वाली चीजों की होती है एक्सपायरी डेट, वादों की नहीं

एक्सपायरी डेट सिर्फ खाने-पीने वाली चीजों की ही होती हो, ऐसा भी नहीं है। ‘पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात, देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा परभात’ की अद्भुत व्याख्या में एक दवा विक्रेता मित्र ने रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि इस दोहे में ‘मनुष्य जीवन की एक्स्पायरी डेट’ के बारे में सांकेतिक रूप से बताया गया है। उन्हीं विद्वान मित्र की एक अन्य अवधारणा के अनुसार जिंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है वाले गीत में शायर ने पूरी दुनिया को ‘प्यार की एक्स्पायरी डेट’ के बारे में भले ही थोड़े गोलमोल ढंग से, लेकिन बताया तो है। शायद इन्हीं वजहों से मेरे इन मित्र महोदय को इस बात पर सख्त एतराज रहता है कि लोग-बाग आमतौर पर एक्सपायरी डेट को सिर्फ दवाओं के साथ ही क्यों जोड़कर देखते हैं? ये मेरे वही मित्र हैं, जो अपने स्कूली दिनों में स्कूल न आने के नित नए बहाने गढ़ने की प्रक्रिया में अपने दादा-दादी, नाना-नानी को उनके जीवन काल में ही न जाने कितनी बार ‘एक्स्पायर’ करवा चुके थे।

‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की'

खैर! मेरे इन ‘सेर मित्र’ के अलावा एक अन्य ‘सवा सेर’ मित्र भी हैं। इन जनाब ने कभी कहीं पढ़ या फिर सुन ही लिया होगा कि ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की।’ नतीजा यह कि नेताओं के साथ-साथ दवाओं पर से भी उनके विश्वास का वास उठ गया। यही वजह है कि जब-जब दवा-दारू में से किसी एक के चुनाव की नौबत आ जाए तो वह ऊहापोह का शिकार हुए बिना दारू को ही तरजीह देते हैं। दवा से ज्यादा दारू पर इनके पुख्ता यकीन की एक गैर शायराना वजह यह भी है कि दवाओं की खासकर अंग्रेजी दवाओं की एक्सपायरी डेट भी होती है, जबकि दारू के मामले में ‘ओल्ड इज गोल्ड’ का गोल्डन रूल अप्लाई होता है।

डिक्शनरी में दारू का मतलब ‘बीयर’ कतई नहीं है 

वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इनकी डिक्शनरी में दारू का मतलब ‘बीयर’ कतई नहीं है, क्योंकि दवाओं वाला एक्सपायरी डेट का झंझट बीयर के साथ भी होने की वजह से बीयर पीना तो दूर, उनका बस चले तो बीयर मग वालों के साथ चीयर्स तक करने से इन्कार कर दें। कई बार तो कर भी देते हैं, यह कहकर कि क्या यार एक्सपायरी डेट वाली चीज पी रहे हो?

नेताओं द्वारा जनता-जनार्दन से किए जाने वाले वादों की कोई एक्स्पायरी डेट नहीं होती

जानकार बताते हैं और आप अच्छी तरह जानते भी हैं कि तमाम चीजों की तरह नेताओं द्वारा समय-समय पर उठाए जाने वाले मुद्दों और जनता-जनार्दन से किए जाने वाले वादों की भी कोई एक्स्पायरी डेट नहीं होती। आप चाहें तो इन्हेंं पुरानी शराब की कैटेगरी का ही समझ लें। वैसे भी नेता जानते हैं कि कब, किस मुद्दे को कौन सी संजीवनी बूटी कितनी मात्र में सुंघाकर कितने अर्से तक जिंदा रखना है। रही बात वादों की तो नेताओं के शब्दकोश में वह वादा ही क्या जो वफा हो जाए। इसी तरह मिठाई खरीदने से पहले ट्रे पर अंकित एक्स्पायरी डेट देखकर अपने दिल को मिठाई के ताजा होने का दिलासा देना मत भूलिएगा।

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