संतोष त्रिवेदी

सोशल मीडिया पर टहल रहा था। अचानक कई जगह वैरायटी की गालियां दिखाई दीं। मन खुश हो गया कि हम किसी दूसरी दुनिया में नहीं पहुंचे हैं। यहां भी हमारे गली-मुहल्ले का सा अपनापा है। वही तू-तू, मैं-मैं, वही मौलिक अभिव्यक्ति। गालियों के मामले में क्या पढ़े-लिखे और क्या अनपढ़! इस कला में सभी दक्ष दिखते हैं। सोशल मीडिया अब इसके लिए कोचिंग सेंटर का काम कर रहा है। लोग यहीं निपट रहे हैं और निपटा रहे हैं। हर प्रकार का कूड़ा यहां खप जाता है। वह भी बिल्कुल मुफ्त में। लगता है कि कुछ लोगों ने गालियों पर डॉक्टरेट भी कर रखी है। ऐसे प्रशिक्षित लोग जब सोशल मीडिया में उवाचते हैं, नई पीढ़ी दनादन ‘लाइक’ करती है। नित नई गालियां गढ़ी जा रही हैं। शब्दकोश दैनिक रूप से समृद्ध हो रहा है। गालियों के मामले में हम आत्मनिर्भर हों, यह बेहद जरूरी है। आखिर कब तक हम आयातित गालियों से काम चलाते रहेंगे? अंग्रेजी गाली सब बुद्धिजीवी समझते भी कहां हैं!
मनुष्य मौलिकता में रहना पसंद करता है। तभी वह अधिक सहज रह पाता है। पर क्या करें, आजकल एक चेहरे से काम भी नहीं चलता। घर और बाहर अलग-अलग अवतार धरने पड़ते हैं। गालियां आदमी को उसकी स्वाभाविक स्थिति में लाने में सबसे अधिक सहायक होती हैं। आदमी अपने मूलरूप में तभी आता है जब या तो उसका गला सोमरस से तर हो या क्रोध को उसने अपने गले में स्थाई रूप से टांग रखा हो। यदि वह सभ्य गाली देता भी है तो यह सब वह मौलिकता के लिए करता है और मौलिक होना सबसे बड़ा लेखकीय गुण है।
सोशल मीडिया पर घूम ही रहा था कि एक जाने-माने बुद्धिजीवी की ‘पोस्ट’ से टकरा गया। पोस्ट ऑलरेडी वायरल हो चुकी थी। मैं कब तक बचता, सो उसकी चपेट में मैं भी आ गया। ख़ूब बमचक मची हुई थी। वहां हो रहे विमर्श से पता चला कि वह भूतपूर्व लेखक हैं। अपने समय में उन्होंने लिखा तो ख़ूब पर पाठक ही उनके लिखे को समझ नहीं पाए, लेकिन जबसे वह यहां सक्रिय हुए हैं, उनका पुनर्वास हो गया है। उनके बड़े-बड़े उपन्यास सामान्य सी हलचल नहीं पैदा कर पाए और यहां एक पंक्ति भी ट्रेंड करने लगती है। वे आधुनिक क्रांतिदूत बन गए हैं। उनके चिंता व्यक्त करते ही हजारों फॉलोअर्स कट मरते हैं। माहौल से अनजान हमने उनकी ‘उस’ साहित्यिक-गाली की कड़ी निंदा कर दी। फिर क्या था, कई लोग मुझ अलेखक पर टूट पड़े। मुझे तुरंत गैर-साहित्यिक और असहिष्णु करार दे दिया गया।
एक सज्जन ने तो मेरे पिछले जन्म की बाकायदा पूरी कुंडली ही खोल दी। इससे फौरी लाभ यह हुआ कि हमें अपने पुरखों की वे सभी बातें मालूम पड़ीं जिनसे मैं अब तक बिल्कुल अनजान था। तभी अचानक हमारी संदेश-पेटी चमकने लगी। मैं चैट-बॉक्स की ओर मुखातिब हुआ। एक नए गालीबाज ने अपनी श्रद्धानुसार मेरा स्वागत किया। हमने पूछा कि आप मेरा ऐसा अभिनंदन क्यों कर रहे हैं? मैं तो पूरी तरह अभी बुद्धिजीवी भी नहीं बना हूं। उसकी तरफ से जवाब आया-‘मैं तुम्हें ‘ट्रोल’ कर रहा हूं। मेरा यही कर्म और धर्म है। तुम अभी सोशल मीडिया के लिए नए हो। कहां और किस बात पर क्या कहना है, यह तुम्हें सीखना होगा।’ मैंने डरते हुए पूछा, ‘यह ‘ट्रोल’ क्या बला है? मैं तो केवल अभी तक टोल-टैक्स के बारे में ही जानता हूं। हर नाके पर हमेशा देता भी हूं।’ कहने लगा-‘ट्रोल मतलब नाक में दम करना। हम बिना किसी हिंसा के अपना शिकार करते हैं। उसे मारते नहीं केवल घसीटते हैं। इस बीच यदि वह मर जाए तो यह उसकी ‘असहिष्णुता’ है। पर यह कभी-कभी होता है। सामान्यत: हम जिसे ‘ट्रोल’ करते हैं उसे उसके खोल में पहुंचाकर ही दम लेते हैं।’
‘मगर मैंने ऐसा क्या अपराध कर दिया? अपने विचार ही प्रकट किए हैं। आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसीलिए तो है!’ मैंने मुंहतोड़ जवाब दिया। ऐसा लगता है उसे मुझसे ऐसे जवाब की उम्मीद पहले से थी। तुरंत उसकी तरफ से एक ‘हल्की’ गाली आई। साथ में सनसनाता हुआ संदेश भी-‘अभिव्यक्ति की यही आजादी मुझे भी हासिल है। तुम इस फील्ड में नए हो, इसलिए जरा हल्का स्वागत किया है। इस बार तो इनबॉक्स में ही छोड़ रहा हूं। आइंदा घर में घुसकर ‘ट्रोल’ करूंगा। हमें घरेलू अनुभव काफी है। घरेलू-हिंसा के तीन केस पहले से चल रहे हैं। तुम मेरा काम मत बढ़ाओ।’ मैं अब तक उस ‘हल्की’ गाली के सदमे से ही बाहर नहीं आ पाया था, तभी पीछे से श्रीमती जी की आवाज आई,‘बस भी करो चैटिंग! कुछ लिख-पढ़ भी लिया करो।’ मैं उनसे कैसे कहता कि भागवान, यह सब लिखने-पढ़ने का ही नतीजा है! इसके बाद मैं लॉग-आउट होने ही वाला था कि दूसरे बुद्धिजीवी ने कबीर के हवाले से लिखा था,‘गाली आवत एक है, पलटत होत अनेक’। इसकी व्याख्या करते हुए वह बता रहे थे कि यदि ‘बाईं’ ओर से एक गाली आती है तो पलट के ‘दाहिनी’ ओर से अनेक गालियां बन जाती हैं। तभी समाज में संतुलन बना रहता है। इसके आगे की व्याख्या मैं पढ़ नहीं सका, हां तब तक उनकी पोस्ट और उसमें आईं भद्रजनों की संस्कारी-गालियां वायरल हो चुकी थीं। मैैं झट से बाहर निकल आया, लेकिन मुझे अभी तक लग रहा है कि मैं ट्रोल-नाके से गुजरा था।

[ हास्य-व्यंग्य ]