[ ए. सूर्यप्रकाश ]: दोहालिया अदालती फैसले खासी चर्चा में रहे। इनका संबंध 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों से है। उन बर्बर दंगों से जुड़े मामले में दिल्ली की एक अदालत ने एक दोषी को मृत्युदंड तो दूसरे को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। कांग्र्रेस की शह पर हुए उन भीषण दंगों में इन्होंने दो सिख युवकों की हत्या कर दी थी। यह संकेत है कि 34 साल बीतने के बावजूद कुछ दंगाइयों पर तो न्याय का चाबुक चलना शुरू हुआ है जिन्होंने एक धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग को अपर्नी ंहसा का शिकार बनाया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नाटकीय घटनाक्रम में यह घिनौना अपराध हुआ। उसके दोषियों को सजा दिलाने में नरेंद्र मोदी सरकार की प्रतिबद्धता अब असर दिखाने लगी है। इसके लिए मोदी सरकार ने एक विशेष जांच दल यानी एसआइटी गठित की। वहीं सुप्रीम कोर्ट भी सरकारी मशीनरी की विफलता पर लगातार निगरानी करता रहा। अब इसके नतीजे नजर आने लगे हैं।

पहले मामले में कांग्रेस नेता की अगुआई में हिंसक भीड़ ने नई दिल्ली के महिपालपुर इलाके में सिखों की दुकानों में आगजनी की। हरदेव सिंह और अवतार सिंह को प्रताड़ित कर हत्या कर दी। दोनों 30 साल से कम के थे। उसी दिन उक्त कांग्रेस नेता के खिलाफ एफआइआर भी दर्ज हुई, लेकिन एक सत्र अदालत ने दो साल बाद उसे बरी कर दिया। फिर रंगनाथ मिश्र आयोग के समक्ष हरदेव सिंह के बड़े भाई की गवाही के बाद 1993 में इस मामले में दूसरी एफआइआर दर्ज हुई। मगर एक साल बाद ही दिल्ली पुलिस ने इस मामले को इस आधार पर बंद कर दिया कि आरोपी पकड़ से बाहर हैं। परिवार के सदस्यों और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के बावजूद पुलिस ने ऐसा किया। इसमें सफलता के संकेत तब दिखे जब फरवरी 2015 में सरकार ने एसआइटी बनाने का फैसला किया ताकि ऐसे मामलों की नए सिरे से जांच हो सके। अब उनका परिवार उस नेता को सजा दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है।

दूसरे मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 70 दोषियों की सजा बरकरार रखी है। ये सभी उस हत्यारी हिंसक भीड़ का हिस्सा थे जिन्होंने त्रिलोकपुरी में 95 सिखों को मार डाला था। यह उन दंगों के वीभत्स और सबसे जघन्य मामलों में से एक था। इस हत्याकांड को ऐसे खौफनाक तरीके से अंजाम दिया गया कि उनमें से 22 शवों की तो शिनाख्त भी नहीं हो पाई थी। हैरानी इसी बात की है कि सभी हत्यारों को निचली अदालत ने महज पांच साल की ही सजा सुनाई जिनमें से तमाम जमानत पर भी छूटे हुए हैं।

निचली अदालत ने अगस्त 1996 में फैसला सुनाया था और उसके बाद से यह मामला लटका हुआ था। इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह थी कि तत्कालीन सरकार ने इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील नहीं की जिससे कि क्रूरता की पराकाष्ठा करने वाले इन अपराधियों को कड़ी सजा दिलाई जा सकती। यह मामला उच्च न्यायालय के समक्ष इसीलिए आया, क्योंकि एक सजायाफ्ता ने अपने ऊपर सिद्ध हुए आरोप और सजा के खिलाफ वहां अपील की थी। इस अर्जी को खारिज करते हुए उच्च न्यायालय ने कुछ कड़ी टिप्पणियां कीं और अभियोजन पक्ष के रवैये पर सवाल भी उठाए। उसने कहा कि दंगों की भड़की आग को रोकने के लिए पुलिस बल और सामान्य प्रशासन ने न तो समय से और न ही किसी तरह के प्रभावी कदम उठाए।

31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों की जांच में नानावती आयोग ने ही कुछ बेहतर काम किया। इससे पहले बने आयोग लीपापोती में ही लगे रहे। नानावती आयोग के अनुसार उन दंगों में 2,732 सिखों की हत्या हुई। इनमें से 2,146 की हत्या दिल्ली और 586 उत्तर भारत के अन्य इलाकों में मारे गए। बड़े पैमाने पर इन हत्याओं के अलावा तमाम सिखों को अपने घरों से हाथ धोना पड़ा। उन्हें संपत्ति का भारी नुकसान हुआ। इस आयोग को दंगों में कई कांग्र्रेस नेताओं की सीधी संलिप्तता और प्रशासन की शिथिलता के तमाम साक्ष्य मिले।

नानावती आयोग ने अपने तथ्यों से पुलिस की नाकामी को साबित किया। मसलन पुलिस ने दंगाइयों के खिलाफ महज 587 एफआइआर ही दर्ज कीं। इनमें से 241 को ‘पहुंच से बाहर’ बता दिया। अन्य 253 मामलों में आरोपी बरी हो गए। 11 एफआइआर अमान्य हो गईं और 11 मामलों में भी आरोप खारिज हो गए। आयोग को बताया गया कि एक मामला लंबित है और 42 मामलों में सुनवाई जारी है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दंगों के रूप में हुई भयानक त्रासदी के बारे में आयोग ने बताया कि सिखों से बदला लेने के लिए सरकारी दिल्ली परिवहन निगम यानी डीटीसी की बसें जुटाई गईं जिनमें सवार दंगाइयों ने सिख बहुल इलाकों को निशाना बनाया। दंगाइयों को हथियारों के अलावा आगजनी के लिए केरोसिन और पेट्रोल जैसी चीजें भी दी गईं और इन्हें लेकर वे डीटीसी बसों से ही कुछ खास इलाकों में गए। उसके बाद दहशत और वहशत का दौर शुरू हो गया।

आयोग ने कहा कि जांच के दौरान उन्हें ऐसी सामग्र्री भी मिली जिसमें इस बात के संकेत थे कि राजीव गांधी ने अधिकारियों से कहा था कि ‘सिखों को सबक सिखाया जाना चाहिए।’ हालांकि साक्ष्यों के अभाव में आयोग इसे पुष्ट नहीं कर पाया, लेकिन उसने पुलिस और प्रशासन के शिथिल रवैये को सरकारी शह और सेना बुलाने में अनुचित देरी को लेकर जरूर कुछ संकेत किए हैं। यहां तक कि तब के हालात पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने भी अपना लाचारी जाहिर की थी। कुछ प्रबुद्ध सिखों के प्रतिनिधिमंडल के समक्ष उन्होंने कहा था कि ‘उनके पास हस्तक्षेप करने की शक्ति नहीं है।’

इन साक्ष्यों के आलोक में मोदी सरकार के प्रयास सराहनीय कहे जाएंगे। 1984 की हिंसा के पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए सरकार ने दिसंबर 2014 में जस्टिस जीपी माथुर की अगुआई में एक समिति बनाई कि वह इसके लिए उपाय सुझाए। समिति की सिफारिश पर ही 2015 में एसआइटी का गठन हुआ कि वह बंद पड़े मामलों की नए सिरे से जांच करे। इस बीच कई मामलों में अभियोजन में हो रही देरी को लेकर उच्चतम न्यायालय ने भी हस्तक्षेप किया। एसआइटी के काम पर नजर रखने के लिए उसने जहां एक पर्यवेक्षक पैनल बनाया तो इस साल की शुरुआत में हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज के नेतृत्व में तीन सदस्यीय समिति भी बनाई जिसे उन 186 मामलों में जांच फिर से शुरू करने का निर्देश दिया जिनमें जांच बंद कर दी गई थी।

उधर जर्मनी से आ रही खबरों के अनुसार द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के 73 साल बाद भी वहां यहूदियों पर जुल्म करने वाले नाजियों की धरपकड़ की कोशिशें जारी हैं। उनमें से कई संदिग्धों की उम्र तो अब 90 के करीब हो गई है। 1984 में हजारों सिखों को मौत के घाट उतार देने वालों को भी कानून के शिकंजे में कसने के लिए ऐसी ही प्रतिबद्धता और ईमानदारी की दरकार है। कांग्रेस के दबाव में जितने भी मामले बंद किए गए उन्हें फिर से खोला जाना चाहिए। तभी हम उस पीड़ित एवं व्यथित समुदाय का अपने संविधान और अपने लोकतांत्रिक जीवन में विश्वास बहाल कर पाएंगे।

 [ लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]