[ कृपाशंकर चौबे ]: लगभग प्रत्येक भारतीय भाषा ने राम की कथा कहने वाली रामायण से कुछ न कुछ प्रेरणा ग्रहण की है और शायद यही कारण है कि राम देश के जनमानस में कहीं गहरे रचे-बसे हैैं। राम कथा लोगों को इतना मुग्ध करती है कि वे उनकी महिमा का बार-बार बखान सुनने को लालायित रहते हैैं। ऐसा शायद इसीलिए है, क्योंकि दशरथ पुत्र राम ने अपना सारा जीवन आदर्श स्थापित करने में खपा दिया। उन्होंने जीवन में जो कुछ किया, अपने लिए नहीं, औरों के लिए किया। शायद अपने इसी अद्भुत गुण के कारण वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। उनका त्याग भरा जीवन आज भी लोगों को सम्मोहित करता है तो इसीलिए कि हर कोई अपने आस-पास आदर्शों की स्थापना होते देखना चाहता है। यह चाहत ही भगवान राम की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है और भारत आज भी राममय है।

जब तक मानव समाज आदर्शों की ओर उन्मुख रहेगा तब तक राम पूजे जाते रहेंगे और प्रेरणास्नोत भी बने रहेंगे। राम कथा ने सभी भारतीय भाषाओं में पारस्परिक साझेदारी, समझदारी और संवेदना की समझ भी कायम की। राम कथा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय रही है। जिन-जिन देशों में भारतीय संस्कृति की छाप पड़ी वहां-वहां राम कथा प्रचलित होती गई और राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्थापित होते गए। ऐसा इसीलिए हुआ, क्योंकि राम की कथा मानवीय मूल्यों का एक अनुपम उदाहरण पेश करती है।

इंडोनेशिया में रामकियेन व रामयत, जावा में रामायण काकाविन, बाली द्वीप की रामायण, मलेशिया में हिकायत सेरीनाम के नाम से राम कथा प्रचलित रही है। अरब से लेकर यूरोप तक के साहित्य में राम कथा का कोई न कोई रूप मिलता है। यूरोप में रामायण के अनुवाद के जरिये राम कथा का प्रचार हुआ। जेसुइट मिशनरी जे. फेनिचियो ने वर्ष 1609 में लिब्रो डा सैटा नाम से राम कथा का अनुवाद किया था। ए. रोजेरियस ने ‘द ओपेन रोरे’ नाम से डच भाषा में राम कथा का अनुवाद किया था।

जेवी टावर्निये ने 1676 में फ्रेंच में राम कथा का अनुवाद किया था। पेरिस से 1782 में ‘वोयाज ओस इंड ओरियंटल’ नाम से राम कथा का अनुवाद किया था। वानश्लेगेन ने 1829 में रामायण का लैटिन में अनुवाद किया था। 1840 में सिंगनर गोरेसिउ ने इटैलियन में राम कथा का अनुवाद किया। विलियम केटी ने 1806 में यही काम अंग्र्रेजी में शुरू किया था जिसे बाद में मार्शमैन, ग्रिफिथ, व्हीलर ने पूरा कर प्रकाशित किया। रूसी विद्वान वारान्निकोव ने बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया था। वहीं बेल्जियम में जन्मे फादर कामिल बुल्के ने तो भारत आकर ‘रामकथा का विकास’ विषय पर शोध भी किया।

जनमानस में राम कथा क्यों रची-बसी है? क्या इसलिए कि राम का चरित्र आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श वीर, आदर्श राजा और आदर्श शरणागतवत्सल के रूप में सभी को आकर्षित करता है? या इसलिए कि राम का जीवन भारत के महान आदर्शों का आदिम भंडार है या किसी अन्यत्र कारण से? कारण जो भी हो, राम एक ऐसे व्यक्तित्व हैैं जो सहज भी हैैं और विराट भी और शायद इसीलिए उनकी कथा यानी राम कथा सदियों से देश-विदेश के मूर्धन्य विद्वानों को भी प्रभावित करती चली आ रही है।

केवल तुलसी कृत रामचरितमानस की बात करें तो अकेले उसके जितने संस्करण छपे हैं, जितनी टीकाएं लिखी गई हैं, उतनी किसी अन्य काव्यकृति पर नहीं। गीता प्रेस से प्रकाशित केवल मझोले आकार वाले संस्करण की 32 लाख चालीस हजार से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। यह आधुनिक काल का भी ‘मानस’ बना हुआ है। आखिर चार शताब्दियों के बाद भी राम जनमानस में क्यों और कैसे बसे हुए हैं? दरअसल तुलसी ने रामचरितमानस को समय के साथ ऐसे जोड़ा कि वह हमेशा प्रासंगिक बना रहा। आज भी रामलीला लोकप्रिय है। बनारस की रामलीला तो छह सौ साल पुरानी है।

यदि रामचरितमानस से इतनी बड़ी आबादी जुड़ी है तो जाहिर है कि इसका एक बड़ा कारण भाषा है। तुलसीदास ने अपनी भाषा की ताकत को पहचाना था। तुलसी ने इसमें जो कहा है, वह लोक के लिए कहा है, इसीलिए लोक की भाषा में कहा है। उन्होंने नया कुछ नहीं कहा। तुलसी ने संस्कृत में कही बातों को ही कहा, किंतु नए ढंग से कहा और उसे अभिव्यक्त करने के लिए जनता की भाषा को चुना। उन्होंने संस्कृत छोड़कर हिंदी अपनाई। रामचरितमानस का धर्म के साथ कुछ ऐसा अटूट संबंध जुड़ गया है कि वह उसके काव्य रूप पर भारी पड़ता दिखता रहा है।

तुलसी के जीवनकाल में ही काशी के कथावाचकों ने उनका विरोध शुरू कर दिया था। वे संस्कृत परंपरा के थे। ऐसे लोग लोक भाषा में रचित रामचरितमानस को कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? एक तथ्य यह भी है कि मानस को लोकप्रिय बनाने में कथावाचकों की भी अहम भूमिका रही है और वे यह भूमिका निभाने में इसीलिए सफल रहे, क्योंकि अपनी राम कथा से आम जनमानस को जैसा तुलसी ने झंकृत किया है वैसा कोई अन्य कवि करने में समर्थ नहीं हुआ।

जब मानस इतनी बड़ी आबादी पर प्रभाव पैदा करता है तो उसका उपयोग सामाजिक परिवर्तन के लिए क्यों नहीं किया जाता? सामाजिक परिवर्तन के लिए मानस की लोकप्रियता का उपयोग करने का विचार सबसे पहले राममनोहर लोहिया के मन में आया था। उन्होंने इसी उद्देश्य से रामायण मेले का कार्यक्रम भी बनाया था। हालांकि वह उसमें शरीक नहीं हो पाए थे। उनके निधन के बाद उनके अनुयायियों ने रामायण मेले का आयोजन किया था।

जयप्रकाश नारायण ने भी तुलसी काव्य के महत्व को समझा था और 7 जनवरी 1974 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयोजित समारोह के उद्घाटन सत्र में उन्होंने यहां तक कहा था, ‘मानस नए सिरे से इतिहास लेखन का प्रयास है और यहीं तुलसीदास राजा-महाराजाओं से बड़े हो जाते हैं। यदि हम कहते हैं कि तुलसीदास अकबर के जमाने में हुए, तो गलत है। इसके विपरीत हमें कहना होगा कि तुलसीदास के जमाने में अकबर हुए। आज भी इतिहास को नए सिरे से लिखने की जरूरत है और इसके लिए रामचरितमानस हमारी सबसे बड़ी प्रेरणा बन सकता है।’

राम के चरित्र ने आधुनिक हिंदी कवियों को भी आकृष्ट किया। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने 1936 में ‘राम की शक्तिपूजा’ शीर्षक से कालजयी कविता लिखी। उसमें यह कथा बहुत पुरानी है कि देवी को प्रसन्न करने के लिए राम उन्हें नीलकमल चढ़ा रहे हैं और एक कमल की जब कमी पड़ जाती है और पुंडरीकाक्ष होने के नाते वह अपनी आंख चढ़ाने जाते हैं। ‘राम की शक्तिपूजा’ विशुद्ध अर्थों में राम-रावण युद्ध नहीं है। जिधर अन्याय है, उसका प्रतिरोध करते हुए वह शक्ति की मौलिक कल्पना पर जोर देते हैं, क्योंकि उसी से वह अन्याय को पराजित कर सकेंगे।

[ लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीर्य ंहदी विवि में प्रोफेसर हैं ]