सुरेंद्र किशोर (नई दिल्ली)। संघ परिवार को लेकर कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों का एक बार फिर दोहरा रवैया सामने आया। तथाकथित सेक्युलर जमात का कोई बड़ा नेता जब आरएसएस से संपर्क साधता है तो उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती, लेकिन जब उनके बीच का कोई नेता संघ मुख्यालय चला जाता है तो हाय-तौबा मच जाती है, जैसे अभी हाल में प्रणब मुखर्जी के नागपुर जाने से मची। ऐसे मौके पर कहा जाता है कि संघ परिवार को प्रतिष्ठा दी जा रही है, उसे ताकतवर बनाया जा रहा है और इससे अंतत: भाजपा को ताकत मिलती है। सच यह है कि संघ परिवार को सेक्युलर जमात की विफलताओं का लाभ मिलता है,लेकिन यह जमात अपनी विफलता पर ध्यान देने के बजाय आरोप-प्रत्यारोप से ही अपना काम निकाल लेना चाहती है। इन दिनों उसका प्रयास महागठबंधन बनाकर संघ परिवार यानी भाजपा यानी राजग को पराजित करने का है। संभव है कि वह इसमें सफल हो जाए, पर क्या यह सफलता स्थाई होेगी? हाल के कुछ उपचुनाव नतीजों ने सेक्युलर जमात का मनोबल बढ़ाया है, लेकिन जब तक वह अपनी कमजोरियों पर काबू पाने की कोशिश नहीं करेगी तब तक उसे कोई स्थाई राजनीतिक लाभ नहीं मिलेगा। एक दल जब भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाता है तो उसे बुरा नहीं माना जाता, लेकिन दूसरे दल को ऐसी छूट देने को सेक्युलर जमात तैयार नहीं होती।

जब 1963 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए आरएसएस को बुलाया था तो कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों को इसमें कोई हर्ज नहीं नजर आया था। उस समय जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘मेरी पार्टी का संघ के साथ वैचारिक मतभेद हो सकता है, लेकिन जब देश संकट में हो तो हम सबको एकजुट होकर काम करना चाहिए।’ जब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान से युद्ध के वक्त दिल्ली की ट्रैफिक व्यवस्था के संचालन का भार आरएसएस को दिया था तो कोई एतराज नहीं हुआ था, लेकिन जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी नागपुर गए तोअन्य नेताओं समेत माकपा नेता सीताराम येचुरी ने सख्त एतराज जताते हुए कहा कि प्रणब जी ने वहां गांधी हत्याकांड की चर्चा क्यों नहीं की? कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पहले तो उन्हें नागपुर जाने से रोकने की कोशिश की। वह नहीं माने तो उन पर आक्षेप लगाए। जब प्रणब ने वहां जाकर संतुलित भाषण दिया तो कांग्रेसी ठंडे पड़ गए। हालांकि कई कांग्रेसी नेताओं को यह मलाल अभी भी है कि वह वहां गए ही क्यों? ऐसा ही मलाल उन्हें इंदिरा गांधी को लेकर नहीं हुआ था जब 1977 में संघ परिवार के निमंत्रण पर उन्होंने विवेकानंद रॉक मेमोरियल का उद्घाटन किया था। तब किसी कम्युनिस्ट या कांग्रेसी नेता ने संघ की पृष्ठभूमि को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं किया। तब किसी ने नहीं कहा कि इंदिरा जी ने वहां गांधी हत्याकांड का मामला क्यों नहीं उठाया? जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को लेकर कोई कांग्रेसी या कम्युनिस्ट आज भी सवाल नहीं उठा रहा है। इस पर भी कोई चर्चा नहीं कर रहा कि देश के सामने जैसा संकट 1963 या 1965 में था वैसा ही आज है या नहीं?

प्रणब मुखर्जी की नागपुर यात्रा पर तरह-तरह की बातें की गईं और अभी भी हो रही हैं। कुछ कम्युनिस्ट नेता ज्यादा ही मीन-मेख निकाल रहे हैं। एक तो यह उम्मीद कर रहे थे कि प्रणब नागपुर जाकर संघ को खरी-खोटी सुना कर वापस आ जाते। प्रणब दा ने यह अपेक्षा पूरी नहीं की। वैसे इससे पहले भी संघ को लेकर कई कम्युनिस्ट

नेता समाजवादियों पर बेसिर-पैर के लगाते रहे हैं। यह बात और है कि कम्युनिस्टों की कसौटी के हिसाब से ऐसा ही आरोप खुद उन पर भी है। उनका आरोप यह रहा है कि समाजवादियों ने ही संघ परिवार के लिए राजनीतिक जमीन तैयार की यानी संघ-जनसंघ-भाजपा को मजबूत किया। उनका तर्क है कि जनसंघ और बाद में भाजपा के

साथ मिली-जुली सरकार बना कर समाजवादियों ने संघ परिवार को समाज में प्रतिष्ठा दिला दी। इससे पहले उसे राजनीतिक तौर पर अछूत माना जाता था। दरअसल 1966-67 में प्रतिष्ठा तो माकपा के नेताओं को भी मिली जो 1962 में अपने चीनपरस्ती रवैये के कारण अलग-थलग पड़ गए थे। 1967 के आम चुनाव के बाद में देश के सात राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। बाद में अन्य दो राज्यों में कुछ कांग्रेसी विधायकों के दलबदल के कारण कांग्रेसी सरकारें गिर गईं और इसके उपरांत वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईंं। उसी समय बिहार और उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडलों में एक साथ भाकपा और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य शामिल किए गए। इन सरकारों में जनसंघ के प्रतिनिधि भी थे। इस तरह देश में पहली बार सोशलिस्ट और जनसंघ के प्रतिनिधियों ने सत्ता में हिस्सेदारी की। यदि सोशलिस्ट नेताओं ने इस तरह जनसंघ को बढ़ाया और सम्मानित किया तो इसका श्रेय भाकपा को भी तो जाता है। आखिर वे उन मंत्रिमंडलों में क्यों शामिल हुए जिनमें जनसंघ भी था? यह हैरानी

की बात है कि भाकपा नेता इसके लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानते। आखिर दोहरे मापदंड का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है ? 1966 में डॉ. राममनोहर लोहिया ने कुछगैर कांग्रेसी दलों को एक साथ आने पर राजी किया था। उनका तर्क था कि गैर कांग्रेसी दलों के मिलने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि कांग्रेस प्रतिपक्ष के वोट के बंटवारे का लाभ उठाकर चुनाव दर चुनाव सत्ता हासिल करती जा रही है। यह भी याद रहे कि 1989 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी तो भाजपा और वामपंथी दल उसे बाहर से समर्थन दे रहे थे। क्या इससे भाजपा की ताकत नहीं बढ़ी? देखा जाए तो परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से भाजपा के साथ काम करने के बावजूद कम्युनिस्ट खुद को जिम्मेदार नहीं मानते, लेकिन वे दूसरे दल को जिम्मेदार जरूर ठहरा देते हैं।2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व में राजग की भारी जीत के बाद कांग्रेस ने पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई ताकि वह हार के कारणों की जांच कर सके।

जून, 2014 में एंटनी ने अन्य बातों के साथ -साथ यह भी कहा, ‘मुस्लिम तुष्टीकरण कांग्रेस की हार का मुख्य कारण रहा। जनता में संतुलित धर्मनिरपेक्षता वाली हमारी साख अब नहीं रही।’ जो बात एंटनी ने नहीं कही वह यह थी कि भाजपा के उभार का दूसरा बड़ा कारण मनमोहन सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। अपने शासनकाल में मनमोहन सरकार इन आरोपों को गलत बताती रही। जाहिर है कि इससे जनता का रोष बढ़ा और उसका लाभ सबसे बड़े विपक्षी गठबंधन यानी राजग को मिला। एक तरह से राजग की जीत में संप्रग सरकार का ‘योगदान’ था। आज भी अधिकतर राजग विरोधी दल उन दो प्रमुख कारणों को समाप्त करने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं जो 2014 में उनकी हार के कारण बने थे। इसके बदले वे दलीय गठजोड़ पर जोर दे रहे हैं। पता नहीं, यह कितना कारगर साबित होगा, क्योंकि अपनी हर विफलता के लिए किसी और को दोषी ठहरा कर कुछ हासिल नहीं किया जा सकता।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)