[ श्रीप्रकाश शर्मा ]: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को परीक्षा पे चर्चा कार्यक्रम में देशभर से बच्चों, शिक्षकों और अभिभावकों की चिंताओं पर चर्चा की। कार्यक्रम में उन्होंने परिजनों को भी सलाह दी कि बच्चों पर अच्छे नंबर लाने का अनावश्यक दबाव न बनाएं, क्योंकि इससे ही परिस्थिति बिगड़ती है। प्रधानमंत्री ने ऑनलाइन गेम्स से लेकर सोशल मीडिया और परीक्षा में नंबरों पर टिप्स दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके पहले भी बच्चों, अभिभावकों और शिक्षकों के साथ इसी तरह की चर्चा कर चुके हैैं। दरअसल यह पहली बार नहीं है जब परीक्षा से पहले बच्चों को तनाव से बचाने की कोई पहल हुई हो। बीते कुछ वर्षों से ऐसी तमाम कवायदें विभिन्न स्तरों पर होती रही हैं। जब भी परीक्षा के तनाव के बारे में चर्चा होती है तो एक साथ कई विचार बड़ी तेजी से हमारे जेहन में उठते हैैं। एक विचित्र-सा डर, भ्रम, परेशानी, अफरा-तफरी, दुविधा, उदासी, चिड़चिड़ापन और न जाने कितनी मानसिक और भावनात्मक अवस्थाओं को अपने में समेटे हुए परीक्षा के तनाव विद्यार्थियों के जीवन के लिए किसी दु:स्वप्न से कम डरावने नहीं होते हैैं।

दुनिया भर के मनोविश्लेषक और शिक्षाविद् परीक्षा के तनाव को दूर करने के लिए कई प्रकार के टिप्स और ट्रिक्स की अनुशंसा करते आ रहे हैं। सब की अपनी-अपनी राय होती है और अपना-अपना नजरिया। कोई अपने अनुभव के आधार पर परीक्षा के तनाव के शमन के लिए उपाय बताता है तो कोई अपने किताबी ज्ञान के आधार पर तरकीब, लेकिन यहां पर आत्मचिंतन का एक प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि आखिर एक छात्र परीक्षा के तनाव का शिकार ही क्यों होता है? संजीदगी से विचार के लिए यह विषय भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जो किसी छात्र को मानसिक रूप से उद्वेलित करने के लिए जिम्मेदार होती हैं? ये वे सवाल हैैं जिन पर गहन विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

पिछली सदी के आखिरी दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के उत्तर संक्रमण काल में, जबकि पूरी दुनिया उदारीकरण और वैश्वीकरण के अभूतपूर्व परिवर्तन के दौर से गुजर रही है तब इस सच को झुठलाना आसान नहीं होगा कि इसके कारण मानव जीवन की सोच के ढंग और जीवन-शैली में भी बेशुमार अप्रत्याशित तब्दीलियां आई हैं। तिस पर जीवन में सूचना तकनीक की क्रांति के दखल ने तो आग में घी सरीखा काम किया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के विभिन्न उपादानों के रूप में फेसबुक, वॉट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्विटर और कई अनेक चमत्कारी और मनभावन खोजों से जीवन के संस्कार, मानवीय मूल्य और नैतिक मर्यादाएं भी अछूते नहीं रह पाए हैं। इन चाहे-अनचाहे परिवर्तनों के कारण कुल मिलाकर हर व्यक्ति के जीवन में रंगीनियां आई हैं और अंतत: हम अपने गंतव्य की राह से भटकते दिखते हैैं। इतना ही नहीं उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर रहीं सोशल नेटवर्किंग साइट्स की जादुई दुनिया से एक किशोर छात्र का जीवन भी अछूता और महफूज नहीं रह पाया है और परिणामस्वरूप उसके मन में अजीबोगरीब भटकाव आया है।

उनके आगमन के साथ ही कुदरती जिस्मानी परिवर्तन के साथ मन की दशा प्रदूषित हुई है। इस सत्य से कदाचित ही कोई इन्कार कर पाए कि बदले समय की अनिवार्यता के साथ हाल के दशकों में विद्यार्थियों के स्कूल बैग का वजन बढ़ा है। कोर्स और कक्षाओं के पाठ्यक्रम जटिल हुए हैं और इसने विद्यार्थियों के मानसिक सुकून छीने हैं। परिणामस्वरूप बच्चों को इन समस्याओं से मुक्त करने के लिए पाठ्य पुस्तकों की संख्या कम करने और पाठ्यक्रम को घटाने की दलीलों से शिक्षा बाजार गर्म है। प्राथमिक स्तर पर बच्चों के स्कूली बैग कम करने की तो एक पहल हुई है, लेकिन अभी यह पहल सीमित ही नजर आती है। इस पहल के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि क्या महज स्कूल बैग का भार कम कर देने से या फिर पाठ्यक्रम का स्तर निम्न कर देने से छात्रों को परीक्षा के तनाव से महफूज रखा जा सकता है?

छात्र जीवन में स्वाध्याय यानी सेल्फ स्टडी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे एक छात्र कठिन मेहनत के बल पर खुद में अंतर्निहित कमियों की भरपाई करता है और एकलव्य की तरह अपनी विधा में महारत हासिल कर लेता है, लेकिन दुर्भाग्यवश पिछले दो-तीन दशकों में छात्रों के जीवन के स्व-निर्माण के इस रामबाण में काफी क्षरण आया है। छात्रों द्वारा घंटों वॉट्स एप पर अपने दोस्तों के साथ चैटिंग करने और यू-ट्यूब पर वीडियो देखने में जिस बहुमूल्य समय की बर्बादी की जाती है, आज उस पर गहनता से चिंतन की दरकार है।

प्राय: ऐसा माना जाता है कि यदि आप किसी कार्य के संपादन के लिए योजना बनाने में असफल रहते हैं तो आप असफल होने की योजना बना रहे होते हैं। किसी कार्य की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए योजनाबद्ध तरीके से कामयाबी पाने की व्यूहरचना के अभाव में मन में चिंता फिर निराशा और अंतत: तनाव उत्पन्न होता है। अनियोजित और अव्यवस्थित जीवन शैली और बाहरी दुनिया से अत्यधिक एक्सपोजर के कारण मन-भटकाव का जो सिलसिला शुरू होता है वह फिर अंत में निराशा का कारण बन जाता है। सच पूछें तो परीक्षा के बारे में जब छात्रों की नींद खुलती है तब तक पीछे जाकर चीजों को फिर से सहेजने के लिए काफी देर हो चुकी होती है। तिस पर अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों से जमीनी सच्चाई से परे उम्मीद रखने से भी मन एकाएक व्याकुल हो उठता है जिसकी परिणति हताशा और अवसाद में होती है। लिहाजा परीक्षा संबंधी तनाव को अपने जीवन से दूर रखने के लिए छात्रों की जीवन शैली में अहम परिवर्तन की दरकार है।

जीवन में इसके लिए एक लक्ष्य निर्धारित करके उसका शिद्दत से पीछा करने की जरूरत है। करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान के आधार पर निरंतर अध्ययन करने और नया सीखने की आदत का विकास करना होगा। मोबाइल फोन और टेलीविजन के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए मन पर कठोर नियंत्रण अति आवश्यक है। तेजी से गुजरते समय और छात्र-जीवन की अहमियत को पहचानते हुए और मन को वश में करते हुए यदि स्वाध्याय के माध्यम से अपने और मां-बाप के सपनों को साकार करने की पूरी सच्चाई और लगन से कोशिश की जाए तो परीक्षा एक तनाव नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन यात्रा का एक प्रतीक्षित और सुखद पड़ाव बन जाता है।

( लेखक मिजोरम स्थित जवाहर नवोदय विद्यालय के प्राचार्य हैैं )