[ गिरीश्वर मिश्र ]: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की फलश्रुति के रूप में देश ने संविधान को अंगीकार कर अपने भाग्य को उसके साथ 26 जनवरी, 1950 को जोड़ दिया। इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘राम राज्य’ का नक्शा होना था जिससे एक स्वाबलंबी समाज में हर सक्षम हाथ को काम, देश के निर्माण में सहयोग की अनुभूति, स्वस्थ जीवनशैली, प्रकृति का आदर, स्वार्थ की जगह लोक-हित की स्थापना, आवश्यकतानुरूप धन-संचय, बुद्धि, हृदय और शरीर तीनों के लिए शिक्षा, विकेंद्रीकृत शासन और अधिकाधिक जन-भागीदारी के अवसर की कल्पना की गई थी, पर जो सरकार बनी वह इन सबको अव्यावहारिक करार देते हुए इनसे दूर हटती गई।

हम गांधी जी का प्रतीक तो चाहते हैं, परंतु उनके विचारों से दूरी भी बनाए रखना चाहते हैं

देश को आगे ले जाने का जो सपना देश के रहनुमाओं ने देखा उसके तहत ऐसा हो न सका। सात दशक बाद यह विचारणीय हो जाता है कि हम अपनी अब तक की यात्रा को टटोलें और देखें कि क्या भूल चूक हुई और अब हमारे पास क्या विकल्प हैैं? महात्मा गांधी नि:संदेह संपूर्ण भारतीय समाज के सच्चे प्रतिनिधि थे। इस बार का गणतंत्र दिवस बापू की स्मृति की सघन छाया तले मनाया जा रहा है, लेकिन समस्या यह है कि हम सब महात्मा गांधी का प्रतीक तो चाहते हैं, परंतु उनके विचारों और व्यावहारिक सुझावों से दूरी भी बनाए रखना चाहते हैं। इस दुविधा का दुष्परिणाम यह है कि महात्मा गांधी कुछ अनुष्ठानों के विषय भर रह गए हैं।

आज हमारे सोच-विचार के पैमाने बदल गए

वैश्विकता के दौर में आज हमारे सोच-विचार के पैमाने बदल गए हैं। हम एक अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं, जिसका कोई ओर-छोर नहीं दिख रहा है। आज हम मनुष्य और प्रकृति, दोनों के साथ बर्बर हुए जा रहे हैं। हिंसा का उन्माद चारों ओर फैल रहा है। गांधी जी ने हिंसा को प्रेम के रूप में परिभाषित किया था। वह अहिंसा में स्नेह और सख्य भाव को देखते थे। पारस्परिक निकटता और सौहार्द उसका स्वाभाविक परिणाम था तथा संवाद उसका माध्यम। आज समाज और देश के सरोकार पृष्ठभूमि में जा रहे हैैं। हम अपने उन उत्तरदायित्वों से कटते गए हैैं जो स्वत: हमसे जुड़े थे। हमसे अपेक्षा थी कि हम उनको व्यवहार में लाएंगे, लेकिन बड़े प्रयास से हमने जो संविधान बनाया था उससे छूट लेते गए। पिछले सत्तर वर्षों में हमने इसमें एक सौ तीन संशोधनों को स्वीकार किया है। इनमें कई निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए स्वीकार किए गए।

बापू के सपनों का भारत मनुष्य की बुनियादी संरचना एवं सभ्यता से जुड़ा था

‘हिंद स्वराज’ में वर्णित बापू के सपनों का भारत मनुष्य की बुनियादी संरचना एवं सभ्यता, उसकी आवश्यकताओं और सामाजिक सक्रियता और उत्पादकता से जुड़ा था। आज मोटापा, हृदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप जैसी दिनचर्या से जुड़ी बीमारियों का व्यापक प्रसार सबका ध्यान खींच रहा है। श्रम स्वास्थ्य और उत्पादकता दोनों ही दृष्टियों से आवश्यक है। उसका विनियोग अर्थव्यवस्था के लिए हितकर है। इसीलिए बापू ने शिक्षा में शुरू से ही श्रम और हस्त कौशल को स्थान दिया। हाथ, हृदय और मस्तिष्क के संतुलन वाली नई तालीम का यही उद्देश्य था। शिक्षा जीवनोपयोगी होनी चाहिए। आज शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या को देखकर सभी दुखी और त्रस्त हैं।

गांधी जी परिवर्तनों के साथ जीवनशैली को बदलना चाहते थे

गांधी जी परिवर्तनों के साथ जीवनशैली को बदलना चाहते थे। वे जानते थे कि कहना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि जो चाहते हैं उसे करना ही सही तरीका है। जो परिवर्तन हम चाहते हैं उसे हमें जीना भी चाहिए। हमने संविधान में ऐसी बहुत सारी व्यवस्थाएं बनाईं जिससे सबकी भलाई हो, परंतु उन्हें लागू कर पाने में काफी हद तक नाकामयाब रहे। क्षुद्र स्वार्थों में फंसकर गलत ढंग से लाभ उठाना जायज होता गया। नैतिकता के प्रश्न से परे लगने लगा। आर्थिक भ्रष्टाचार के अनेक रूप पनपने लगे।

आर्थिक उदारीकरण में नियम-कानूनों को ताक में रखकर लोगों ने खूब की कमाई

आर्थिक उदारीकरण में जो भागीदार हुए उसमें कइयों ने नियमों-कानूनों की आंखों में धूल झोंककर अपना ज्यादा से ज्यादा लाभ सुनिश्चित किया। बड़े-बड़े आर्थिक घोटालों की झड़ी लग गई। सरकार सब्सिडी देकर जनता को लुभाती रही। आज एक और प्रवृत्ति विकसित हो रही है कि सरकारें लोगों को सस्ते कर्ज देकर निर्भरता का पाठ पढ़ाकर उनके आचरण को दूषित कर रही हैैं। इसके चक्र में फंस कर किसानों की आत्महत्या के अनेक मामले भी सामने आए हैं। अब तक विकास और प्रगति का लाभ सीमित वर्ग तक था। वर्तमान सरकार ने आम जन से सीधा संपर्क साधा है और गरीबों तक उनके हित को सीधे पहुंचाया है।

आज है अर्थव्यवस्था की जटिल विसंगति

आज की स्थिति एक जटिल विसंगति की है। एक ओर संसाधन घटते जा रहे हैं दूसरी ओर लोभ, संचय, परिग्रह और लिप्सा की भावना दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यथोचित उपभोग की भावना समाप्त होती जा रही है। हम भविष्य की कोई तैयारी नहीं कर रहे हैं। हमारी नजरें तकनीक पर हैं। हम सोचते हैं कि इसके सहारे हम सभी समस्याओं का समाधान कर लेंगे। हम जीवन के अधिकाधिक काम इसके हवाले करते जा रहे हैं।

गांधी जी उचित तकनीक और छोटी मशीनों के पक्षधर थे, लोग तकनीक के दास हो गए

गांधी जी उचित तकनीक और छोटी मशीनों के पक्षधर थे, परंतु अज हम सब तकनीक के दास हुए जा रहे हैं और हाथ, पांव तथा दिमाग से भी पंगु होते जा रहे हैं। गणतंत्र अनुशासन मांगता है, परंतु हम सब अपनी सुविधा के अनुसार व्यवस्था चलाना चाहते हैं।

आज राजनीति का स्वभाव सीमित और संकुचित होता जा रहा

आज राजनीति का स्वभाव सीमित और संकुचित होता जा रहा है। समाज के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का दायित्व बनता है कि वे व्यापक सामाजिक हित को साधने की कोशिश करें और सत्ता का समीकरण साधने में भ्रामक व्याख्याओं तथा अतिवादी आग्रहों के उपयोग से बचें। युवतर हो रहे भारत के सामने ढेरों जन आकांक्षाएं हैं। समानता, बंधुत्व, समरसता का लक्ष्य सामने है और इसके लिए सबको एकजुट होकर काम करना होगा। इस गणतंत्र दिवस पर हम सबको ऐसा संकल्प लेना चाहिए।

( लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं )