हिमाचल प्रदेश, नवनीत शर्मा। COVID-19 Lockdown: एक कहावत है, मुसीबत कभी अकेली नहीं आती। साथ क्या लाती है? भय, दुख, पीड़ा और मानवीय व्यवहार में काफी हद तक बदलाव भी। कोरोना अपने साथ बहुत कुछ लाया है। आíथक, सांस्कृतिक और व्यावहारिक समस्याएं तो लाया ही है, सामाजिक मोर्चे पर भी कुछ असामाजिक सोच इससे उत्पन्न हुई है।

जो अपने ही देश में होकर भी परदेस में थे और घर लौटना चाहते थे, उनके पैरों की दरारें, बदहवास सांसें, मालवाहकों में लद कर जाते उनके चूर हो चुके सपने तो सबने देखे हैं। पटरियों या सड़कों पर यह मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल या हिमाचल प्रदेश नहीं भाग रहे थे। यह देश ही भाग रहा था। दुर्भाग्य है कि लोगों ने उसे विशेष प्रदेश का भागना समझा। लेकिन व्यक्ति अपनी सीमा खुद को ही मान ले तो देश और प्रदेश क्या, जिला, उपमंडल और यहां तक कि पंचायत भी बाहरी हो जाती है। यही आत्मकेंद्रित होना है।

अब जबकि हिमाचल प्रदेश में कोरोना पॉजिटिव मामले फिर बढ़ने लगे हैं, ऐसे कई सवाल टकराते हैं जो शिकायत करते हैं कि शासन, प्रशासन नहीं, एक समाज के तौर पर समाज कितना सामाजिक है। कई दिन की असुरक्षा को जीने के बाद लौटे लोग पॉजिटिव भी तो आ सकते हैं। आ रहे हैं और आएंगे। नेगेटिव भी हो जाएंगे। लेकिन उन्हें देखभाल तो चाहिए। इसीलिए जगह-जगह कुछ अस्पताल नामित किए गए। कोविड अस्पताल या देखभाल केंद्र। यहां उन्हीं का विरोध शुरू हो गया। बहाना अन्य ओपीडी का, लेकिन असली वजह यह डर कि एक भी पॉजिटिव आ गया तो सबको ले डूबेगा। कोरोना पॉजिटिव को दूर से देखेंगे तो कोरोना फैल जाएगा, इससे बड़ी मिथ्या क्या होगी। शारीरिक दूरी का पालन करते रहने से कोरोना नहीं होने वाला। लेकिन दुर्भाग्यवश, उसे ‘सामाजिक दूरी’ में बदल दिया गया है।

दैनिक जागरण के आह्वान पर प्रधानमंत्री भी शारीरिक दूरी कह चुके हैं। लेकिन शासन-प्रशासन से जुड़े कुछ अति विद्वान और विश्वविद्यालयों के कुछ अकादमिक किस्म के लोग भी सामाजिक दूरी की लकीर के फकीर बने हैं। यही कारण है कि कोरोना पॉजिटिव होने और कलंकित होने में अंतर ही नहीं छोड़ा गया। कहां जाते ये लोग? और अगर कल को पॉजिटिव आएंगे या आ रहे हैं तो क्या उन्हें फेंक दिया जाए? इस समय वे रोग से लड़ें या उस हीन भावना से जूङों जो सोशल मीडिया कोरोना का कहर, कोरोना का विस्फोट आदि कह कर उनमें भर रहा है? वन विभाग के विश्रम गृह में क्वारंटाइन सेंटर बन सकता है, अस्पताल नहीं। अस्पताल का मतलब है सुविधाएं। यह ठीक है कि कोरोना को इससे उपजे भय के कारण कुछ अधिक ही लाड़-प्यार मिला, जबकि और भी गम हैं जमाने में कोरोना के सिवा। लेकिन दुश्मन नया हो, विश्व भर को डरा चुका हो, जिसके पैंतरों का पता न हो तो सावधानी बनती है। गूंजते हैं सरवत :

सभी ने तय किया था जिस्म से दूरी बनानी है,

न जाने क्या हुआ इंसानियत से दूर जा बैठे।

ऐसे वक्त पर दबाव समूह बनाने या आंदोलनरत होने का क्या अर्थ है? धर्मशाला अस्पताल को कोविड सेंटर बनाए जाने के विरोध में कुछ राजनेता मौन धारण किए रहे। यह इतिहास में दर्ज होगा। शांता कुमार जैसी हस्ती ने भी कहा कि तपोवन के विधानसभा भवन में बना दें कोविड अस्पताल। आंदोलन करना ही है कि तो कोविड अस्पताल के खिलाफ नहीं, उस प्रवृत्ति के खिलाफ हो जिसमें जनता की मेहनत से जनप्रतिनिधि का कर चुकाया जाता है। अपने नेता को ‘स्वजीवी’ बनाना भी क्या जनता का दायित्व या कर्तव्य नहीं है? लेकिन शायद कुछ अपेक्षाएं और इच्छाएं आड़े आती होंगी। सरकार भी सोचे कि अफसरशाही को चुनाव नहीं लड़ना है, लेकिन जहां वह मददगार है, उसके साथ खड़ी हो। मौन इस अवसर की साधना नहीं, न तबादले करना ही हल है।

एक किस्सा याद आया। एक मुख्यमंत्री थे। उनके चहेते अफसर को मुख्य सचिव बनाने की बारी आई तो सवाल उठा कि फिर मुख्यमंत्री का प्रधान सचिव कौन होगा? उन्होंने कुछ माह पहले संवैधानिक पद पर गए एक और चहेते अफसर को फोन किया कि वही बन जाए। कुछ ही देर में उस पद से त्यागपत्र देकर वह अफसर हाजिर हो गया प्रधान सचिव बनने के लिए। सवाल यह है कि मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव संजय कुंडू, जैसा कि संभावित-प्रस्तावित है, डीजीपी बनते हैं तो ऐसा कोई व्यक्ति है जो मुख्यमंत्री के आदेश पर वैसा ही पद छोड़ कर प्रधान सचिव बन जाए?

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]