डॉ. गौतम कुमार झा। कोविड-19 जैसी महामारी किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महाविपदा की घड़ी बना सकती है। खास कर वे देश जो इस तरह की आपदाओं से निपटने के लिए सजग नहीं हैं, उन्हें नकारात्मक परिणाम ङोलने पड़ सकते हैं। इतना ही नहीं, यह प्रभाव और भी गंभीर हो सकता है, यदि इस तरह की महामारी प्राकृतिक न हो, बल्कि जैविक विधि द्वारा तैयार किए जाने की आशंका हो और कोई देश अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इसका उपयोग कर रहा हो।

कोरोना वायरस के प्रकोप का कारण जो भी हो, प्राकृतिक हो या फिर जैविक विधि से तैयार किया गया हो, इससे पैदा हुई महामारी समाज में बढ़ती हुई विशिष्ट खपत का परिणाम है। अनवरत आवश्यकता की भूख रोज नए-नए उत्पादों को जन्म दे रहा है, जो कभी नहीं रुक सकने वाले समाज में अधिक सुविधा, आर्थिक सुरक्षा और निरंतर बेहतर होने वाली स्थिति एक प्रगतिशील समाज का पर्याय बन गई है। व्यक्तिगत लालच को बड़े विश्वास के साथ नए उत्पादों के प्रसार में परिलक्षित किया जाता है और यह अनजाने में दुनिया के अधिकांश उपभोक्ताओं के व्यावहारिक मनोदशा को नियंत्रित करता है।

इस बीच देश-दुनिया में बन रहे तमाम वैकल्पिक उत्पादों ने उपभोक्तावाद को और बढ़ावा दिया है, क्योंकि ये आकर्षक होने के साथ साथ उपभोक्ताओं के लिए अक्सर भ्रम की स्थिति पैदा करते हैं। वे अपना मूल्यवान समय इस दुविधा में नष्ट कर देते हैं कि उनके लिए कौन सा उत्पाद उपयुक्त है और यही भ्रम की स्थिति अनवरत बढ़ते बाजार के लिए चारा प्रदान करती है। इस प्रकार आवश्यकता और उत्पादन का खेल प्राकृतिक पारिस्थितिकी के समानांतर मानव की एक कृत्रिम इको-प्रणाली बनाता है और बाद में खुद को मानव-पारिस्थितिकी तंत्र के साथ संतुलित करने के लिए संघर्ष करता है, जिसका परिणाम वर्तमान की तबाही है। कोरोना महामारी ने यह साबित कर दिया है कि अभी तक प्राकृतिक और कृत्रिम इको-सिस्टम के बीच संतुलन बनाने का हर मानवीय प्रयास विफल हो रहा है।

पिछले लगभग तीन दशकों से पूरी दुनिया वैश्वीकरण की राह पर थी, जहां हर देश एक-दूसरे की जरूरतों को समझता था और एक सहभागिता के आधार पर व्यापार प्रणाली स्थापित की गई थी। इसके परिणामस्वरूप गरीबी, स्वास्थ्य सुविधा की बेहतरी और विश्व स्तर पर कुछ हद तक बेहतर जीवनशैली का विकास हुआ। हालांकि इन विकासात्मक सूचकांकों को प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर अंजाम दिया गया है। खाद्यान्नों की बढ़ती मांग ने कीटनाशकों की बहुतायत को आमंत्रित किया जो आखिरकार इंसान के शरीर में प्रवेश कर रहे थे। बेहतर स्वास्थ्य देखभाल और कई प्रतिस्थापित दवाओं ने पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को प्रभावित किया। इसी तरह, सुरक्षा और रक्षा संबंधी उत्पादों की मांग ने धरती, हवा और जल को प्रभावित करते हुए उसे गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया, जिससे बढ़ता असंतुलन इस तरह की तबाही में परिलक्षित हुआ है। वैश्विक समुदाय यदि अब भी जागरूक नहीं हुआ, तो इस तरह की प्राकृतिक आपदा की पुनरावृत्ति की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में तो बाकायदा ग्राफ के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि पृथ्वी का जो हिस्सा कम विकसित हुआ है, वहां पर इस तरह की आपदाओं का प्रभाव अपेक्षाकृत कम पड़ता है। यह भी देखा गया है कि देश-दुनिया में जब आज की तरह विकसित तकनीक उपलब्ध नहीं थी, पर वैज्ञानिकों ने इस तरह की महामारियों और प्राकृतिक आपदा पर काबू पा लिया, लेकिन वर्तमान में पैदा हुई कोरोना वायरस जनित महामारी यदि कृत्रिम आपदा है, तो इस पर काबू पाने में कितना समय लगता है, फिलहाल इस बारे में बता पाना सक्षम से सक्षम प्राधिकरणों के लिए मुश्किल बना हुआ है।

कोरोना महामारी के कारण आर्थिक क्षति और इसका दूरगामी प्रभाव अनंत है। हालांकि मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में इन सभी खतरों के बीच, राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। अभी तक दुनियाभर में जितनी भी कोरोना की विभीषिका हुई है, उसमें रक्षा समुदाय को बहुत अधिक नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या होगा अगर एक देश अपने निजी स्वार्थ के लिए दूसरे देश के खिलाफ इसका प्रयोग करे या फिर कोई आतंकी संगठन इसे जैविक हथियार के रूप में इस्तेमाल करे?

लगभग दो दशक पहले अमेरिका की धरती पर हुए ऐतिहासिक आतंकी हमले ने वैश्विक समुदाय के सुरक्षा ढांचे को फिर से परिभाषित किया और उसके बाद से कमोबेश हर देश की सुरक्षा को आतंकवाद के खतरों की आशंका के लिहाज से देखा जा रहा है। कोविड के वर्तमान प्रकोप के संदर्भ में पूरी स्पष्टता के साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि यह प्रयोगशाला निर्मित जैविक हथियार नहीं है। इस तरह के जैविक हथियार को एक देश का दूसरे पर इस्तेमाल करना नकारा नहीं जा सकता है। इसलिए विश्व समुदाय के बहुमत द्वारा कोरोना वायरस के परिणामों का सामना करने के रूप में, फिर से एक वैकल्पिक शक्ति को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है, जिसके लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन की तरह एक वैश्विक शक्ति संगठन का निर्माण किया जाए, जो संयुक्त राष्ट्र को पुनर्परिभाषित कर सकता हो और वैश्विक सुरक्षा को मानव कल्याण के हित में एक स्थायी तटस्थ संघ की स्थापना करे, ताकि भविष्य में ऐसी महामारी की पुनरावृत्ति नहीं हो।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]