[उदय प्रकाश अरोड़ा]: पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2009 में काहिरा विश्वविद्यालय में मुस्लिमों के बारे में कहा था कि ‘वह इस्लाम था जिसने कई सदियों तक अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते हुए यूरोप में पुनर्जागरण युग को जन्म दिया। यह मुस्लिम समुदाय की ही कुछ नया करने की लगन थी जिसने कुतुबनुमा, नौकायान संबंधी उपकरण और अनेक रोग निवारक औषधियों को विकसित कर यूरोप में पहुंचाया। संगीत, काव्य, वास्तु कला को बढ़ावा दिया। ज्ञान की इस प्रगति के पीछे सहिष्णुता और समानता का सिद्धांत रहा है, जिसकी इस्लाम में एक लंबी परंपरा है। यह अरबों के माध्यम से ही संभव हुआ कि यूनानी, भारतीय और चीनी ज्ञान का यूरोप में प्रवेश हो सका।’ बराक ओबामा ने इस्लामी संस्कृति की प्रशंसा में जो कुछ कहा वह संस्कृति आज कहां है? इस्लाम की संवाद संस्कृति क्यों नहीं आगे बढ़ सकी? कहां ज्ञान-विज्ञान में विकसित इस्लामी युग और कहां आज की हिंसक उथल-पुथल।

पुलवामा हमले के लिए जिम्मेदार इस्लामी संगठन जैश-ए-मुहम्मद का लक्ष्य है इस्लामी सत्ता की स्थापना। उसके जिहाद की शुरुआत कश्मीर से होगी जिसे वह भारत का द्वार मानता है। उसका लक्ष्य कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाना है। भारत में हिंदुओं और गैर मुस्लिमों को परास्त कर वह इस्लामी राज्य की स्थापना करना चाहता है। भारत के बाद जैश अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों को अफगानिस्तान से बाहर करने की भी बात करता है। अपने कुत्सित इरादों को सफल बनाने की दिशा में जैश ने जगह-जगह हिंसात्मक हमले किए हैं। 2001 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा और भारतीय संसद पर हमला किया।

2016 में पठानकोट एयरबेस और भारतीय मिशन मजार-ए-शरीफ पर हमला किया। उसने पाकिस्तान में रहने वाले ईसाई समुदाय को भी उत्पीड़ित किया है। पुलवामा हमला जिसमें 44 भारतीय जवान शहीद हुए जैश-ए-मुहम्मद की सबसे बड़ी हिंसात्मक कार्रवाई थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आतंकियों के रूप में कश्मीरी युवकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार पहले आतंकी युवकों की भर्ती घाटी के बाहर से की जाती थी, किंतु अब इसमें स्थानीय लोगों की संख्या बढ़ने लगी है। 2017 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार तीन दिन में घाटी का औसतन एक युवक आतंकी हो जाता है। आखिर इस आतंकवाद की जड़ें कहां हैैं? नोम चोम्स्की का मानना है कि बुरे और विध्वंसकारी कार्यों के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। इसके विपरीत एलमंड बर्क के सिद्धांत को मानने वाले कहते हैैं कि शैतान का कोई तर्क और विवेक नहीं होता। हिटलर, मुसोलिनी, पोलवॉट, स्टालिन और माओ ने जो लाखों-लाख निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतारा उसके पीछे क्या विवेक था?

आज पढ़े-लिखे युवक आइएस का अनुकरण कर रहे हैैं। जैश सरीखे संगठनों में वर्चस्व मदरसे से निकले उन युवकों का है जो आतंक को धर्मयुद्ध समझकर उसे जन्नत जाने का साधन मानते हैं। इस भ्रांतिपूर्ण विचारधारा की जड़ें हैैं वहाबी इस्लाम में जिसे सऊदी अरब की सत्ता ने पोषित किया। आज इस्लाम में लड़ाई केवल शिया और सुन्नी के बीच ही नहीं, बल्कि इन संप्रदायों से जुड़े विभिन्न पंथों के बीच भी चल रही है। वहाबी, सलाफी आदि केवल अपने को ही सही इस्लाम और दूसरे को इस्लाम की विकृति के लिए जिम्मेदार मानते हैं। आतंकी संगठन आइएस और सऊदी सत्ता, दोनों ही वहाबी पंथ से जुड़े हैैं।

अमेरिका एक ओर तो आइएस से लड़ रहा है वहीं दूसरी ओर उसी वहाबी विचार के पोषक सऊदी शासकों के साथ दोस्ती कर रहा है। यह अजीब है कि जिस आतंकवाद को आप खत्म करना चाहते हैं उसी विचारधारा की पोषक सत्ता से आप दोस्ती कर रहे हैं? आतंकवाद से लड़ने में ओबामा इसलिए असफल रहे, क्योंकि सऊदी सत्ता की वहाबी विचारधारा के साथ-साथ पाकिस्तान की आतंकपरस्ती को चुनौती नहीं दे पाए। पाकिस्तान में जैश और लश्कर समेत अन्य तमाम आतंकी संगठन आज भी पल रहे हैैं। वे भारत के साथ-साथ अफगानिस्तान और ईरान के लिए भी खतरा हैैं।

आज जरूरत इस बात की है कि जिहादी आतंकवाद और कट्टरवाद के विरुद्ध आवाज स्वयं मुस्लिम समाज के भीतर से उठे और वहाबी विचारधारा को खत्म किया जाए। नि:संदेह ऐसा नहीं है कि जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध मुस्लिम समाज नहीं बोल रहा है। हर देश में ऐसे संगठन सक्रिय हैैं। अपने देश में बरेली के शरीफ आला हजरत के प्रमुख मुफ्ती ने देवबंदियों के साथ मिलकर फतवा जारी किया कि आतंकवादियों का आचरण कुरान के खिलाफ होने के कारण उन्हें मुसलमान नहीं माना जा सकता। उनकी मौत पर न कब्र बनेगी और न ही जनाजे की नमाज पढ़ी जाएगी।

फतवे में आतंकी संगठनों के साहित्य को गैर-इस्लामी घोषित किया गया। इतना ही नहीं, आला हजरत की देखरेख में चलने वाले मदरसे में ‘इस्लाम एवं आतंकवादी’ शीर्षक से एक नया पाठ्यक्रम जोड़ा गया। यह ऐसा कदम है जिसकी अपेक्षा एक लंबे समय से की जा रही थी। दिल्ली में देशभर से इकट्ठे हजारों उलेमा की उपस्थिति में भी आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी किया जा चुका है। फतवे में स्पष्ट रूप से कहा गया कि इस्लाम और जिहाद के नाम पर दुनिया में जितने भी संगठन बने हुए हैैं वे सब कुरान एवं हदीस के उसूल और कानून के खिलाफ हैैं।

आतंकवाद और मुस्लिम समाज की सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने में मुस्लिम महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, इंडोनेशिया और मलेशिया में अनेक मुस्लिम महिला संगठन कट्टरवाद के विरुद्ध काम कर रहे हैं। पाकिस्तान सरकार भले ही आतंकवादियों को पनाह देती हो, पर वहां के कुछ संगठन कट्टरवाद और आतंकवाद के विरुद्ध संघर्षरत हैं। दरअसल ऐसे ही संगठनों का संघर्ष पाकिस्तान के लिए एक बड़ी उम्मीद है। यही संगठन हैं जो पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैैं। यदि ऐसे संगठनों को दुनिया भर का साथ मिल सके तो आतंकवाद के खिलाफ अभियान को सही तरह से आगे बढ़ाया जा सकता है।

पश्चिम को यह समझना होगा कि उसे पाकिस्तान और सऊदी अरब के शासकों के बजाय इन देशों की उस जनता के साथ खड़े होने की जरूरत है जो जिहादी विचारधारा के विरोध में सक्रिय है। उन्हें यह भी समझना होगा कि जब तक हिंसक विचारधारा को पाकिस्तान जैसे देश संरक्षण देते रहेंगे तब तक आतंकी पैदा होते रहेंगे। इस्लाम को आतंकवाद से अलग करने के लिए मुस्लिम समाज को आगे बढ़कर अपनी आवाज बुलंद करने की जो जरूरत है उसमें पूरी दुनिया को सहायक बनना चाहिए।

( लेखक जेएनयू के पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर हैैं )