वाटरप्रूफ तंबुओं में बैठे समर्थ किसानों के अड़ियल तेवरों के बीच गुम हुए 'छोटे किसानों' के आवश्यक मुद्दे
इन बड़े किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का जितना महत्व है उतना ही महत्वपूर्ण सीमांत गरीब किसान के लिए न्यूनतम मजदूरी की दर होती है। सीमांत किसान मजदूर भी होता है। उसके खेतों से खाने भर का काम चलता है।
[आर विक्रम सिंह]। सर्वोच्च न्यायालय ने नए कृषि कानूनों पर अमल को रोकने का बड़ा फैसला लिया है, लेकिन किसान नेताओं ने उसे महत्व नहीं दिया। उन्होंने अदालत द्वारा गठित समिति को जिस तरह ठुकराया उससे यही लगता है कि किसान आंदोलन का वास्तविक लक्ष्य कृषक समस्याओं का समाधान नहीं। अन्यथा उनकी मांगों के आगे देश के 85-86 प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसानों की समस्याओं को खारिज न कर दिया जाता। स्मरण रहे कि किसी भी आर्थिक गतिविधि के समान कृषि का भी आधारभूत आर्थिक फार्मूला मांग और आपूर्ति का ही है।
क्या कृषि आर्थिक शक्तियों से महरूम होकर मात्र सरकारी क्रय-मूल्य निर्धारण, खरीद व सब्सिडी की अस्वाभाविक सी नींव पर स्थिर खड़ी हो सकती है? सरकार भी कुल उपज का लगभग सात से नौ प्रतिशत तक ही खरीदती है और वह भी मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में। ऐसे में प्रश्न यही है कि शेष उपज कहां जा रही है? जाहिर है कि मंडी के आढ़तियों के पास। दूसरा विकल्प ही नहीं है। नए कृषि कानूनों के माध्यम से जब कृषि उपज के खरीदार बढ़ेंगे तो आढ़तियों का एकाधिकार टूटेगा। किसानों को ही बेहतर मूल्य मिलेगा। यानी किसानों का फायदा तय है। फिर आखिर किस बात के लिए इन नए कानूनों का विरोध किया जा रहा है। ऐसे में स्वाभाविक है कि जिन सीमांत किसानों का इससे फायदा होना है वे इस आंदोलन में भागीदार ही नहीं हैं। खेतिहर मजदूर भी साथ नहीं हैं। यह कुछ बड़े अभिजात्य किसानों की ही मुहिम बनकर रह गई है। अन्यथा क्या कारण है कि मजदूरी की न्यूनतम दर जैसे मुद्दों पर इसमें कोई बात क्यों नहीं हो रही।
सीमांत गरीब किसान के लिए महत्वपूर्ण होती है न्यूनतम मजदूरी की दर
विद्यार्थियों के लिए बड़े किसानों के इस आंदोलन की प्रक्रिया और उनके लक्ष्यों को समझने का यह एक अवसर भी है। वह यह कि किस प्रकार वर्गीय हित को सामाजिक हित में परिभाषित करने का विमर्श चलाया जाता है। अभिजात्य वर्ग अपने हित में ही उसे संचालित करते हैं। इन बड़े किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का जितना महत्व है उतना ही महत्वपूर्ण सीमांत गरीब किसान के लिए न्यूनतम मजदूरी की दर होती है। सीमांत किसान मजदूर भी होता है। उसके खेतों से खाने भर का काम चलता है।
नियमित मजदूरी अक्सर कृषि की आय से होती है अधिक अहम
यह कृषक व मजदूर-कृषक का आधारभूत अंतर है। मंडियों से मजदूर-कृषक का खास मतलब नहीं है। सरकारी योजनाओं, मनरेगा को छोड़ दें तो क्या सरकारी रेट से तय मजदूरी उसे मिल पाती है? इसका जवाब है-नहीं। मजदूरी तो बाजार और मांग से तय होती है। भूमिहीन मजदूर गांवों से अक्सर पलायन कर जाते हैं। जो हैं भी वे मामूली खेती और मजबूरी में मजदूरी ही करते हैं। रोपाई-कटाई का प्रति बीघा रेट तो सरकार तय करती नहीं। उसके लिए नियमित मजदूरी अक्सर कृषि की आय से अधिक अहम हो जाती है। देश में औसत जोत 1.5 से 2 एकड़ है, यानी एक हेक्टेयर से भी काफी कम। पंजाब में जहां औसत जोत का आकार पांच-छह हेक्टेयर और हरियाणा में करीब तीन हेक्टेयर है वहां अधिशेष दिखता है। वहीं ये ट्रैक्टरों वाले जुलूस निकलते हैं। वहीं बड़े किसानों के बीच आढ़ती पलते हैं। पंजाब और हरियाणा में तो किसानों के तमाम नेता हैं, पर बिहार और पूर्वांचल में छोटे किसानों-मजदूरों का नेता कौन है? नेतृत्व विहीनता भी छोटे किसानों का एक बड़ा संकट है।
देश के 85-86 फीसद मजदूर-कृषकों की परवाह किसे ?
छोटे एवं सीमांत किसान जो खेती और मजदूरी के बीच झूलते रहते हैं, उनकी बात टिकरी से सिंघु तक वाटरप्रूफ तंबुओं में बैठे समर्थ किसानों के तेवर में गुम हो गई है। जहां आदमी से ज्यादा ट्रैक्टर और बड़ी गाड़ियां आई हों, जहां सरकार को औकात बताने, कानून वापसी तक सड़क जाम रखने, दिल्ली दंगों के आरोपितों को छुड़ाने की बातें हों, वहां भला देश के 85-86 फीसद मजदूर-कृषकों की परवाह किसे होगी? देश की जीडीपी में कृषि की भागीदारी 16 प्रतिशत है जबकि उस पर निर्भर आबादी करीब 58 प्रतिशत है। यानी आधे से अधिक आबादी का योगदान मात्र 16 प्रतिशत है। इससे स्पष्ट है कि अभिजात्य सुविधाभोगी कृषक वर्ग समाधान के प्रति सजग न होकर शासकीय नीतियों को वर्गीय हितों की पूर्ति हेतु उपयोग करना चाहता है। वैसे भी हमारी अतिरिक्त उपज का निर्यात संभव नहीं, क्योंकि उनके दाम अंतरराष्ट्रीय कीमतों से करीब 17 प्रतिशत अधिक हैं।
कृषकों की व्यावहारिक सहकारिता को भी देना होगा मूर्त रूप
ऐसे में बड़ा प्रश्न यही है कि सीमांत कृषि को लाभप्रद कैसे बनाया जाए? इसका जवाब है मंडियों से मुक्ति व वैकल्पिक कृषि। इस दिशा में प्रस्थान प्रारंभ हो गया है। जैसे केले के खेत, मशरूमों के झोपड़े बहुत दिखने लगे हैं। जड़ी-बूटियों, बागवानी के प्रति रुझान बढ़ रहा है। इस दिशा में पहला कार्य तो गहन कृषि व कृषि विविधीकरण का है। जब तक गेहूं-धान का स्थायी क्रम तोड़कर फसल चक्र नहीं बदलेगा तब तक छोटे खेतों के लिए मशीनी तकनीकी के विकास का सक्रिय प्रयास नहीं होगा। हमें कृषकों की व्यावहारिक सहकारिता को भी मूर्त रूप देना होगा। इसके साथ ही जब तक कृषक कृषि के साथ अपने खेत पर मत्स्य- तालाब, पशुपालन, बागवानी, सब्जी की खेती को जोड़ने का मन नहीं बनाएगा, तब तक किसी सरकार के पास कृषि क्षेत्र की समस्या का समाधान नहीं होगा।
ग्रामीण बस्तियों में बड़े पैमाने पर छिपी होती है बेरोजगारी
हमारी ग्रामीण बस्तियों में बड़े पैमाने पर छिपी हुई बेरोजगारी होती है। इसका निदान भी वैकल्पिक खेती में ही निहित है। वह किसान से अपने खेत को ही अपना निवास बनाने की अपेक्षा करती है। क्या बस्ती के बीच आपके घर पर उपलब्ध सीमित स्थान में सब्जी लगाना, मुर्गी, बकरी और गाय पाल सकना संभव है? क्या वहां आप वृक्ष लगा सकते हैं? क्या वहां से अपनी खेती की 24 घंटे निगरानी कर सकते हैं? क्या वहां तालाब बनाकर मछली पालन सोच भी सकते हैं? बिल्कुल नहीं। यह सब आप तब कर सकते हैं जब आपका घर आपके खेत पर हो। खेत पर आवास होने से स्त्रियां भी कृषि कार्यों में बराबर भागीदारी कर सकेंगी जो गांव के बड़े मजरों में संभव नहीं है।
अब यह परिवर्तन तो छोटे एवं सीमांत किसानों को ही लाना है। सरकार चाहे तो खेत में घर बनाने की योजना पर छूट अनुदान का प्रबंध कर सकती है। अपने खेत पर घर बनाना एक गुणात्मक परिवर्तन होगा जिसमें छोटे किसानों का जीवन बदलने की क्षमता है। बड़े किसानों को भले ही अपने हितों के लिए राजनीति करनी हो, लेकिन सीमांत किसानों को अपने सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग कर अपनी जिंदगी बदलनी है। हमें अवसरों की और नए विकल्पों की तलाश है। यही विकल्प हमें आत्मनिर्भरता को ओर ले जाते हैं।
(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)
[लेखक के निजी विचार हैं]