[ कृपाशंकर चौबे ]: फिनलैंड में ट्रैक एंड फील्ड विश्व चैैंपियनशिप के चार सौ मीटर मुकाबले में भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक जीतकर देश को गौरवान्वित करने वाली हिमा दास की अंग्रेजी पर टिप्पणी करने के बाद खेद जताने के साथ ही मामले को खत्म मान लिया गया, लेकिन इस पर विचार की जरूरत है कि आखिर इतनी बड़ी उपलब्धि के बाद भी अंग्रेजी ज्ञान पर गौर क्यों किया गया? इस सवाल पर व्यापक विचार-विमर्श इसलिए जरूरी है, क्योंकि तभी उस मानसिकता को दूर किया जा सकता है जिसके तहत अपने देश में अंग्रेजी में दक्षता विशिष्टता का पर्याय बन गई है।

दुनिया में बहुत से ऐसे खिलाड़ी, कलाकार और यहां तक कि लेखक हैैं जो अंग्रेजी में दक्ष नहीं, लेकिन उनकी कमजोर अंग्रेजी कभी मुद्दा नहीं बनती, लेकिन भारत में ऐसा खूब होता है। यह अंग्रेजी से उपजी अंग्रेजियत का दुष्परिणाम है। हिमा दास की अंग्रेजी पर जिस तरह गौर किया गया उससे यही पता चलता है कि अपने देश में अंग्रेजी किस तरह व्यक्तित्व विकास में एक बड़ी बाधा है।

हिमा दास के लिए अंग्रेजी में दक्ष होना इसलिए बिल्कुल भी जरूरी नहीं, क्योंकि उनका काम अंग्र्रेजी बोलना नहीं, बल्कि ट्रैक पर दौड़कर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना है। उन्होंने फिनलैैंड में यही किया। वह पहली ऐसी धावक बनीं जिन्होंने किसी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में स्वर्ण पदक हासिल किया। एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ इंडिया ने ट्वीट कर इस उपलब्धि के लिए हिमा को बधाई जरूर दी, किंतु उनके धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल पाने का उल्लेख भी किया। उस ट्वीट की जब आलोचना हुई तो फेडरेशन ने उस पर खेद जताया। इस खेद के बाद भी यह तो पता चल ही गया कि अपने देश में अंग्रेजी अभी भी श्रेष्ठता का परिचायक बनी हुई है और लोगों की बड़ी से बड़ी उपलब्धि को अंग्रेजी के चश्मे से आंका जाता है।

असम के नगांव जिले के कंडोलीमारी गांव के एक अत्यंत साधारण परिवार से आने वाली हिमा दास ने पूरे विश्व में असम और भारत का मान बढ़ाया। शायद खुद की अंग्रेजी पर गौर किए जाने के कारण ही हिमा ने यह कहा कि वह धाराप्रवाह अंग्रेजी भले न बोल पाती हो, किंतु आइएएफ विश्व अंडर 20 एथलेटिक्स चैंपियनशिप में अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास किया। जाहिर है कि तभी 400 मीटर में स्वर्ण पदक जीतने वाली वह पहली भारतीय बनीं। हिमा को धाराप्रवाह अंग्रेजी न आने का कोई अफसोस नहीं है तो इसीलिए कि एथलीट के लिए वह न तो कोई आवश्यकता है और न ही कोई मानदंड।

हिमा को अपनी मातृभाषा, अपनी संस्कृति और अपने देश से कितना प्रेम है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि खिताब जीतने के बाद वह न तिरंगा भूलीं और न ही असमिया गमछा। हिमा उस प्रदेश से आती है जहां मातृभाषा प्रेम के लिए शहादत की ऐतिहासिक घटना हुई थी। असम के सिलचर में राज्य की सरकारी भाषा के रूप में असमिया के अलावा बांग्ला को भी शामिल करने की मांग को लेकर 1961 में आंदोलन हुआ था। सिलचर रेलवे स्टेशन पर 19 मई 1961 को आंदोलनकारियों पर पुलिस ने गोली चलाई थी जिसमें 11 लोग मारे गए थे। उसके बाद हर साल असम में 19 मई को भाषा दिवस मनाया जाता है।

इतिहास में प्रेम और देश के लिए शीश चढ़ाने के कई उदाहरण मिलते हैं, किंतु मातृभाषा के लिए शीश चढ़ाने की विरल घटना सिलचर में हुई थी। वैसी ही घटना पड़ोसी देश बांग्लादेश में भी हुई थी। बांग्ला भाषा के मान की रक्षा के लिए ढाका में 21 फरवरी 1952 को चार लोग शहीद हुए थे। उसके बाद विश्व भर में मातृभाषा प्रेमी खासकर बांग्लाभाषी उस दिवस को भाषा शहीद दिवस के रूप में मनाकर भाषा-शहीदों का स्मरण करते हैं। भाषा दिवस और मातृभाषा दिवस असम, बंगाल, त्रिपुरा और बांग्लादेश में एक गहरे नैतिक आवेग के साथ मनाया जाता है। बांग्लादेश के लेखक महबूब उल आलम चौधरी ने ढाका की घटना पर कविता लिखी थी-‘रोने नहीं आया हूं, फांसी की मांग लेकर आया हूं।’ हसन हफीजुर्रहमान की कविता का शीर्षक ही है-‘अमर इक्कीस।’ अब्दुल गफ्फार चौधरी का गीत है-‘मेरे भाइयों के रक्त में रंगी इक्कीस फरवरी।’

गौरतलब है कि 21 फरवरी 1952 को ढाका मेडिकल कॉलेज के उस प्रांगण में लोगों का तांता लग गया था, जहां लोग भाषा शहीद हुए थे। शहादत स्थल पर जमा लोगों ने रातोंरात एक शहीद मीनार भी बनाई थी। भारी संख्या में हर भाषा, संप्रदाय, धर्म के लोगों के जुटने से एक शक्ति बन गई। शोक ने बांग्ला भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए शक्ति जुटाने का काम किया। 21 फरवरी हर बांग्लाभाषी के जीवन संग्राम की प्रेरणा का प्रतीक बन गया और स्नोत भी। भाषा से संस्कृति, संस्कृति से स्वायत्तता और स्वायत्तता से स्वाधीनता की मांग उठी। इस तरह पूर्वी पाकिस्तान के भाषा आंदोलन ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का रूप लिया और विश्व के मानचित्र पर एक नए देश का उदय हुआ।

भाषा शहीद दिवस और भाषा दिवस से प्रेरणाएं लेने के लिए बहुत कुछ है। इन दिवसों की प्रेरणाएं अपनी भाषा, साहित्य-कला-संस्कृति के प्रति सच्चे प्रेम के रूप में हो सकती हैं। भारत की आधी से अधिक आबादी हिंदी भाषियों की है। भारत में हिंदी भाषी दस राज्य हैं, किंतु उस समाज में अपनी भाषा, साहित्य-कला-संस्कृति के प्रति सच्चे प्रेम का अक्सर अभाव दिखता है। हिंदी समाज में अपनी भाषा से सच्चे मन से प्रेम करने वाले होते तो हिंदी समाज जातियों में नहीं बंटा होता। साहित्य-कला-संस्कृति क्या हिंदी पट्टी के शिक्षित समाज के संस्कार का हिस्सा बन पाई है? जबकि हिंदी पट्टी में अनेक अनपढ़ लोगों में कला-संस्कृति का संस्कार बचा हुआ है। वे अनपढ़ लोग लोकगीत गाते हैं, लोक नृत्य करते हैं, नाटक खेलते हैं।

हिंदी पट्टी के सांस्कृतिक विकास की विडंबना है कि वहां जन संस्कृति की अनवरत उपेक्षा की गई है। पाठन वृत्ति और जिज्ञासु भाव को किनारे होने दिया गया है। पढ़ने का संस्कार परिवार में रोपा जाता है, फिर स्कूल-कॉलेज में उसे सींचा जाता है, पर क्या ऐसा हो रहा है? बांग्लाभाषी जिस तरह अपनी भाषा के सांस्कृतिक नायकों को सिर आंखों पर बिठाते हैं, वैसा हिंदी समाज के लिए अभी स्वप्न जैसा है। मातृभाषा को अपने समाज में पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए बहुस्तरीय प्रयास करने होंगे। हिंदी के जातीय तत्वों को पुनर्गठित करने और अपनी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए दूसरा कोई पथ नहीं है। कोई भाषा ही उस भाषाभाषी समाज की आशा होती है।

[ लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में प्रोफेसर हैं ]