जगमोहन सिंह राजपूत। आज देश की राजनीति किन रोगों से ग्रस्त हो गई है, उनसे कोई अपरिचित नहीं है। जिस देश की संविधान सभा की अध्यक्षता डा. राजेंद्र प्रसाद जैसे मनीषी ने की हो, जिसके स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया हो, उसमें यह कल्पनातीत होना चाहिए कि उसके अधिकांश चयनित प्रतिनिधि अपने मूल उत्तरदायित्व भुला चुके होंगे। उनका सारा ध्यान अपने, अपने परिवार, अगले चुनाव जीतने पर केंद्रित हो जाएगा। सिद्धांतों और नैतिकता पर चर्चा करने तक का समय उनके पास नहीं होगा। क्या यह उचित नहीं होता कि देश की संसद और विधानसभाएं ‘सत्याग्रह तथा नैतिकता’ जैसे विषयों पर गहन संवाद करतीं, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का आशय समझने का प्रयास करतीं।

शाहीन बाग और किसान आंदोलन के औचित्य-अनौचित्य से परे भी एक विचारणीय पहलू था। वह यह कि इनसे लाखों लोगों को जो घोर कष्ट हुआ, व्यवसाय में व्यवधान पड़ा, भूखों मरने की नौबत आई, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? सामान्य नागरिक को सरकार की ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय तक की निरीहता पर कष्ट हुआ। देश के वे राजनेता और राजनीतिक दल जो अपने को गांधी जी की विरासत का उत्तराधिकारी घोषित करते रहते हैं, वे यह बताने का साहस नहीं कर सके कि सत्याग्रही आंदोलनकारी कभी भी व्यक्ति और देश की हानि स्वीकार नहीं कर सकता। साफ दिखता है कि गांधी जी के सिद्धांतों और वचनों से आज की राजनीति कितनी दूर चली गई है।

गांधी जी के अनुसार, ‘अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुंदर वस्तु है, लेकिन राग-द्वेष, अज्ञान और अंधविश्वास आदि दुगरुणों से ग्रस्त जनतंत्र अराजकता के गड्ढे में गिरता है और अपना नाश खुद कर लेता है।’ जाहिर है यह समय चेत जाने का है। राष्ट्र की कितनी ही ऊर्जा केवल अपनी-अपनी दलगत राजनीति को चमकाने और चुनाव जीतने में व्यय हो रही है। इसका एक चौथाई भाग भी यदि सभी राजनेता और राजनीतिक दल जनसेवा में लगाएं तो जनतंत्र जागृत होगा, जनजीवन में नैतिकता भी स्वत: ही अपना स्थान पा सकेगी।

अनेक अवसरों पर विद्वत-वर्ग इस विषय पर चर्चा करते हैं कि सबसे प्राचीन गणतंत्र भारत में ही था। उनमें वैशाली और लिच्छवी जैसे गणतंत्र का नाम आवश्यक रूप से लिया जाता है। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि भारत जनतंत्र की जननी है। हालांकि, देश में जनतंत्र का जो स्वरूप आज व्यावहारिक स्तर पर उभरा है, वह उस कल्पना से तो निश्चित ही मेल नहीं खाता, जिसकी संकल्पना स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी, जिसके लिए अनगिनत लोगों ने त्याग और बलिदान दिए थे।

आज भारत एक जागृत जनतंत्र है, जिसकी अनेक उपलब्धियां हैं, मगर यह भी सत्य है कि आज के युवाओं के समक्ष जो स्थितियां उभरी हैं, वे आजादी के दीवानों की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती हैं। उन्हें इसे समझना और सुधारना है। 1947 में देश ने स्वतंत्रता पाने का समारोह मनाया, मगर जो विस्थापन और हिंसा उस समय लाखों परिवारों ने झेली, वह इतिहास का एक ऐसा सबक है जिसे भारत की हर पीढ़ी को जानना चाहिए। उसे इस तथ्य को भी पहचानना, समझना और स्वीकार करना आवश्यक है कि भारत का वास्तविक इतिहास केवल स्वतंत्रता के पहले के शासकों द्वारा ही विकृत नहीं किया गया, बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी और आज तक वह वामपंथी मानसिकता का बंधक बना है।

1999-2000 में एक प्रयास किया गया था कि जो तथ्य वैज्ञानिक आधार पर उपलब्ध हुए हैं, उन्हें अब पुस्तकों में लाया जाए। इतिहास में जो तथ्य तोड़े-मरोड़े गए हैं, उन्हें वैचारिक जकड़न से मुक्त किया जाए। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। पिछले दिनों जब यह चर्चा चली कि भारत विभाजन की विभीषिका को भावी पीढ़ियों को जानना चाहिए और उन स्थितियों के प्रति सतर्क रहना चाहिए जिससे वे भविष्य में पुन: निर्मित न हो सकें तो उसका विरोध करने वाले सामने आए। उन्हें इसमें सांप्रदायिकता तक दिखाई दे गई। इसी तरह का रवैया वीर सावरकर के बारे में कुछ नए तथ्य सामने आने पर दिखाया गया। तथ्य यह है कि भारत-विभाजन और उसके पहले और बाद का इतिहास अभी भी वस्तुनिष्ठ ढंग से लिखा जाना है।

राजनीति प्रेरित पंथनिरपेक्षता के नाम पर भावी पीढ़ियों को तथ्यात्मक इतिहास से वंचित करना अब बंद होना ही चाहिए। जनतंत्र की शक्ति तो विद्वत वर्ग की वैचारिक पवित्रता में निहित होती है। यह उन्हीं का उत्तरदायित्व है कि वे जनतंत्र की जड़ें मजबूत करें। ऐसा वे लोग कतई नहीं कर सकेंगे, जो सत्ता के निकट पहुंचने के लिए लगातार प्रयत्नशील बने रहे, उसके कृपापात्र बने रहे और अपनी निष्पक्षता का उत्तरदायित्व भूल गए। दुर्भाग्य से भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभ से ही एक बड़ा वर्ग इसी में लिप्त रहा। जिस नैतिकता को भारत के प्रजातंत्र की आधारशिला बनाना था, वह धीरे-धीरे कमजोर होती गई। आज यदि देश में दो स्थानों पर एक ही जैसी हत्याएं होती हैं, तो उन पर प्रतिक्रिया भी चुनावों पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखकर दी जाती है।

संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने सभा में 26 नवंबर, 1949 को एक ऐतिहासिक भाषण दिया था। इसमें उन्होंने यह कहा था कि संविधान में जो भी व्यवस्था की गई हो, उसका क्रियान्वयन तो उसे लागू करने वाले लोगों पर निर्भर करेगा। यदि चयनित प्रतिनिधि योग्य, चरित्रवान तथा ईमानदार होंगे तो वे एक त्रुटिपूर्ण संविधान का भी सर्वोत्तम उपयोग कर सकेंगे, लेकिन यदि उनमें इन तीनों गुणों की कमी होगी तो संविधान भी कोई मदद नहीं कर सकेगा। अब इस कार्य को पूरा करने का दायित्व नई पीढ़ी को ही उठाना पड़ेगा।

(लेखक शिक्षा और सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं)