आज प्रत्येक व्यक्ति दुखी है। उसकी स्वाभाविक मुस्कुराहट कहीं गुम हो गई है। हर चेहरा उदास, गमगीन व चिंतित दिखलाई पड़ता है। वह हंसने का प्रयास तो करता है, लेकिन अस्वाभाविक हंसी उसकी पोल खोल देती है। अब हंसने का कोई कारण तो होना चाहिए। बेदिली की हंसी से उसे राहत नहीं मिलती। तभी तो मनुष्य के अंदर का दर्द कहीं न कहीं से बाहर छलक ही पड़ता है। ये दुख तकलीफ मनुष्य के जीवन में क्यों हैं। क्यों मनुष्य से ये नाता जोड़े रहते हैं? क्यों नहीं इनसे पीछा छूट पाता। सर्वप्रथम दुखों के मूल कारण को जानना होगा तत्पश्चात उनसे छूटने के उपायों पर विचार करना होगा।
अविद्या से उत्पन्न अज्ञान ही मनुष्य के दुखों का मूल कारण है। इसी अविद्या रूपी अंधकार के कारण हम बार-बार इस जगत रूपी दुखालय में आकर फंस जाते हैं। हमें सत्य दिखलाई नहीं पड़ता। इस दृश्यमान जगत को ही सत्य मानकर उसको पकड़ लेने की चेष्टा करना ही दुखों के भंवर जाल में फंसने का कारण बन जाता है। सांसारिक चकाचौंध व भौतिकता के इस साम्राज्य में अपने निज स्वरूप को मनुष्य भुला बैठा है। आज दृश्यमान भौतिक जगत रूपी छाया रूपी माया को पकड़ लेने की होड़ सी मच गई है। याद रखें, हर चमकती चीज सोना नहीं होती। बाहरी चमक-दमक हमें इंद्रिय लोलुप बना रही है। आज ऐसी सोच स्थापित हो गई है कि किसी प्रकार से भी भौतिक साधन संपन्न बनकर इंद्रिय सुख का भरपूर भोग करने में सक्षम हो जाया जाए। इंद्रियों को किस प्रकार तृप्त किया जाए। बस इसी को प्रधानता दी गई है। भौतिक संसाधनों से इंद्रिय सुख प्राप्त कर लेने की यह लालसा जीव को दुखों के जाल में फंसा देती है। अब दुखों से छुटकारा पाने के लिए इस अविद्या रूपी अंधकार को हटाकर ज्ञान के प्रकाश में रास्ता ढूंढ़ निकालना होगा। ज्ञान रूपी प्रकाश में हमें आगे बढ़ना होगा। सर्वप्रथम हमें मनुष्य जीवन क्यों प्राप्त हुआ है और इसकी सार्थकता पर विचार करना होगा। फिर यह विचार भी करना होगा कि यह प्राप्त मानव जीवन बहुत बहुमूल्य है। इसलिए इस सतत परिवर्तनशील विनाशी जगत को पकड़ लेने की अभिलाषा का पूर्ण रूप से त्याग करना होगा। इस प्राप्त मानव जीवन को परमेश्वर की भक्ति करने और तत्वज्ञान प्राप्त करने की ओर अग्रसर करना चाहिए।
[ अशोक वाजपेयी ]