[अवधेश कुमार]। बिहार के मुजफ्फरपुर में बच्चों की हो रही मौत पर देश में हाहाकार मचना स्वाभाविक है। आगे बढ़ने से पहले कुछ तथ्यों को स्पष्ट करना आवश्यक है। सबसे पहला, अभी तक के किसी रिसर्च में लीची से इसका संबंध नहीं पाया गया है। इसलिए लीची खाने से बीमारी होने की बात बिल्कुल निराधार है। दूसरे, कुछ वर्ग या जाति के बच्चों का बीमारी से गस्त होने का विश्लेषण भी गलत है। एक भौगोलिक क्षेत्र में इस बीमारी का प्रकोप है और वह जाति या वर्ग को पहचान कर ग्रसित नहीं करती। तीसरे, इस बीमारी को मेडिकल भाषा में एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम या एईएस अवश्य कहा गया है, लेकिन विशेषज्ञों ने स्पष्ट कहा है कि यह अभी तक की मान्य इंसेफलाइटिस नहीं है। उसकी तरह के कुछ लक्षण हैं। यानी यह अलग किस्म की बीमारी है जिसे स्थानीय भाषा में चमकी कहा जाता है। चौथे, यह कहना गलत है कि इस बीमारी का कारण समझने के लिए अनुसंधान नहीं हुए।

नई दिल्ली की नेशनल काउंसिल ऑफ डिजीज कंट्रोल और पुणे की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी की टीम ने कई साल बीमारी के समय वहां जाकर काम किया। बीमार बच्चों के सैंपल लिए। ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर मच्छर, जानवर एवं कीट-पतंगों पर भी अध्ययन किया, लेकिन यह पता नहीं लग सका कि बीमारी का कारण क्या है? विदेश की संस्था को बुलाकर भी अनुसंधान कराया गया और वह भी असफल रही। चूंकि आप बीमारी का कारण नहीं समझ पाए इसलिए इसे कोई निश्चित नाम दिया भी नहीं जा सकता। हालांकि बीमारी का कारण पता न चलने का अर्थ यह नहीं है कि इसका उपचार भी उलझा हुआ है। बिल्कुल नहीं। स्वास्थ्य विशेषज्ञ जानते हैं कि इसका इलाज कठिन नहीं है।

पैथोलॉजी रिपोर्ट के अध्ययन में सभी बच्चों में समान समस्याएं पाई गई हैं। सभी बच्चों में लीवर, किडनी और फेफड़ों में संक्रमण पाया गया। मूल बात है खून से सूगर का काफी कम हो जाना। बच्चों में ग्लूकोज लेवल का सबसे न्यूनतम स्तर 20-35 देखा गया है। सोडियम की कमी भी पाई गई है। प्रश्न है कि पैथोलॉजी से शरीर के अंदर की समस्याओं की पूरी जानकारी होने तथा उनका उपचार स्पष्ट होने के बावजूद इतनी संख्या में बच्चों की मृत्यु क्यों हुई? इसका एक ही उत्तर है, व्यवस्था की आपराधिक अनदेखी। वास्तव में प्रदेश सरकार विशेषकर इसका स्वास्थ्य महकमा सतर्क और तैयार होता तो यह महात्रासदी में कतई परिणति नहीं होती। मुजफ्फरपुर उत्तर बिहार का एक प्रमुख शहर है जहां सरकारी और निजी अस्पताल एवं डॉक्टर पर्याप्त संख्या में हैं। किंतु उन सबकी परिणामकारी उपयोगिता तभी संभव है जब स्वास्थ्य विभाग सतर्क होकर बीमारी से निपटने के लिए जो मानवीय एवं मेडिकल संसाधन चाहिए वह समय पूर्व उपलब्ध कराए एवं सक्रिय रहे।

ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। 21 मई को बच्चे की चमकी से मौत की पहली सूचना आई। उसके बाद बच्चे मरते रहे। स्थानीय मीडिया बीमार बच्चों के दम तोड़ते, अस्पतालों की भयावह कुव्यवस्था एवं डॉक्टरों, नर्सों से लेकर दवा तक के अभाव की खबरें देता रहा, लेकिन सरकार के कानों तक जूं नहीं रेंगी। लगा ही नहीं कि प्रदेश सरकार एवं विशेषकर स्वास्थ्य मंत्रालय को इससे कोई लेना-देना भी है। प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री 14 जून को कुछ घंटे के लिए वहां गए।

उनका बयान था कि जो मानक प्रणाली है उसके तहत इलाज किया जा रहा है। एंबुलेंस की अतिरिक्त व्यवस्था की जा रही है। उनका बयान सुनकर उन सब लोगों के अंदर गुस्सा पैदा हुआ जो यह उम्मीद कर रहे थे कि स्वास्थ्य मंत्री सारी कमियों का विवरण देते हुए उसे दूर करने का कदम उठाएंगे और जैसी आवश्यकता थी वहां अपने अधिकारियों के साथ कैंप करेंगे। किंतु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। कुछ घंटे का दौरा करके वापस चले गए। उनके आने के दिन तक 80 से ज्यादा बच्चे सही इलाज न मिलने के कारण मौत के मुंह में समा चुके थे। उनके रहते भी बच्चे मर रहे थे। उनके जाने से स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। उसके बाद केंद्रीय गृह राज्यमंत्री, जो प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष हैं, वे भी गए। केंद्रीय स्वाथ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन और स्वास्थ्य राज्य मंत्री डॉ. अश्विनी चौबे भी गए। बावजूद यदि बच्चे मरते रहे, व्यवस्था बदली ही नहीं तो फिर ये वहां गए क्यों थे? 100 बेड का आइसीयू बनाएंगे, रिसर्च करवाएंगे, कुछ डॉक्टर भेजेंगे...यही बयान आया।

यह बात समझ से परे थी कि जो बीमारी स्वास्थ्य आपातकाल की मांग कर रही हो उसके साथ मंत्री और विभाग इस तरह का व्यवहार क्यों कर रहे हैं? अस्पतालों की समस्याएं क्या थीं? आइसीयू या पीआइसीयू की कमी और उसका मानक स्तर पर न होना ऐसा था जिसे रातोंरात नहीं बदला जा सकता था, लेकिन उसमें कुछ बदलाव हो सकता था। विशेषज्ञ डॉक्टरों, प्रशिक्षित नर्सों और दवा का अभाव मौत का कारण था और इन कमियों को कुछ घंटे में दूर किया जा सकता था। केंद्र और राज्य, दोनों के पास इतनी क्षमता थी कि आपातकाल मानकर डॉक्टरों, नर्सों को दवाइयों के साथ वहां पहुंचाया जा सकता था। इसमें स्वास्थ्य के अलावा आपदा से जुड़े सभी विभागों को लगाने की आवश्यता थी और है।

जरा सोचिए, अस्पताल के नलों से पीने का पानी नहीं आ रहा था। यह टेलीविजन दिखा रहे थे, लेकिन किसी ने यह जहमत नहीं उठाई कि कम से कम अपने सामने पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करें। इससे बड़ी आपराधिक अनदेखी और क्या हो सकती है? इसके बाद यह बताने की आवश्यता नहीं कि उन मृत बच्चों के लिए जिम्मेवार कौन हैं? यह बीमारी कोई पहली बार सामने नहीं आई है। यहां उन आंकड़ों को गिनाना जरूरी नहीं है। हर वर्ष कम या ज्यादा संख्या में बच्चे चमकी से ग्रस्त होते हैं। इसके लिए स्वास्थ्य विभाग ने स्वयं कुछ मार्गनिर्देश तय किए हुए हैं। इनमें सबसे पहला है, जन जागरूकता।

इसके लिए पर्चे बने हैं, स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर बोर्ड लगे हैं। यह स्वास्थ्य विभाग का दायित्व था कि मार्च-अप्रैल में आशा कार्यकर्ता, एएनएम, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, आंगनबाड़ी सबकी बैठक लेकर जन जागरूकता का अभियान चलाए। इसके बाद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर आरंभिक इलाज के संसाधन पहुंचाए तथा वहां के डॉक्टरों को निर्देश के साथ सचेत करे। उसके बाद जिला के मुख्य अस्पतालों की स्थितियों का मूल्यांकन कर जो स्थानीय स्तर पर संभव है वह पूर्वोपाय किया जाए, जो नहीं है उनकी मांग प्रदेश सरकार से की जाए। इसमें प्रदेश स्वास्थ्य विभाग की भी भूमिका थी। जाहिर है, विभाग अगर पहले के अनुभव के आधार पर अपनी जिम्मेदारी का पालन करता तो काफी हद तक इतनी बड़ी त्रासदी से बचा जा सकता था। नीतीश सरकार की इसके लिए निश्चित रूप से आलोचना होगी कि इतने लंबे शासन में पहले से बने हुए अस्पतालों का इतना उन्नयन नहीं किया जा सका कि वे आपातस्थिति से निपटने में सक्षम हो।
[वरिष्ठ पत्रकार]

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