राकेश कुमार पटेल। देशव्यापी तालाबंदी के कुछ दिनों बाद से ही मजदूरों-श्रमिकों की समस्याएं उभर कर सामने आने लगीं। रोजगार के अवसरों की तलाश में देश के पूर्वी हिस्सों के मजदूर-श्रमिक दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब सहित कई अन्य राज्यों में बड़ी संख्या में रहते हैं। अधिक जनसंख्या घनत्व और कृषि पर निर्भरता के कारण गत दशकों में पूर्वाचल के ग्रामीण क्षेत्रों से औद्योगिक शहरों की तरफ बड़ी संख्या में रोजगार के अवसरों की तलाश में प्रवास हुआ है।

अब जब ये मजदूर अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं तो पर्यावरण व प्रकृति अनुकूल कुछ उपायों पर समग्रता से सोचने की जरूरत है। उद्योग, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं को कम दूरी के अंदर उपलब्ध कराकर इस समय उत्पन्न मुश्किलों को भविष्य में कुशलता से संभाला जा सकता है। नदियों के दोनों किनारे खाली पड़ी लाखों हेक्टेयर जमीन को उपजाऊ बनाते हुए यहां अनेक प्रकार के फसलों की खेती की जा सकती है।

देश भर में आज व्यापक संख्या में नदियों, तालाबों जैसे जलस्नोत विलुप्त होने के कगार पर हैं। मनरेगा के अंतर्गत इन जलस्नोतों को पुनर्जीवित कर इनकी संभरण और संवहन क्षमता में वृद्धि की जा सकती है। लगभग सभी गांव में पहले से ही कुछ तालाब और कुएं आदि मौजूद हैं। जिन गांवों में तालाब नहीं हैं, वहां कम से कम दो एकड़ क्षेत्रफल वाले दो तालाबों के निर्माण से प्रकृति अनुकूल नवाचार को बल मिलेगा। अवैध कब्जे वाले तालाबों को अभियान चलाकर उनकी खोदाई कराकर पट्टे पर देने से सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा। साथ ही जल संरक्षण से जल जीवन मिशन के अंतर्गत सभी नागरिकों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी। देखा जाए तो देश में घटता सघन वनक्षेत्र लगातार चिंता का विषय बना हुआ है।

हिमालय की तराई क्षेत्र में स्थित घने वनों को छोड़ दिया जाए तो उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों में सघन वन क्षेत्र नहीं हैं। प्रत्येक जिले के जलवायु व तापमान को ठीक रखने के साथ ही वहां के विशिष्ट जीव-जंतु एवं वनस्पतियों को अनुकूल पारिस्थितिकी सुलभ कराने हेतु 200 एकड़ का घना जंगल विकसित करना अनिवार्य करना होगा। ग्रामीण और नगरीय निकायों में उपलब्ध खाली जमीनों पर वन विभाग के सहयोग से पौधों की नर्सरी लगाकर लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है। परंपरागत रूप से वनों में रहकर वृक्षारोपण का कार्य करने वाली जनजातियों को पुन: वनरोपण में शामिल किया जाए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में वनटांगिया लोग कभी साल-साखू के पौधों की नर्सरी उगाने और वनों के भीतर पौधरोपण का काम करते थे। इससे उन्हें रोजगार और वनों को सुरक्षित रखने का अनुभव मिलता था।

आज इस अर्जति ज्ञान और संरक्षण की कमी के कारण पूर्वी उत्तर प्रदेश के उच्च कोटि के शाल वृक्ष के जंगलों में नए पौध विकसित नहीं हो पा रहे हैं। शाल के जंगलों को नए पौधे उपलब्ध कराने के लिए पुन: वनटांगिया समूह को इसमें जिम्मेदारी देकर रोजगार मुहैया कराया जा सकता है। शाल वृक्ष के पत्ताें से बनने वाले पत्तल और दोने से सिंगल यूज प्लास्टिक पर लगा प्रतिबंध सफल होगा और लोगों को बड़े पैमाने पर स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल सकेगा। ईंधन की लकड़ी और वन उत्पादों का कुछ हिस्सा ऐसे विमुक्त, घुमंतू या गरीब समुदायों को देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।

निराश्रित पशुओं के लिए गौशाला के प्रकल्प को बढ़ावा देकर ग्रामीण विकास से जुड़े नए विकल्प खोजे जा सकते हैं। इससे रोजगार सृजन के साथ ही किसानों को जैविक खाद मिलेगी। साथ ही बेसहारा जानवर किसानों की फसल नष्ट नहीं करेंगे तथा दूध की बिक्री से ग्रामीण निकायों की आय बढ़ेगी। मनरेगा के अंतर्गत स्थानीय हस्तशिल्प सहित अन्य गतिविधियों को सम्मिलित करके तरह-तरह के रोजगार को बढ़ावा देकर गांव से शहरों की ओर होने वाले पलायन को रोका जा सकता है।

(लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में प्रशासनिक अधिकारी हैं)