कपिल अग्रवाल। एक समय बंदी के भंवर में फंसे देश भर के तमाम सरकारी रोजगार कार्यालयों की रौनक अब लौटने लगी है। हाल फिलहाल तक इन कार्यालयों की उपयोगिता सिफर और बेरोजगारी कम करने में योगदान नगण्य था, पर बेरोजगारी बनाम रोजगार जैसे मसले का राजनीतिकरण हो जाने के चलते ये जीवनदान पा गए। कभी इन्हें बंद करने का मन बना चुकी भारत सरकार अब इनके उद्धार को प्रयत्नशील है।

लगभग सभी राज्यों के रोजगार कार्यालयों में जोर शोर से बेरोजगारों के पंजीकरण के अलावा निजी क्षेत्र के सहयोग से रोजगार मेलों का आयोजन किया जा रहा है। चूंकि सरकारी व अर्ध सरकारी क्षेत्र में भर्तीयों के बाबत विभिन्न प्रकार के चयन बोर्ड हैं इसलिए इसमें अधिकांश केवल निजी क्षेत्र की ही भागीदारी है। सरकारी नौकरियों के बाबत रोजगार कार्यालयों का सीधा उपयोग करने पर भी सरकार में मंथन चल रहा है। इससे निश्चित रूप से इनकी महत्ता व उपयोगिता बढ़ेगी।

पचास साल से भी ज्यादा पुरानी इस व्यवस्था को रोजगार कार्यालय अधिनियम 1959 के तहत स्थापित किया गया था। वर्ष 1993 तक तो इनका भरपूर उपयोग हुआ, पर उदारीकरण के दौरान इनका सदुपयोग करने के बजाय इन्हें हाशिये पर डाल दिया गया। यह सरकारी उपेक्षा व विभिन्न क्षेत्रों के बाबत अलग अलग स्वतंत्र भर्ती आयोगों के गठन का ही नतीजा था कि इन्हें कई बार बंद करने की सिफारिश की गई, लेकिन सब कुछ दरकिनार कर बगैर किसी मकसद या लक्ष्य के इनके बजट आबंटन और ज्यादा बढ़ा दिए गए। यदि सरकार चाहती तो बेरोजगारों का एक ऐसा वृहद सार्वजनिक डाटा बैंक बन सकता था जिससे निजी व सरकारी क्षेत्र बहुत कम लागत में अपनी जरूरत के अनुसार योग्य कर्मचारी प्राप्त कर सकते थे।

देश में कुल 968 रोजगार कार्यालय हैं। सरकारी एजेंसी 'कैग' की रिपोर्ट बताती है कि कई कार्यालयों में कंप्यूटर, ईंधन, वेतन भत्ते आदि के नाम पर हर माह लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं, पर पिछले दो दशकों में वे एक भी व्यक्ति को रोजगार नहीं दिला पाये। नवंबर 2018 तक के आंकड़ों पर गौर करें तो देश के सबसे बड़े रोजगार कार्यालयों में से एक, दिल्ली की सफलता की दर मात्र 0.16 फीसद है। दूसरी ओर एक मध्यम दर्जे की निजी प्लेसमेंट एजेंसी की सफलता की औसत दर 40 से 70 फीसद के आसपास रहती है। कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश जैसे तमाम राज्यों के कार्यालयों से तो पिछले डेढ़ दशक के दौरान एक भी व्यक्ति रोजगार प्राप्त नहीं कर सका। इस मामले में विचारणीय तथ्य यह है कि अपने इन कार्यालयों पर होने वाले खर्चों आदि का संपूर्ण विवरण सरकार के पास या तो है नहीं या वह देना नहीं चाहती। लेकिन ऐसा नहीं है कि हर जगह अंधेरा ही अंधेरा है। देश में गिनती के कुछ राज्य ऐसे भी हैं जो इन कार्यालयों का अधिकतम व उचित उपयोग करने हेतु प्रयत्नशील हैं।

इस क्षेत्र में केरल व गुजरात के बाद कर्नाटक, तमिलनाडु व उत्तर प्रदेश का नंबर है। ये राज्य निजी साझेदारों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। राज्य सरकारों के प्रोत्साहन से समय समय पर संयुक्त रूप से विभिन्न कंपनियां इनमें रोजगार मेले का भी आयोजन कर रही हैं। पर यह सब पर्याप्त नहीं है। अभी तक पूरे देश में एक भी ऐसा सर्वमान्य वृहद पोर्टल, विभाग अथवा वेबसाइट नहीं है जहां से कोई भी उचित शुल्क देकर अपनी जरूरत के अनुसार हर स्तर का कर्मचारी खोज सके। बैंकों की पूरे देश में समान एकीकृत सेवाओं की भांति इन रोजगार कार्यालयों के माध्यम से यह कार्य किया जा सकता है। यानी इन्हें एक वृहद सार्वजनिक रोजगार पोर्टल के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जहां सरकारी व गैर सरकारी संस्थान व उपक्रम अपनी जरूरत के अनुसार अभ्यर्थी छांट सकें। इस पर आने वाली लागत को निजी क्षेत्र के साथ बांटा जा सकता है। इससे एक ओर जहां बेरोजगारों को सरकारी नौकरियों की अत्यंत दुरूह व जटिल नियुक्ति प्रक्रिया, भागदौड़ व तमाम भारी भरकम खर्चों से निजात मिलेगी, वहीं सरकारी व निजी क्षेत्र द्वारा कर्मचारियों के चयन की लागत कम हो सकती है।

इसके अलावा सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों, उपक्रमों व विभागों को भी इस पोर्टल पर अपने यहां की रिक्तियों संबंधी विवरण देना अनिवार्य करना चाहिए ताकि अभ्यर्थी स्वयं अपनी योग्यतानुसार नौकरी खोजकर आवेदन कर सकें। स्थानीय स्तर पर रोजगार बाबत रोजगार मेलों का भी निरंतर आयोजन होना चाहिए। अपना खर्चा निकालने व सेवाएं देने के वास्ते पंजीकरण व सेवा शुल्क भी लिया जा सकता है। एक कार्ययोजना बनाकर सरकारी व गैर सरकारी नौकरियों के लिए ऑनलाइन परीक्षा, साक्षात्कार आदि में भी ये कार्यालय वीडियो कांफ्रेंसिंग आदि के जरिये मददगार सिद्ध हो सकते हैं और उनके लिए एक बहुपयोगी सार्वजनिक प्लेटफॉर्म का काम कर सकते हैं।

सरकार को इनके उचित व अधिकतम उपयोग बाबत एक आयोग का गठन करना चाहिए जिससे इन कार्यालयों को रोजगार प्राप्ति के एक प्रामाणिक रूप में विकसित किया जा सके। इसके कई फायदे होंगे जो संभवत: अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ बेरोजगारी दूर करने में सहायक साबित होंगे। हालांकि विश्व के अधिकांश देशों में यह व्यवस्था कब की समाप्त हो चुकी है और जहां है भी, वे सब स्वायत्त रूप से व्यावसायिक आधार पर चलाए जा रहे हैं, फिर भी समयानुकूल अपेक्षित बदलावों के साथ इसे प्रासंगिक बनाया जा सकता है।

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