(मनोज झा)।  रायपुर का टाटीबंध चौराहा!  एक कंधे पर लोहे का बक्सा तो दूसरे पर सामान से ठुंसा बैग;  पीछे सिर पर बोरा उठाए पसीने से लदी महिला और बगल में सूखे होंठों को चाटते नंगे पांव चल रहे दो छोटे-छोटे बच्चे। यह एक श्रमिक परिवार है,  जो महाराष्ट्र के किसी शहर से पैदल चला आ रहा है। पिछले दस दिन के अनथक सफर में तमाम अन्चीन्हे जंगल,  नदी, पहाड़, बस्ती और कस्बे मिले, लेकिन मंजिल तो मुंगेली जिला स्थित उसका गांव है। मुंगेली अभी भी दूर है। हां, इतनी आस जरूर बंध गई है कि रायपुर से मुंगेली बहुत दूर नहीं है।

आंतरिक विस्थापन की अंतहीन पीड़ा 

राजधानी का टाटीबंध इलाका हो या रायपुर और बिलासपुर के रेलवे स्टेशन, इन दिनों ऐसी तमाम जगहें आंतरिक विस्थापन की अंतहीन पीड़ा का आईना बनी हुई हैं। हम-आप तो घरों में सिमटे हैं और फल-सब्जी, दूध आदि को साफ-सुथरा कर खा-पी रहे हैं। हाथों पर सैनेटाइजर का स्प्रे मारकर और मास्क लगाकर शारीरिक दूरी भी निभा रहे हैं। दूसरी ओर, इन कामगारों के उमड़े हुजूम को देखिए तो पता चलता है कि कोरोना के खतरे से बेखौफ ये लोग पेट की आग बुझाने के लिए अपनी माटी, अपने देस की ओर बेतहाशा भागे जा रहे हैं।

गांव में पहुंचकर राहत मिलने की आस

इन सभी को जल्दी से जल्दी अपने गांव-घर पहुंचना है। बहुत दिनों बाद ही सही, शायद इन्हें लग रहा है कि गांव में बेशक रोजगार नहीं, फैक्ट्रियां और शोरूम नहीं,  लेकिन वहां भूख से मौत भी नहीं है। फूस का छप्पर ही सही, सिर पर छत है और थोड़े में गुजारा भी। ऐसे में सवाल है कि क्या इन हैरान-परेशान लोगों को अपने गांव पहुंचकर राहत मिल जाएगी? क्या वहां कमाने-खाने का कोई जरिया मिल जाएगा? क्या इनके बच्चों को शहरी स्कूलों जैसी पढ़ाई-लिखाई मिल पाएगी? क्या ये लोग दोबारा शहरों का रुख नहीं करेंगे? 

 गांव की अर्थव्‍यवस्‍था पर नए किस्‍म का दबाव 

हालांकि सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के पार्थो मुखोपाध्याय इन विस्थापितों को मौसमी मजदूर कह रहे हैं। फिर भी अभी यह कहना मुश्किल है कि खेती-बाड़ी का मौसम गुजरने के बाद इनमें से कितने श्रमिक इस बार दोबारा शहर लौटेंगे। छत्तीसगढ़ के संबंध में यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां के गांवों से पलायन की प्रकृति स्थायी कम, मौसमी ज्यादा है।

 जो भी हो, एक बात तो अब करीब-करीब तय है कि आगे कुछ समय तक शहरों की ओर पलायन की रफ्तार मंद पड़ेगी। मौजूदा विस्थापितों की घरवापसी और वहां टिकने की स्थिति में गांवों की रौनक तो बढ़ेगी, लेकिन वहां की अर्थव्यवस्था को एक नये किस्म का दवाब भी झेलना पड़ेगा। आधुनिक विकास की जरूरतों के मद्देनजर यह स्थिति कोई बहुत उत्साहजनक नहीं कही जा सकती।

राज्‍य सरकार ने प्रवासियों के लिए की कई योजनाओं की घोषणा  

यदि शहरों में श्रम संकट हुआ तो देश की अर्थव्यवस्था डगमगाएगी। इसलिए आने वाले समय में सरकारों को इस संभावित संकट रूपी तलवार की धार पर चलना होगा। आंतरिक विस्थापन के मौजूदा संकट को छत्तीसगढ़ के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहां की सरकार के लिए भी यह एक नई चुनौती बनने जा रहा है। ऐसे तो प्रदेश सरकार ने गांवों के उत्थान के लिए कई योजनाओं की घोषणाएं कर रखी हैं।

गोठान,  नरवा,  गरवा,  घुरवा, बाड़ी जैसी योजनाओं का उद्देश्य ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने और रोजगार के साधन सृजित करने का ही है। लेकिन अभी इन योजनाओं का सरजमीन पर उतरना बाकी है। इनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा पैसे का है, जो विभिन्न विभागों से आना है। इन योजनाओं की नोडल एजेंसी ग्राम पंचायतों को बनाया गया है। इसमें दिक्कत यह है कि पंचायतों और सरकारी विभागों के बीच कोई सक्षम समन्वय तंत्र नहीं है। इसके चलते पंचायतों के पास इन योजनाओं के लिए फंड ही नहीं है। 

सीएम ने की मनरेगा के तहत दो सौ दिनों तक काम बढ़ाने की मांग 

हालांकि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाल ही में गोठान योजना को गति देने के लिए धनराशि देने का एलान किया है। यदि इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए गए तो शहरों से खाली हाथ लौट रहे लोगों का दर्द एक हद तक दूर हो सकता है। प्रधानमंत्री के साथ पिछले दिनों वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान सीएम भूपेश ने मनरेगा के तहत काम के दिनों को दोगुना करके दो सौ दिनों तक बढ़ाने की मांग की।

 निश्चित रूप से इस मांग के पीछे उनके मन में कहीं न कहीं गांवों में रोजगार के साधनों पर इस आंतरिक विस्थापन के चलते अचानक पड़ने जा रहे दवाब की बात जरूर रही होगी। छत्तीसगढ़ के भी सैकड़ों गांवों में शहरों से लौट रहे लोगों के लिए प्राथमिक समस्या रोजगार की ही बनने जा रही है। ऐसे में मनरेगा के दो सौ दिन इन विस्थापितों के जख्मों पर मरहम लगा सकते हैं।

कोरोना के दौर में जन्‍म ले सकती हैं नई समस्‍याएं  

कोरोना के मौजूदा दौर में हो रहे आंतरिक विस्थापन की इस नई प्रवृति पर यूनिसेफ की जारी रिपोर्ट में कुछ भयावह संकेत भी हैं। संस्था की कार्यकारी निदेशक हेनरीटा फोर ने आशंका जताई है कि इस नई समस्या के चलते बालश्रम, बाल विवाह और बाल तस्करी जैसी समस्याएं बढ़ सकती हैं। छत्तीसगढ़ इन समस्याओं से अछूता नहीं है। यदि यूनिसेफ की आशंका सिरे चढ़ी तो प्रदेश की सरकार और यहां के समाज के सामने एक नई मुसीबत खड़ी हो सकती है। कुल मिलाकर यह कि विस्थापन से जुड़ी इन तमाम समस्याओं से फौरी राहत के लिए इस समय सरकार को सच्चे मन से गांवों की सुध लेनी पड़ेगी। शायद वहीं से कोई नया रास्ता निकलेगा।

(लेखक छत्तीसगढ़ के राज्य संपादक हैं)