डॉ. श्रुति मिश्र। जब भी हम राष्ट्र के संदर्भ में आत्मनिर्भर शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका तात्पर्य अत्यंत व्यापक संदर्भो में होता है। यह हमारी क्षमता और स्वातंत्र्य के साथ राष्ट्रीयता की भावना से जुड़ा हुआ तत्व है। नई शिक्षा नीति आने के बाद इस बात पर बल दिया जाता रहा है कि प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक पाठ्यक्रम भारतीय भाषाओं में ही तैयार किए जाएं। निश्चित रूप से यह एक बड़ी चुनौती है जिसे शिक्षाविदों के व्यापक सहयोग से ही प्राप्त किया जा सकता है।

मातृभाषा में पाठ्यक्रम तैयार करने के पीछे एक गहरी मनोवैज्ञानिक सोच है जो विद्यार्थी को विशेषतया उस पाठ्यक्रम से जोड़ती है जिसमें उससे कौशल की अपेक्षा की जाती है, न की भाषा विशेष से। ऐसे में वह माध्यम मातृभाषा भी हो सकती है अथवा उससे इतर भाषा भी। माध्यम के संदर्भ में यह बहुत ही स्वाभाविक सी बात है कि जब पाठ्यक्रम मातृभाषा से इतर भाषा में तैयार होंगे तो विषय पर विशेषज्ञता के स्थान पर भाषा के ही अवबोध पर अध्ययनकर्ता का ध्यान बंटेगा जो एक प्रकार से कौशल प्राप्त करने की दिशा में व्यवधान के समान होगा। संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी को बनाए रखने में कोई कठिनाई नहीं है, किंतु इसे श्रेष्ठताबोध से न जोड़ा जाए।

निस्संदेह मातृभाषा की स्वीकारोक्ति आज पहले की अपेक्षा बहुत व्यापक है और नई शिक्षा नीति के पश्चात तो मातृभाषा में पठन-पाठन की आवश्यकता को भाषाविदों ने और महत्व दिया है। इसका मनोविज्ञान यह होता है कि जिस भाषा में हम सर्वाधिक सहज होते हैं हमारी चिंतन प्रक्रिया भी उसी भाषा में कार्य कर रही होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमें निरंतर अपनी तकनीक को बेहतर बनाना होगा, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि मातृभाषा रोजगार की भाषा बने। यदि मातृभाषी युवक रोजगार के प्रश्न पर किसी विदेशी भाषा की दुहाई देकर छांट दिए जाएं तो यह अपने आप में विडंबनापूर्ण स्थिति ही कही जाएगी।

आत्मनिर्भरता प्रत्येक स्तर पर सोची जाने वाली एक राष्ट्रव्यापी सोच है। शिक्षा में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। इस सोच में देश की समृद्धि और विकास में शामिल हर एक ऐसी छोटी बड़ी इकाई का समावेश करना समुचित होगा जिसमें न सिर्फ विद्यालय और विश्वविद्यालय के विद्यार्थी, बल्कि असंगठित क्षेत्र के कामगारों जो दैनिक स्तर पर नित्य प्रति अपना श्रमदान देते हैं उनका भी समावेश अपरिहार्य है। अगर हम युवकों को रोजगारपरक शिक्षा देने के साथ अपने मजदूरों को भी आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं तो उनके लिए उनकी वही मातृभाषा समुचित होगी जो उन्हें कार्यकुशल, निपुण और दक्ष बनाए। इस नजरिये से वे अपनी भाषा में संप्रेषण के चलते अपने कार्यक्षेत्र में कम समय में विशेषज्ञता हासिल कर पाएंगे।

गांव हमारे राष्ट्र के आधार हैं, लेकिन आज भी श्रमिकों का शहरों की ओर पलायन तथा गांवों में शिक्षा की स्थिति का शोचनीय होना इसी कारण से है कि मातृभाषाओं को शिक्षा में समुचित वरीयता अब तक नहीं मिल सकी थी। शिक्षा स्वतंत्र विचार चिंतन के आयाम खोलती है। यदि वह सही तरीके से हमारे समाज के हर तबके तक संप्रेषित हो सके तो उसके वास्तविक परिणाम निकल कर सामने आएंगे। यद्यपि गांवों में शिक्षा का विस्तार तो हुआ है, किंतु जिन उद्देश्यों को लेकर शिक्षा चलती है उसका संप्रेषण ठीक तरीके से नहीं हो सका है। ऐसा भी देखा जाता है हमारे समाज में शिक्षा और विद्याíथयों के जीवन के उद्देश्यों के चयन में समाज और परिवार का अत्यधिक दबाव होता है। इसका परिणाम कई बार इस रूप में सामने आता है कि विद्यार्थी अपनी इच्छा और अपनी अभिवृत्तियों के अनुसार विषयों का चयन नहीं कर पाते और जब तक उनकी क्षमता इस चयन के संदर्भ में विकसित होती है तब तक पर्याप्त विलंब हो चुका होता है।

विद्याíथयों के इसी मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए नई शिक्षा नीति में विद्याíथयों के समक्ष यह स्वातंत्र्य रखा गया है कि यदि वे कोई कोर्स बीच में छोड़कर दूसरे कोर्स में प्रवेश चाहें तो एक निश्चित समय तक पहले कोर्स को छोड़कर दूसरे में प्रवेश ले सकते हैं। यह नीति कौशल विकास के नजरिये से अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक विद्यार्थी जब अपनी अभिवृत्ति और रुचि के अनुसार चयनित विषय में रमता है तो उसमें सहज ही कौशल संपन्न हो सकता है, क्योंकि ऐसे में वह उसमें केंद्रित हो कर कार्य करने की मनोवृत्ति रखता है।

देश में 100 प्रतिशत उच्च शिक्षित समाज के लक्ष्य पर काम करने के लिए यह अपरिहार्य है कि स्कूल से ड्रॉप आउट को खत्म किया जाए। नई शिक्षा नीति में वर्ष 2030 तक माध्यमिक स्तर तक ‘एजुकेशन फॉर ऑल’ यानी सभी को शिक्षा का लक्ष्य दो करोड़ की बड़ी संख्या में बच्चों को पुन: मुख्यधारा में लाने का है। इसके लिए बहुत आवश्यक है कि विद्याíथयों में शिक्षा के प्रति आकर्षण हो। विद्यालयों में शैक्षणिक धाराओं, पाठ्येतर गतिविधियों और व्यावसायिक शिक्षा के बीच भेद नहीं किए जाने के पीछे उनमें एक सामंजस्य बनाने के पीछे का उद्देश्य भी विद्याíथयों के बौद्धिक, शारीरिक और रचनात्मक विकास का समायोजन ही है जिससे विद्यार्थी ज्ञान के साथ कौशल विकास की ओर निरंतर प्रवृत्त हो सकें।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी]