[ केसी त्यागी ]: 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के एक फैसले ने देश की राजनीति में हड़कंप मचा दिया था। 1971 के लोकसभा चुनाव में राजनारायण इंदिरा गांधी के विरुद्ध रायबरेली से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे। उस चुनाव में इंदिरा गांधी पर अनियमितता के आरोप में राजनारायण द्वारा दायर याचिका पर अदालत ने न केवल इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर दिया, बल्कि उन्हें छह वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया। उन पर चुनाव के दौरान भारत सरकार के अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को अपना इलेक्शन एजेंट बनाने, स्वामी अवैतानंद को 50,000 रुपये घूस देकर रायबरेली से ही उम्मीदवार बनाने, वायुसेना के विमानों का दुरुपयोग करने, डीएम-एसपी की अवैध मदद लेने, मतदाताओं को लुभाने हेतु शराब, कंबल आदि बांटने और निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करने जैसे तमाम आरोप लगे थे।

‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’

फैसले वाले दिन इंदिरा गांधी के आवास पर राजनीतिक गतिविधियां तेज हो चुकी थीं जो भावी राजनीतिक घटनाक्रम की दिशा स्पष्ट कर रही थीं। कांग्रेसियों के जत्थे ‘जस्टिस सिन्हा-मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अदालती फैसले को सीआइए की साजिश भी बता रहे थे। शाम तक मंत्रिमंडल ने एक स्वर से उनके इस्तीफे को नकार दिया। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का नारा देकर उस दौर में सियासी बेशर्मी की सारी हदें पार कर दी थीं। चंद्रशेखर की टोली को छोड़ सभी लोकतंत्र के चीरहरण के गवाह बने हुए थे। चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी-जेपी वार्ता का एक प्रयास भी किया था। उनका मानना था कि जेपी के सवाल व्यक्ति के नहीं व्यवस्था के खिलाफ हैं, इसलिए सरकार को जेपी जैसे संत से टकराव नहीं, बल्कि उनकी मांगों पर अमल करना चाहिए। उनकी मुहिम को समर्थन प्राप्त हो रहा था। उनके आवास पर लगभग 50 सांसद भी जुट गए थे।

बदलाव की चिंगारियां भड़क उठीं

वर्ष 1974 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से शुरू हुआ महंगाई, भ्रष्टाचार विरोधी अभियान बड़े बदलाव की शक्ल ले रहा था। सभी दल एकजुट हो गए थे जिनमें भारतीय लोकदल, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी समेत कई क्षेत्रीय दल भी शामिल थे। छात्र युवा आंदोलन के बढ़ते स्वरूप को देखकर और मोरारजी देसाई के अनशन से भयभीत होकर गुजरात विधानसभा को भंग कर नए चुनाव हुए जिनमें कांग्रेस की भारी पराजय हुई और गांधीवादी नेता बाबूभाई पटेल के नेतृत्व में पहली जनता सरकार बनी। इसी बदलाव की चिंगारियां बिहार में भी भड़क उठीं जहां अब्दुल गफूर के नेतृत्व वाली कांग्रेस बेबस और लाचार दिख रही थी। तब 1942 की क्रांति का नायक 1975 की युवा क्रांति का जननायक बन चुका था।

अयोग्य घोषित इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग

12 जून के बाद समूचा विपक्ष फिर एकजुट हुआ और न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग पर अड़ा रहा। पूरा विपक्ष राष्ट्रपति भवन के सामने धरना देकर अपना विरोध दर्ज करा रहा था। देश भर के शहर, जलसे, जुलूस और विरोध प्रदर्शन के गवाह बन रहे थे। 22 जून को दिल्ली में आयोजित रैली को जेपी समेत कई अन्य बड़े नेता संबोधित करने वाले थे। शासक दल इतना भयभीत था कि उसने कोलकाता-दिल्ली के बीच की वह उड़ान ही निरस्त करा दी जिससे जेपी दिल्ली आने वाले थे। उन दिनों एक या दो उड़ानों का ही संचालन हुआ करता था।

25 जून का दिन और दिल्ली का रामलीला मैदान

आखिरकार 25 जून का दिन विरोध सभा के लिए तय हुआ। रामलीला मैदान खचाखच भरा हुआ था। ‘महंगाई और भ्रष्टाचार, सत्ता सब की जिम्मेदार, हिंदू-मुस्लिम सिख-ईसाई, सबके घर में है महंगाई’, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, जैसे तमाम नारों से दिल्ली का जनजीवन ठहर सा गया था। चौधरी चरण सिंह समूची विपक्षी एकता के पक्षधर थे। अन्य दल भी जेपी आंदोलन को और धार देना चाहते थे। लोकदल की ओर से मैं स्वयं और सत्यपाल मलिक मंच पर उपस्थित थे, जो इस समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल हैं। मदनलाल खुराना मंच का संचालन कर रहे थे। मुख्य वक्ता के तौर पर जेपी जब संबोधन के लिए आए तब काफी देर तक नारेबाजी होती रही। जेपी ने स्पष्ट शब्दों में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की और जनसमर्थन के अभाव वाली सरकार के अस्तित्व को मानने से इन्कार कर दिया।

सत्ता को बचाने के लिए राष्ट्रीय आपातकाल थोपा गया

सभा के चंद घंटों बाद ही भारतीय आजादी के बाद का सबसे मनहूस क्षण आया जब गैर-कानूनी तरीके से अपनी सत्ता को बचाने के लिए संवैधानिक मान-मर्यादाओं को कुचलते हुए देश पर आपातकाल थोप दिया गया। सभी मूलभूत अधिकार समाप्त कर दिए गए। समाचार पत्रों पर भी पाबंदी लगा दी गई थी। विपक्षी दलों के प्रमुख नेता नजरबंद कर दिए गए। सभा, जुलूस, प्रदर्शन सभी पर रोक लगा दी गई थी। राजनीतिक बंदियों की परिवारों से मुलाकात तक पर पाबंदी लगा दी गई।

राजनेता-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी

अदालतें स्वयं कैद हो चुकी थीं जो जमानत लेने और देने से साफ इन्कार कर रही थीं। एक लाख से अधिक राजनेता-कार्यकर्ताओं को गिरफ्तारी के समय मानसिक-शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ीं। पुलिस हिरासत और जेलों से मौत की खबरें आ रही थीं जिन्हें समाचार पत्रों में जगह नहीं मिलती थी। यह दौर करीब ढाई साल तक चलता रहा।

जनता पार्टी की सरकार ने आपातकाल को निरस्त किया

यद्यपि जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने के बाद संविधान के 44वें संशोधन के तहत आपातकाल जैसी परिस्थितियों के खतरे को निरस्त कर दिया गया। इसके अंतर्गत राष्ट्रीय आपात स्थिति लागू करने के लिए आंतरिक अशांति के स्थान पर सैन्य विद्रोह का आधार तय किया गया एवं आपात स्थिति संबंधी अन्य प्रावधानों में जरूरी परिवर्तन हुए जिससे उनका दुरुपयोग न हो। इसके बावजूद संविधान और लोकतंत्र समर्थकों के समक्ष अभी भी कुछ यक्ष प्रश्न विद्यमान हैं।

इंदिरा गांधी का निरंकुश होना

वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ‘गरीबी हटाओ’ नारे के दम पर सत्ता में आई थीं, लेकिन निरंतर बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में नाकाम रहीं जिससे हालात बड़े राजनीतिक प्रतिरोध के रूप में सामने आने लगे। इंदिरा गांधी के निरंकुश होने का यह पहला लक्षण था। दूसरा यह कि वह स्वयं को कांग्रेस का और धीरे-धीरे देश का पर्याय मानने लगी थीं। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हो गया था। निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ताओं का स्थान चापलूसों ने ले लिया था। परिवारवाद का भोंडा चलन भी शुरू हुआ। इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में संजय गांधी सत्ता के असंवैधानिक केंद्र भी बने।

इंदिरा गांधी के आचरण में हिटलर की झलक दिखी

निरंकुश शासकों को स्वतंत्र प्रेस से बड़ी चुनौती मिलती है इसलिए उस पर भी कड़ा प्रहार किया गया। कुलदीप नैयर समेत कई पत्रकारों को जेल जाना पड़ा। इंदिरा गांधी के तब अलोकतांत्रिक एवं बर्बर आचरण में बहुधा हिटलर की झलक दिखी। हिटलर ने कृत्रिम राष्ट्रवाद के दम पर चुनाव जीता और तानाशाही रुख अख्तियार किया। यूरोप में आज भी हिटलर की मृत्यु और आत्मसमर्पण के दिन को लोकतंत्र के विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है ताकि लोकतंत्र की बयार बहती रहे। 25 जून निरंकुश ताकतों के खिलाफ तानाशाही, भ्रष्टाचार, वंशवाद के विरुद्ध संग्राम का दिन है जिससे सबक लेकर लोकतंत्र की मूल अवधारणाओं को हम और मजबूत कर सकें।

( आपातकाल के दौरान जेल में रहे लेखक जद-यू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैैं )

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