प्रदीप सिंह : संत कबीर ने कहा है, 'सबसे भले वे मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति।' अपने देश के विपक्षी दलों का हाल कुछ ऐसा ही हो रहा है। राजनीति में 'जगत गति' का सीधा अर्थ है जनभावना। राजनीति और चुनावी राजनीति में सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है-मतदाता की मनोदशा की समझ। नेता को पता होना चाहिए कि लोगों की अपेक्षा क्या है। इस समय देश में एक बार फिर भ्रष्टाचार विरोधी माहौल गरम है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से कहा कि इस समय देश भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के निर्णायक कालखंड में कदम रख रहा है। दूसरी और विपक्ष कह रहा है मोदी को हटाने के लिए एक हो जाओ।

बड़ा सीधा सा प्रश्न है कि देशवासी इस समय भ्रष्टाचार हटाना चाहते हैं या मोदी को? मोदी ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार के प्रति तो देश में नफरत दिख रही है, लेकिन भ्रष्टाचारियों के प्रति नहीं। उन्होंने कहा जब तक भ्रष्टाचारियों के प्रति समाज में नफरत नहीं होगी, यह रोग दूर नहीं होगा। उन्होंने आश्चर्य व्यक्तकिया कि भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की सजा काटकर आए लोगों का महिमामंडन हो रहा है।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में इससे पहले भी माहौल बनता रहा है। उसके कारण दो सरकारें बदल गईं। जेपी आंदोलन के बाद 1977 में और बोफोर्स कांड के बाद 1989 में। पर सत्ता में आने के बाद किसी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ किया नहीं। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से एक पार्टी निकली। उसने तय किया कि वह भ्रष्टाचार का नया माडल तैयार करेगी। वह इसमें सफल भी हो गई। उसका मंत्री भ्रष्टाचार में पकड़ा जाता है तो कहता है कि उसकी याददाश्त चली गई।

देश में पहली बार भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीरता से कार्रवाई हो रही है। गंभीरता का एक ही पैमाना होता है। जब भ्रष्ट रसूखदार लोगों को जेल जाने से डर सताने लगे तो समझिए कि ईमानदारी से काम हो रहा है। इस समय आप देश के विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं का नाम लीजिए और पता चलेगा कि उनमें से कुछ जेल में हैं, तो कुछ जेल जाने वाले हैं। यह प्रश्न बार-बार उठाया जा रहा है कि क्या सिर्फ विपक्षी दलों में ही भ्रष्ट नेता हैं।

प्रश्न बिल्कुल सही है, पर इससे पहले यह पूछा जाना चाहिए कि क्या जिनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है, उनके भ्रष्ट होने पर कोई शक है? भ्रष्टाचार एक ऐसा नासूर है, जो किसी देश और समाज को पूरी तरह लील जाने में सक्षम है। साल 2004 से 2014 के कालखंड में देश ऐसे ही मोड़ पर पहुंच गया था, जहां से एक कदम भी आगे बढ़ने पर वापसी असंभव हो जाती। किसी बीमारी के ठीक होने की संभावना उस समय खत्म हो जाती है, जब मरीज को उससे परेशानी होना बंद हो जाए। लोगों ने भ्रष्टाचार को रोजमर्रा के जीवन का अभिन्न हिस्सा मान लिया था। उन्होंने यह भी मान लिया था कि कोई कुछ भी कहे, होगा कुछ नहीं। ऐसे में नरेन्द्र मोदी आते हैं और कहते हैं, 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा।' लोग थोड़ी उम्मीद और थोड़े शक की नजर से देखते हैं। न खाऊंगा पर तुरंत विश्वास हो जाता है, पर न खाने दूंगा गले के नीचे नहीं उतर रहा था। फिर इस पर नजर जाती थी कि वह 12 साल गुजरात के मुख्यमंत्री रहते यह करके आए हैं। इसके बाद भी शंकालु मन कहता था कि अरे एक प्रदेश की बात अलग है और देश की बात अलग।

'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' नारे को यकीन में बदलने में उत्तर प्रदेश जैसे सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ के चयन ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उत्तर प्रदेश और भ्रष्टाचार एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए थे। योगी आदित्यनाथ ने पांच साल में असंभव को संभव करके दिखा दिया कि ईमानदारी से सरकार भी चलाई जा सकती है और चुनाव भी जीता जा सकता है। यह अलग बात है कि उनकी ईमानदारी से भाजपा के ही कई लोगों की रातों की नींद हराम हो गई है। मोदी न खाऊंगा और खाने दूंगा के मामले में अपवाद थे। योगी ने उसे नियम बना दिया।

जिस दिन प्रधानमंत्री लाल किले से भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध को निर्णायक दौर में ले जाने की बात कर रहे थे, उसी दिन कोलकाता में ममता बनर्जी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे अपने नेता अनुब्रत मंडल के बचाव में हुंकार भर रही थीं। गांधी परिवार नेशनल हेराल्ड घोटाले के लिए शर्मिंदा होने के बजाय जांच एजेंसी के खिलाफ सड़क पर है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पूरी पार्टी की विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है। बिहार में तो और गजब हो रहा है। नीतीश कुमार व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोपों से बचे हुए थे, पर कलाबाजी दिखाई और लालू यादव परिवार की गोद में बैठ गए। जब तेजस्वी पर एफआइआर दर्ज हुई तो साथ छोड़ दिया। अब जब चार्जशीट फाइल हो चुकी है तब फिर गले लगा लिया। कल तक जो दाग बुरे लगते थे, वे आज अच्छे लगने लगे हैं।

प्रधानमंत्री की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम राजनीति तक ही सीमित नहीं है। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार, परिवारवाद और भाई-भतीजावाद ने देश की प्रतिभाओं को आगे बढऩे, निखरने के मौके से वंचित कर दिया। दूसरी संस्था, जिसके परिवारवाद ने देश को हतात्साहित किया है वह है न्यायपालिका। हर तरफ से निराश आम आदमी अदालत की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखता है। वहां भाई-भतीजावाद का खुला खेल देखकर उसका दिल टूट जाता है। न्यायिक सुधार जल्दी और बड़े पैमाने पर न हुए तो कानून के राज से लोगों का यकीन उठ जाने का खतरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। उच्च अदालतें तो आम आदमी की पहुंच से बाहर ही हो गई हैं। अपवादस्वरूप कभी-कभार उसकी सुनवाई हो जाती है। रसूखदारों के लिए छुट्टी, त्योहार, दिन-रात की कोई बाधा नहीं है।

गफलत का आलम देखिए कि मोदी कह रहे हैं भ्रष्टाचार मिटाओ और विपक्षी नेता कह रहे हैं मोदी हटाओ। जनता किसकी बात मानेगी, यह जानने के लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है। जैसे सियारों का झुंड शेर का शिकार नहीं कर सकता। वैसे ही भ्रष्टाचार का सैलाब ईमानदारी की दीवार पर सिर पटककर रह जाता है, बशर्ते ईमानदार में डटे रहने की इच्छाशक्ति हो। पहली बार वह इच्छाशक्ति दिखाई दे रही है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)