लालजी जायसवाल। इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की मांग बढ़ने के साथ ही ई-कचरा भी बढ़ता जा रहा है। ई-वेस्ट रिपोर्ट 2020 से पता चला है कि 2019 में विश्व में 5.36 करोड़ टन कचरा पैदा हुआ था, जो पिछले पांच वर्षो में 21 फीसद बढ़ गया है, जबकि अनुमान है कि 2030 तक इस इलेक्ट्रॉनिक कचरे का उत्पादन 7.4 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा। इस बीच देश में कोरोना का कहर थमने का नाम नहीं ले रहा है। कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। इस कारण एक ओर जहां आíथक गतिविधियों को झटका लगा, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण एवं प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी एक रिपोर्ट में कहा है कि दिल्ली में निकल रहे कोविड बायोमेडिकल कचरे की मात्र मई में 25 टन प्रतिदिन से बढ़कर जुलाई में 349 टन तक हो गई।

आज एक ओर कोरोना महामारी की वजह से व्यापक तादाद में कचरा पैदा हो रहा है, तो वहीं प्रौद्योगिकी जनित कारणों से इलेक्ट्रॉनिक कचरे का बढ़ता जमावड़ा भी चिंता का विषय बना हुआ है। नवाचारों के कारण विभिन्न प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक उद्योग उभरते हुए उद्योग बन गए हैं। इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का उपयोग तथा उनका नए मॉडल में परिवर्तित होना लोगों को इस ओर आकर्षति करता है कि वे अधिक से अधिक इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का उपयोग करें और पुरानी वस्तुओं का त्याग करें। वैसे भी आज कोई भी कार्य बिना इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के अंजाम देना आसान नहीं रह गया है। स्थिति यह हो चुकी है कि आज जगह जगह कचरा घर बनते जा रहे हैं, लेकिन चुनौती इस बात की है कि ई-कचरा की री-साइकलिंग कैसे हो? जो वस्तुएं अनुपयोगी हो चुकी हैं, उनका समुचित निस्तारण नहीं हो पाने से आज वे बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने हैं। जब से दुनिया में कोरोना वायरस का संक्रमण फैला है, तब से मास्क, फेस शील्ड, पीपीई किट्स जैसे उपकरणों का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है। पीपीई किट्स तो यूज एंड थ्रो किस्म की होती हैं। परिणामत: अब दुनियाभर में इन बायोमेडिकल वेस्ट का एक बड़ा भंडार तैयार होता जा रहा है। ई-कचरा वास्तव में सीधे तौर पर हानिकारक नहीं होता है, किंतु इनके पदार्थ अवश्य खतरनाक होते हैं।

कुछ इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में भारी वस्तुएं होती हैं, जैसे लेड, जस्ता, कैडमियम आदि। यदि ये सब पानी में प्रवेश कर जाएं तो यह स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक सिद्ध होते हैं, जिससे मानव की तंत्रिका तंत्र प्रभावित होती है। साथ ही श्वसन तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा असुरक्षित ई-कचरे की री-साइकलिंग के दौरान उत्सर्जति प्रदूषकों के संपर्क में आने से तंत्रिका तंत्र, रक्त प्रणाली, गुर्दे और मस्तिष्क विकार, त्वचा विकार, गले में सूजन, फेफड़ों का कैंसर, दिल आदि को नुकसान पहुंचता है। मोबाइल फोन में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कल-पुर्जे सैकड़ों वर्षो तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुल कर नष्ट नहीं होते हैं और वातावरण में मौजूद ये खतरनाक रसायन कैंसर आदि कई गंभीर बीमारियां पैदा करते हैं। हमारे देश में सालाना 15 लाख टन से भी अधिक ई-कचरा पैदा होता है। लेकिन बहुत कम लोगों को यह पता नहीं होता है कि इसका उचित निपटान या प्रबंधन कैसे किया जाएगा।

भारत के कुल ई-कचरे का केवल पांच फीसद ही री-साइकिल हो पाता है, जिसका सीधा प्रभाव पर्यावरण में अपरिवर्तनीय क्षति और उद्योग में काम करने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। भारत में ई-कचरा घातक दर से बढ़ रहा है और इससे देश के पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है जिस कारण भविष्य में इसके गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने भी चेतावनी दी है कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों ने ई-कचरे को अगर ठीक से रीसाइकिल नहीं किया तो इसका पहाड़ खड़ा हो जाएगा और फिर किसी कोरोना जैसी घातक महामारी की आशंका पैदा हो सकती है। भारत में कचरे के रीसाइकलिंग की कोई सटीक प्रणाली लागू नहीं की गई है। अधिकतर ई-कचरा अनियोजित तरीके से निस्तारित किया जाता है। रीसाइकलिंग के लिए बड़े कारखाने स्थापित नहीं किए गए हैं।

भारत को ई-कचरे की समस्या के स्थायी समाधान के लिए यूरोपीय देशों में प्रचलित व्यवस्था की तर्ज पर पुनर्चक्रण तथा विधि प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए। जहां इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के विनिर्माण में संलग्न संगठनों को ही इन उत्पादों के उनके अनुपयोगी होने के पश्चात उनके रीसाइकिल के लिए जवाबदेह बनाया जाता है। या तो कंपनियां इन उत्पादों को स्वयं रिसाइकिल करती हैं या फिर इस कार्य को किसी तीसरे पक्ष को सौंप देती हैं। कई देशों में इस सवाल का जवाब इस व्यवस्था को बदलकर दिया गया है, कचरे से संबंधित शुल्क का भुगतान इसे इकट्ठा करने या लाने-ले जाने के लिए नहीं किया जाता, बल्कि कचरे के निपटान के लिए किया जाता है।

उदाहरण के लिए स्वीडन और अमेरिका में लैंडफिल क्षेत्र में कचरा फेंकने के लिए भारी शुल्क वसूल किया जाता है। स्वीडन में भी इसके लिए भारी कर लगाया जाता है। नतीजन बेहतर प्रबंधन से ई-कचरे का नवीनीकरण या कम से कम सुरक्षित निपटान किया जा सकता है। इसके लिए एक तरीका चार आर यानी रिड्यूस, रिपेयर, रीयूज, रीसाइकिल बेहतर कदम साबित हो सकता है। जागरूकता की कमी व नष्ट करने की मुश्किल प्रक्रिया के कारण ई-वेस्ट दुनियाभर के लिए मुसीबत व बीमारियों का घर बनता जा रहा है। ई-कचरा प्रबंधन के लिए जल्द से जल्द उचित निर्णय लेने की आवश्यकता है, क्योंकि कोरोना महामारी की वैक्सीन आज नहीं तो कल आ जाएगी। लेकिन तब तक हम अपने इर्द-गिर्द बायोमेडिकल वेस्ट और ई-वेस्ट का अंबार लगा चुके होंगे। इसलिए अभी समय है कि एक वेस्ट मैनेजमेंट का खाका तैयार कर उसके प्रचालन पर जोर दिया जाए।

[अध्येता, इलाहाबाद विश्वविद्यालय]