हृदयनारायण दीक्षित। चुनाव जनतंत्र का आधार है। चुनाव के माध्यम से हम अपने जनप्रतिनिधि चुनते हैं। सरकार का चयन करते हैं। राजनीतिक दल सत्ता के दावेदार होते हैं। दल मतदाता के बीच अपना-अपना पक्ष रखते हैं। वही भारतीय जनतंत्र की देह हैं। संविधान सभा में 16 जून, 1949 को चुनाव तंत्र पर बहस हुई थी। डा. आंबेडकर ने 'मताधिकार को जनतंत्र का प्राण बताया था। कायदे से चुनावों के दौरान राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं पर बहस होनी चाहिए। शिक्षा, चिकित्सा, बेरोजगारी, आर्थिक समृद्धि, कृषि और औद्योगिक विकास, सुशासन व समग्र विकास सहित अनेक मुद्दे हैं। समान नागरिक संहिता, मतांतरण, अर्थव्यवस्था और जनसंख्या वृद्धि जैसे चुनौतीपूर्ण मुद्दे भी हैं। इन्हें चुनाव के दौरान बहस का विषय बनाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। पांच राज्यों के चुनावी कार्यक्रम की घोषणा हो चुकी है। जाति, उपजाति, गोत्र, वंश, पंथ और मजहब चुनावी बहस के मुद्दे बन रहे हैं। बुनियादी सवालों पर बहस नहीं है। राष्ट्रीय विकास के मूलभूत मुद्दे पृष्ठभूमि में हैं। जनतंत्र के लिए यह शुभ नहीं।

दुनिया कोविड महामारी से पीडि़त है। इससे सभी देशों की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। भारत भी अपवाद नहीं, परंतु चुनाव में कोविड प्रभावित अर्थव्यवस्था पर कोई बहस नहीं है। जबकि मजबूत अर्थव्यवस्था से ही देश का विकास होता है। लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं। अर्थनीति ही राजनीति का केंद्र होती है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर आधुनिक अर्थशास्त्र तक राजनीति का मुख्य केंद्र अर्थनीति ही रही है। अर्थ जीविका है। जीवन में अर्थ की विशेष महत्ता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है, 'मनुष्य की जीविका को अर्थ कहते हैं। मनुष्य वाली भूमि भी अर्थ है। भूमि व धन प्राप्ति एवं उसके रक्षोपायों का ज्ञान अर्थशास्त्र कहा जाता है।' अर्थ चिंतन केवल धन चिंतन नहीं है। यहां आदर्श राजव्यवस्था के लिए राजनीति को अर्थ चिंतन से जोडऩे के संदेश हैं। डा. आंबेडकर ने 'प्राब्लम आफ रुपी' यानी रुपये की समस्या नाम से एक शोध ग्रंथ लिखा था। उन्होंने लिखा है, 'सभी मानवीय प्रयासों, रुचियों और आकांक्षाओं का केंद्र बिंदु धन है।' अर्थशास्त्र का नाम 'पोलिटिकल इकोनामी' था। अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के समय 'वेल्थ आफ नेशन' अर्थशास्त्र का ही का विषय था।

दुनिया की सभी राजनीतिक विचारधाराओं का केंद्र अर्थ नीति होती है। जीवन में अर्थ की महत्ता है। महाभारत में युधिष्ठिर को अर्थवेत्ता कहा गया है। नारद युधिष्ठिर की सभा में उनसे पूछते हैं, 'क्या आप अर्थ चिंतन करते हैं?' राजव्यवस्था के लिए अर्थ चिंतन मूलभूत विषय है। गाय, कृषि व्यवस्था और पशुपालन वैदिक काल से ही राष्ट्रीय विमर्श में रहे हैं। बौद्ध साहित्य में कहा गया है कि जैसे माता-पिता और अन्य हैं वैसे ही गायें भी हैं। राजनीतिक चिंतन की पृष्ठभूमि अर्थ चिंतन है। आर्थिक समृद्धि को सदैव राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ही रखना चाहिए, लेकिन आश्चर्य है कि चुनाव में अर्थनीति और उसके मुख्य बिंदुओं पर बहस नदारद है। यही प्रवृत्ति प्रत्येक चुनाव में दिखाई पड़ती है। इससे राष्ट्रीय क्षति होती है। चुनावों में जाति के आधार पर वोट देने की अपीलें हो रही हैं। उप जाति, समूह भी चुनावी उपकरण हैं। ऐसे समूह अपनी-अपनी जाति की उपेक्षा का रोना रोते हैं। अगड़े, पिछड़े, अति पिछड़े की बातें चल रही हैं। ऐसे चुनाव अभियान देश और समाज के समग्र विकास के लक्ष्य से अलग हैं। ऐसे अभियानों में विकास के आधारभूत ढांचे की चर्चा नहीं है। इस आधार पर वोट देने वाले मतदाता सामाजिक और आर्थिक विकास की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं।

चुनाव के समय दल-बदल भी थोक के भाव होते हैं। विचाराधाराएं बेमतलब हैं। सिद्धांतविहीन दलों की दल-बदल के औचित्य की व्याख्यायें दयनीय हैं। अगर दल-बदलू महानुभावों की व्याख्याएं मान भी ली जाए तो मूल सवाल बना रहता है। आखिर पांचवें और चुनावी वर्ष में ही उन्हें कथित ज्ञान की प्राप्ति क्यों होती है? उनकी दलीलें प्राय: हास्यास्पद होती हैं। ऐसे दल-बदल चुनाव की शुचिता और पवित्रता को प्रभावित करते हैं। इससे आमजन में राजनीति के प्रति घृणा भाव और निराशा उत्पन्न होती है। मतदाता जनतंत्र को सिद्धांतहीन मानने लगते हैं। चुनावी दौर में दल-बदल जनतंत्र के प्रति भरोसा भी घटाते हैं।

चुनाव जनतंत्रीय उत्सव होते हैं। संविधान निर्माताओं ने लंबी बहस के बाद वयस्क मताधिकार पर मुहर लगाई थी। उन्हें विश्वास था कि विचार आधारित दल जन अभियान चलायेंगे। आमजनों का राजनीतिक शिक्षण होगा। दल अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करेंगे। मतदाता सबकी सुनेंगे और अपनी पसंद से वोट देंगे। सभी दल अपना चुनावी घोषणापत्र जारी करेंगे। मतदाता चुनाव घोषणा पत्रों का निरीक्षण-परीक्षण करेंगे। पार्टियां संसद के लिए होने वाले चुनाव में संघ सूची के विषयों पर वोट मांगेंगी और इसी तरह विधानसभाओं के चुनाव में राज्य सूची के विषयों को महत्ता दी जाएगी। ऐसा नहीं हो रहा है। यहां राष्ट्रीय विकास के बुनियादी प्रश्नों पर भी बहस का अभाव है। मूलभूत प्रश्नों से पृथक जाति, मत, मजहब की वरीयता है। जनतंत्र का मूल भाव नेपथ्य में है। दलतंत्र के ऐसे कार्यो से जनतंत्र की बड़ी क्षति हो रही है। देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। हम स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में हैं। इसमें जनतंत्रीय मर्यादा और संस्कृति का अभाव सालता है।

चुनावी विमर्श पटरी से उतर रहा है। इसमें बुनियादी प्रश्नों पर विमर्श की जगह नहीं है। सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास जनतंत्र का आधार है, लेकिन चुनाव में यह ध्येय भी जाति, पंथ, मजहब और दल-बदल की भेंट चढ़ गया है। मूलभूत प्रश्न है कि बुनियादी सवालों को चुनावी विमर्श में कैसे लाया जाए? चुनाव को जनतंत्रीय उत्सव कैसे बनाया जाए? मूलभूत विषयों को चुनावी बहस के केंद्र में लाना मतदाता का कर्तव्य है। जनतंत्र में चुनाव के दौरान मतदाता ही सम्राट होता है। सभी मतदाता और प्रत्याशी सर्वप्रथम 'हम भारत के लोगÓ हैं। संविधान निर्माताओं ने भारत को जातियों का संघ नहीं बताया था। जातियां राष्ट्र गठन की घटक नहीं है। राष्ट्र गठन की इकाई 'भारत के लोगÓ हैं। जाति, उप जाति, पंथ, मजहब आधारित मतदान की मांग संविधानसम्मत नहीं है? देश और समाज की समृद्धि सबका सपना है। समृद्धि के सभी पहलुओं पर चुनाव में बहस होनी चाहिए। यही जनतंत्र का सौंदर्य है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)