[ प्रदीप सिंह ]: चुनाव भी कमोबेश क्रिकेट मैच की तरह होते हैं। टीमों की ताकत और कमजोरी का पता होते हुए भी मैच के नतीजे की भविष्यवाणी जोखिम भरा काम होता है। यूं तो हर चुनाव नतीजा हारने/जीतने वाली पार्टी और उसके नेता के बारे में मतदाता का फैसला उतना ही अहम होता है। इसके बावजूद कुछ चुनाव ऐसे होते हैं जिनकी अहमियत भविष्य की राजनीति के नजरिये से ज्यादा होती है। इस साल के अंत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आगामी लोकसभा चुनाव की राजनीतिक लामबंदी की दिशा तय करेंगे। मुकाबला सीधा कांग्रेस और भाजपा के बीच है। भाजपा को अपना किला बचाना है तो कांग्रेस के समक्ष उसमें सेंध लगाने की चुनौती है।

चुनाव आयोग ने अभी तक इन पांच राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना विधानसभा की चुनाव तिथियों की घोषणा नहीं की है। पूरे देश की नजर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव पर है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा पिछले पंद्रह साल से और राजस्थान में पांच साल से सत्ता में है। चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों के जमाने में पार्टियों और नेताओं के लिए हर चुनाव करो या मरो का मसला बन जाता है। राज्य का नेतृत्व गौण हो जाता है और राष्ट्रीय नेतृत्व की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है। ऐसा लगता है कि बस यह आखिरी चुनाव है। इसमें हारे तो सब हार गए और जीते तो फिर कोई रोक नहीं सकता, परंतु राजनीति में ऐसा होता नहीं कि जो आज हारा या जीता है वह कल भी इसी गति को प्राप्त होगा।

हर ऐसे मुकाबले के बाद हम पिछली बातें भूल जाते हैं। डेढ़ साल पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव मोदी और शाह की जोड़ी के लिए अग्निपरीक्षा, मध्यावधि चुनौती और न जाने क्या-क्या था। छप्पर फाड़ जीत मिली तो वह जीत नेपथ्य में चली गई। उसके बाद गुजरात राहुल गांधी और कांग्रेस के पुनरोदय का साक्षी बनने वाला था। बाइस साल के सत्ता विरोधी रुझान के बाद भी भाजपा छठी बार सत्ता में आई। उसके बाद कर्नाटक विधानसभा का चुनाव आया। देश में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से एक वर्ग में चुनावी राजनीतिक विमर्श कैसे गढ़ा जाता है उसका उदाहरण गुजरात और कर्नाटक विधानसभा के नतीजों से दिखा। गुजरात में भाजपा की सीटें घट गईं, पर बहुमत बना रहा। कांग्रेस की सीटें बढ़ गईं, लेकिन सत्ता नहीं मिली। इसे कांग्रेस और राहुल गांधी के नेतृत्व की जीत और मोदी-शाह की हार माना गया। कर्नाटक में सरकार कांग्रेस की थी। वह हार गई। जाहिर है उसकी सीटें घट गईं और भाजपा की सीटें काफी बढ़ गईं। अब नतीजे के आकलन का गुजरात वाला फार्मूला बदल गया। इसे भी कांग्रेस की जीत और भाजपा की हार बताया गया।

सवाल है कि तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव की प्रदेश की राजनीति से बाहर क्या अहमियत है। काफी अर्से से इन तीन राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हो रहे हैं। इनके नतीजे लोकसभा चुनाव में जीत-हार का कोई स्पष्ट संदेश नहीं देते। इसलिए इन राज्यों के चुनाव नतीजे के आधार पर लोकसभा चुनाव के संभावित परिणाम का आकलन निरर्थक मगजमारी होगी। फिर राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में इनकी क्या अहमियत है। इन तीन राज्यों के चुनाव नतीजे तय करेंगे कि लोकसभा चुनाव में राजनीतिक ध्रुवीकरण का रास्ता खुलेगा या बंद होगा। इन्हीं चुनावों से तय होगा कि विपक्षी गठबंधन बनेगा या नहीं और बनेगा तो उसका स्वरूप क्या होगा। कांग्रेस और राहुल गांधी की उसमें क्या जगह और हैसियत होगी। भाजपा को भी पता चलेगा कि उसके मुकाबले की सेना का स्वरूप क्या होगा।

राहुल गांधी का मंदिर भ्रमण इसीलिए बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इन तीन राज्यों में कांग्रेस का मुकाबला सीधे भाजपा से है। दूसरी बात यह कि तीनों राज्यों में कांग्रेस को सत्ता विरोधी रुझान का फायदा है। राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी में उनके सलाहकारों को लग रहा है कि मंदिर जाने से भाजपा का हिंदू जनाधार खिसककर कांग्रेस की तरफ आ जाएगा। कांग्रेस इस बात से परेशान है कि उसकी छवि मुस्लिमपरस्त पार्टी की बन गई है।

कांग्रेस 1937 में भी ऐसे ही परेशान हुई थी जब मोहम्मद अली जिन्ना ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है। आजादी के बाद कांग्रेस में दक्षिणपंथी सोच वाले नेताओं को धीरे-धीरे हाशिये पर डाल दिया गया। यह इसलिए भी हो सका, क्योंकि नेहरू खुद को ‘एक्सीडेंटल हिंदू’ मानते थे। वह मंदिर जाने से बचते थे। तो क्या हिंदू उनको वोट नहीं देते थे? इसलिए यह सोचना कि मंदिर जाने से वोट मिल जाएगा, मुगालते में रहने जैसा है। भाजपा को हिंदू वोट इसलिए नहीं मिलते कि उसके नेता मंदिर जाते हैं। उसने अपनी यह छवि हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर अपने रुख और संघर्ष से बनाई है। इसका उसने नुकसान भी उठाया है। और यहां तक पहुंचने में उसे दशकों लगे हैं। मोदी को अपने हिंदू होने के लिए मंदिर जाने की जरूरत नहीं है। मोदी, अमित शाह मंदिर जाते हैं तो यह धर्म के प्रति उनकी निजी निष्ठा और श्रद्धा है। राजनीतिक जरूरत नहीं।

इन तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए सबसे बेहतर अवसर राजस्थान में है। उसकी वजह राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की कार्यशैली है। पिछले पांच साल में उन्होंने जो रायता फैलाया है उसे समेटने का जिम्मा मोदी और अमित शाह पर है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में फर्क यह है कि पहले दो राज्यों में भाजपा के राज्य नेतृत्व को राष्ट्रीय नेतृत्व की मदद चाहिए। वहीं राजस्थान में भाजपा राष्ट्रीय नेतृत्व के ही आसरे है।

राजस्थान में कांग्रेस यदि अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं करेगी तो उसको नुकसान होगा। राजस्थान हो या मध्य प्रदेश कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने ही लोग हैं। राजस्थान में सीपी जोशी और मोहन प्रकाश को हाशिये पर धकेलना कांग्रेस के लिए नुकसानदेह हो सकता है। मध्य प्रदेश में कमलनाथ, ज्योतिरादित्य और दिग्विजय सिंह की तिकड़ी के आपसी संबंध समस्या बनेंगे या समाधान, यह समय ही बताएगा। दिग्विजय सिंह की राज्य में जो भी हैसियत है वह कांग्रेस आलाकमान की वजह से नहीं उनके बावजूद है। कांग्रेस की कठिनाई यह है कि पंद्रह साल बाद भी शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह कमजोर विकेट पर नहीं हैं।

इन तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत राहुल गांधी को विपक्ष के संभावित गठबंधन में ऊंचे पायदान पर बिठा सकती है। इससे कांग्रेस की सौदेबाजी की ताकत बढ़ेगी। यहां भाजपा की हार को उसके राष्ट्रीय नेतृत्व की घटती लोकप्रियता के रूप में देखा जाएगा। विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम और काम पर वोट मांगने का मौका होगा। पर कांग्रेस यदि इन तीन राज्यों में जीतती नहीं तो राहुल गांधी का विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने का सपना फिर सपना ही रह जाएगा। फिर क्षेत्रीय दल तय करेंगे कि विपक्षी खेमे में कांग्र्रेस और राहुल की क्या भूमिका होगी। कांग्रेस की व्याकुलता इसी कारण है।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]