राजीव सचान। विभाजनकारी-भेदभाव भरे बयान देने वाले नेताओं के खिलाफ निर्वाचन आयोग के सख्त रवैये के बाद इसकी थोड़ी ही उम्मीद की जा सकती है कि आगे वैसे बयान देखने सुनने को नहीं मिलेंगे जैसे मायावती, योगी आदित्यनाथ और मेनका गांधी की ओर से दिए गए, लेकिन इसकी उम्मीद बिल्कुल नहीं कि गाली-गलौज करने वाले आजम खान जैसे लोग भी अपनी जबान संभाल सकेंगे। ऐसे लोग आसानी से काबू में नहीं आने वाले, इसका सटीक उदाहरण खुद आजम खान हैं। उन पर पिछले चुनाव में भी पाबंदी लगी थी और सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी उस बेहूदी बात के लिए उन्हें माफी मांगने को मजबूर किया था जो उन्होंने बुलंदशहर में एक मां-बेटी के साथ दुष्कर्म को लेकर दिया था।

उनका कहना था कि सपा सरकार को बदनाम करने के लिए दुष्कर्म की झूठी कहानी गढ़ी गई। आजम आपत्तिजनक बयान देने में माहिर हैं। जयाप्रदा के खिलाफ उन्होंने जो भद्दा बयान दिया उसका उल्लेख करना उनका ही नहीं, अन्य महिलाओं को शर्मसार करना है, फिर भी उसके एक हिस्से का उल्लेख इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अखिलेश यादव समेत कुछ अन्य यह लाइन पकड़ लिए हैं कि उनका आशय जयाप्रदा से नहीं था। गौर करें कि आजम खान ने कहा था, ‘‘जिसको हम अंगुली पकड़कर रामपुर लाए, आपने 10 साल जिनसे अपना प्रतिनिधित्व कराया...उसकी असलियत समझने में आपको 17 बरस लगे, मैं 17 दिन में पहचान गया कि उनके...।’’

निर्वाचन आयोग ने आजम खान के घोर आपत्तिजनक बयान के लिए उन्हें केवल तीन दिन तक चुनाव प्रचार से रोक कर यही संदेश दिया कि उनका मामला योगी आदित्यनाथ, मायावती और मेनका गांधी जैसा है, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? उनका मामला कहीं अधिक संगीन है। उन्हें दिए गए दंड को पर्याप्त नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह भी सही है कि निर्वाचन आयोग की अपनी सीमाएं हैं। वह उनकी उम्मीदवारी रद करने जैसा फैसला लेने में सक्षम नहीं और अगर वह मतदान होने तक उन पर चुनाव प्रचार न करने की पाबंदी लगा भी दे तो यह जरूरी नहीं कि उससे अभीष्ट की प्राप्ति हो ही जाए। एक क्षण के लिए कल्पना करें कि अगर निर्वाचन आयोग उन्हें मतदान तक चुनाव प्रचार करने से रोक दे और रामपुर की जनता फिर भी उन्हें जिता दे तो फिर वह और अधिक इतराएंगे भी और अपने जैसे लोगों को बल भी प्रदान करेंगे।

वह ऐसी किसी पाबंदी को अपने पक्ष में भुनाने का भी काम कर सकते हैं। उनके बेटे यह कह ही रहे हैं कि उन पर पाबंदी इसलिए लगाई गई, क्योंकि वह मुस्लिम हैं। मायावती भी ऐसी ही कोशिश करती दिखीं। वह अपने खिलाफ अन्याय की शिकायत लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं। निर्वाचन आयोग के पास आजम खान जैसे नेताओं की उम्मीदवारी रद करने जैसे अधिकार होने चाहिए। वह अपने लिए और अधिक अधिकारों की मांग एक अर्से से कर रहा है, लेकिन कोई भी उसकी नहीं सुन रहा-सुप्रीम कोर्ट भी नहीं।

एक समय जब राज ठाकरे के उत्पाती कार्यकर्ता मुंबई में उत्तर भारतीयों के खिलाफ गुंडागर्दी कर रहे थे तो सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका इस आशय की पेश हुई कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की राजनीतिक दल के तौर पर मान्यता खत्म की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता को निर्वाचन आयोग के पास भेज दिया। आयोग कुछ न कर पाने के लिए मजबूर था, क्योंकि उसके पास किसी राजनीतिक दल की मान्यता खत्म करने का अधिकार ही नहीं। आखिर उसे किसी की उम्मीदवारी और राजनीतिक दलों की मान्यता खत्म करने का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए? अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट निर्वाचन आयोग को और अधिक अधिकारों से लैस करने की उसकी मांग पर विचार करता ताकि चुनाव सुधारों का मार्ग भी प्रशस्त हो सके और राजनीतिक दल राजनीति करने के नाम पर मनमानी न कर सकें।

यह लगभग तय है कि निर्वाचन आयोग को आगे और सख्ती बरतनी पड़ेगी, क्योंकि नेता बेलगाम हुए जा रहे हैं। वे अपनी ही बनाई आचार संहिता का उल्लंघन करने के साथ ही विरोधियों के खिलाफ ओछी बातें करने में भी लगे हुए हैं। वे विरोधियों की शिकायत तो कर रहे हैं, लेकिन अपने नेताओं का आचरण नहीं देख पा रहे हैं। यह हास्यास्पद है कि कांग्रेस मायावती और योगी आदित्यनाथ पर पाबंदी को लेकर तो खुशी जता रही है, लेकिन इस पर गौर नहीं कर रही है कि खुद राहुल गांधी सुप्रीम कोर्ट के निशाने पर भी आ सकते हैं और निर्वाचन आयोग के भी। कांग्रेस को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान पर आपत्ति है जिसमें उन्होंने नए मतदाताओं से कहा था कि क्या आपका पहला वोट पुलवामा के शहीदों के नाम समर्पित हो सकता है?

कांग्रेस ने निर्वाचन आयोग से प्रधानमंत्री के इस बयान की शिकायत की है। उसकी शिकायत निराधार नहीं, लेकिन आखिर वह यह भी तो देखे कि उसके अपने अध्यक्ष किस कदर बेलगाम हुए जा रहे हैं? क्या राहुल गांधी यह बता सकते हैं कि वह इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदे से जुड़े मामले पर अपने हाल के फैसले में यह कहा है कि चौकीदार ही चोर है? कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट उनकी सफाई से संतुष्ट हो जाता है या फिर उन्हें अपनी अवमानना का दोषी पाता है? जो भी हो, उनका एक आपत्तिजनक बयान यह भी है कि ‘सारे मोदी चोर होते हैं।’ ऐसा करके उन्होंने गुजरात, राजस्थान और अन्य राज्यों के उन लोगों का अपमान ही किया है जो अपने नाम में मोदी लगाते हैं।

देश में राजनीतिक संवाद और विमर्श जिस स्तर पर पहुंच गया है उसे देखते हुए आसार इसी के हैं कि चुनाव बाद भी भारतीय राजनीति छल-कपट और ओछे-भद्दे बयानों के सहारे ही आगे बढ़ेगी। इसका एक कारण यह भी है कि मीडिया का एक हिस्सा बेजा बयानों को कुछ ज्यादा ही महत्व देने लगा है। मीडिया का यह हिस्सा जब तक कुछ बेतुके बयानों को बड़ी खबर बताकर पेश न कर ले, उसे चैन नहीं आता। वह जैसे नेताओं के बेतुके बयानों को लेकर उन्हें कोसता है, हर मसले पर उन्हीं की प्रतिक्रिया जानने को लालायित भी रहता है।

बेलगाम होती राजनीति को निर्वाचन आयोग एक सीमा तक ही पटरी पर ला सकता है, क्योंकि राजनीतिक शिष्टाचार डंडे के बल पर नहीं कायम किया जा सकता। बात तभी बनेगी जब राजनीतिक दल दूसरों को उपदेश देने के पहले खुद उन पर पालन करेंगे, एक-दूसरे को शत्रु के रूप में देखना बंद करेंगे और यह समझेंगे कि राजनीति के जो भी नियम हैं वे उन्हीं के लिए हैं। यह मुश्किल काम नहीं, इसका ही उदाहरण पेश किया निर्मला सीतारमण ने, जो चुनाव प्रचार के दौरान घायल हुए शशि थरूर का हालचाल लेने अस्पताल गईं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)